भारत की 18वीं लोकसभा में केवल 74 महिलाएं ही सांसद चुनी गई हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में महिला सांसदों की संख्या 78 थी.18वीं लोकसभा की 543 सीटों में इस बार सिर्फ 74 महिला सांसद ही हैं. पिछली लोकसभा में यह संख्या 78 थी. इस बार चुनी गईं महिला प्रतिनिधि नई संसद का केवल 13.63 फीसदी हिस्सा हैं. सबसे अधिक 31 महिला सांसद इस बार बीजेपी से हैं.
वहीं कांग्रेस से 13, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से 11, समाजवादी पार्टी (सपा) से पांच और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) से तीन महिला सांसद चुनी गई हैं. बिहार की पार्टियां जनता दल-यूनाइटेड (जेडीयू) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) से दो-दो महिला सांसद चुनी गई हैं.
महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी, सांसदों की नहीं
महिला उम्मीदवारों की संख्या देखें, तो 1957 के आम चुनावों से लेकर 2024 के चुनावों तक महिला उम्मीदवारों का आंकड़ा 1,000 के पार नहीं जा पाया है. 2024 के लोकसभा चुनावों में कुल 8,360 उम्मीदवार मैदान में थे. हालांकि, प्रत्याशियों की इस विशाल संख्या में महिलाओं की कुल हिस्सेदारी सिर्फ 10 फीसदी ही रही. लोकसभा की 543 सीटों पर केवल 797 महिला प्रत्याशियों ने ही इस बार चुनाव लड़ा.
महिला सांसदों की घटती संख्या के पीछे सबसे बड़ी चुनौती उनकी कम उम्मीदवारी भी है. 2019 के लोकसभा चुनावों में 726 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, लेकिन तब 78 महिलाएं ही जीतकर संसद पहुंची थीं.
वहीं, 2014 में 640 महिला उम्मीदवार थीं और इनमें से 62 महिलाएं सांसद बनीं. 2009 के चुनावों में 556 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जिनमें से 58 महिलाएं संसद पहुंचीं. हर लोकसभा चुनाव के साथ महिला उम्मीदवारों की संख्या तो जरूर बढ़ी है, लेकिन इनमें से चुनकर संसद तक पहुंचने का सफर बेहद कम महिलाएं ही तय कर पाती हैं.
देश की अधिकतर बड़ी पार्टियों ने भी महिलाओं को टिकट देने में उतनी उदारता नहीं दिखाई. सत्ताधारी बीजेपी ने 69 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया. वहीं, देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने भी केवल 41 महिला उम्मीदवारों को ही टिकट दिया. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 37 और सपा ने 14 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा. पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने 12 महिलाओं को टिकट दिया था.
हर चरण के साथ घटती गई महिलाओं की संख्या
2024 के लोकसभा चुनाव के हर चरण में महिला उम्मीदवारों की भागीदारी बेहद कम देखी गई. पहले चरण के 1,625 उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या सिर्फ 134 थी. दूसरे चरण के 1,192 उम्मीदवारों में 100 और तीसरे चरण के 1,352 उम्मीदवारों में केवल 123 महिलाएं थीं.
चौथे चरण में सबसे अधिक 170 महिला उम्मीदवारों ने अपनी दावेदारी पेश की. इसके बाद महिला उम्मीदवारों का आंकड़ा 100 के अंदर ही सिमटता दिखा. पांचवें चरण में 82, छठे चरण में 92 और आखिरी चरण में 95 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं.
कितनी बढ़ी महिलाओं की भागीदारी
भारत में 1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए थे. पहली लोकसभा में जहां महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व पांच फीसदी था, तब 22 महिलाएं सांसद बनी थीं. वहीं 17वीं लोकसभा में 78 महिलाओं के साथ यह बढ़कर 14.36 फीसदी तक पहुंचा. 2024 के आम चुनावों के बाद यह घटकर अब 13.63 फीसदी पर आ गया है.
पिछली लोकसभा के मुकाबले महिला सासंदों की संख्या ऐसे समय में कम हुई है, जब भारत में महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी मिल चुकी है. हालांकि, यह विधेयक अब तक लागू नहीं हुआ है लेकिन पार्टियों की उम्मीदवारों की लिस्ट में महिलाओं की मौजूदगी को देखते हुए उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठना लाजिमी है.
इस विधेयक के तहत लोकसभा और प्रदेश विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करना अनिवार्य है. हालांकि, यह विधेयक अगली जनगणना के बाद ही लागू हो पाएगा. इस विधेयक को संसद में पास होने में 27 सालों का वक्त लगा.
जेंडर कोटा महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का एक बेहद महत्वपूर्ण रास्ता है. भारतीय पार्टियों के इस साल के टिकट के आंकड़ों को देखते हुए कह सकते हैं कि अधिकतर पार्टियां 33 फीसदी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लक्ष्य से बेहद दूर हैं.
कई महिला उम्मीदवारों का ताल्लुक राजनीतिक परिवारों से
यह देखना भी जरूरी है कि किन महिलाओं को पार्टियां टिकट देने में प्राथमिकता देती हैं. आंकड़ों के मुताबिक, अधिकतर महिला उम्मीदवार जो जीत दर्ज कर संसद का रास्ता तय करती हैं, उनका संबंध किसी-न-किसी राजनीतिक या प्रभावशाली परिवार से होता है. चाहे वह सपा से डिंपल यादव हों, एनसीपी से सुप्रिया सुले, राजद से मीसा भारती, अकाली दल से हरसिमरत बादल या बीजेपी से बांसुरी स्वराज.
इस बार कई युवा महिलाएं भी सांसद चुनी गई हैं. सपा की प्रिया सरोज, लोजपा से शांभवी चौधरी, कांग्रेस से प्रियंका सिंह और संजना जाटव पहली बार सांसद बनी हैं. इन सबकी उम्र भी 30 साल से कम है, लेकिन इनमें से अधिकतर महिलाएं राजनीतिक परिवारों से ही आती हैं.
राजनीतिक पार्टियां उन महिलाओं को ही टिकट देने में प्राथमिकता देती हैं, जो मजबूत राजनीतिक परिवारों से आती हैं ताकि उनके जीतने की संभावना अधिक हो. भारतीय राजनीति के संदर्भ में यह एक बड़ा तथ्य है कि सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों को टिकट मिलना मुश्किल है, खासकर महिलाओं या दूसरी वंचित पहचान वालों के लिए.
राजनीति में लैंगिक समानता दूर की कौड़ी
भारतीय थिंक टैंक 'पीआरएस लेजिसलेटिव' के मुताबिक, राजनीति में लैंगिक समानता की दृष्टि से भारत अभी भी कई देशों से काफी पीछे है. उदाहरण के तौर पर दक्षिण अफ्रीका में 46 फीसदी, ब्रिटेन में 35 प्रतिशत, तो अमेरिका में 29 फीसदी सांसद महिलाएं हैं. ये महज चंद उदाहरण हैं. वैश्विक स्तर पर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन यह क्षेत्र आज भी लैंगिक समानता से दूर है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, मौजूदा दर के अनुसार शीर्ष नेतृत्व के पदों पर लैंगिक समानता आने में अभी 130 साल और लगेंगे.
राजनीति में महिलाओं को लैंगिक असमानता का सामना बेहद निचले स्तर से करना पड़ता है. टिकट मिलने से सांसद बनने और मंत्री पद तक. आंकड़े दिखाते हैं कि दुनियाभर में आज भी महिलाओं को सबसे अधिक जो मंत्रालय सौंपे जाते हैं उसमें बाल विकास, परिवार, सामाजिक कल्याण और विकास, अल्पसंख्यक मंत्रालय ही शामिल होते हैं.