भारतीय कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित कविता 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी' ये कविता आज भी रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथा बयां करती है. ऐसे वक्त में जब एक-एक कर राजा अंग्रेजों के सामने घुटने टेक रहे थे तब ये रानी लक्ष्मीबाई हीं थी जिन्होंने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया. उन्होंने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए. आइए जानते हैं उनके जीवन के बारे में.
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म का वाराणसी (काशी) ज़िले के भदैनी नामक शहर में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था. उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें लोगों द्वारा मनु कहा जाता था. उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था.
रानी लक्ष्मीबाई का विवाह सन् 1842 में झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं. विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया. सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया. परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी. सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी. पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी. दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया. यह भी पढ़ें- गणेशोत्सव 2018: जानिए क्या है लालबाग के राजा का इतिहास
राजा का देहांत होते ही अंग्रेज़ों ने चाल चली और लॉर्ड डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य के पैर पसारने के लिए झांसी की बदकिस्मती का फायदा उठाने की कोशिश की. अंग्रेजों ने दामोदर को झांसी के राजा का उत्तराधिकारी स्वीकार करने से इनकार कर दिया. झांसी की रानी को सालाना 60000 रुपए पेंशन लेने और झांसी का किला खाली कर चले जाने के लिए कहा गया. झांसी को बचाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने बागियों की फौज तैयार करने का फैसला किया. उन्हें गुलाम गौस ख़ान, दोस्त ख़ान, खुदा बख़्श, सुंदर-मुंदर, काशी बाई, लाला भऊ बख़्शी, मोती भाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह से मदद मिली. 1857 की बगावत ने अंग्रेजों का फोकस बदला और झांसी में रानी ने 14000 बागियों की सेना तैयार की.
रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु:
18 जून 1858 को ह्यूरो़ज स्वयं युद्ध भूमि में आ डटा. अब रानी ने दामोदर राव को रामचन्द्र देशमुख को सौंपकर अंग्रे़जों से युद्ध करते हुए सोनरेखा नाले की ओर बढ़ चलीं, किन्तु दुर्भाग्यवश रानी का घोड़ा इस नाले को पार नहीं कर सका. उसी समय पीछे से एक अंग्रे़ज सैनिक ने रानी पर तलवार से हमला कर दिया, जिससे उन्हें काफी चोट आई और 18 जून 1858 को 23 वर्ष की आयु में वे वीरगति को प्राप्त हुई. बाबा गंगादास की कुटिया में, जहां रानी का प्राणान्त हुआ था, वहीं चिता बनाकर उनका अन्तिम संस्कार किया गया.