Bihar Election Result 2025: 14 नवंबर 2025 की सुबह जब बिहार विधानसभा चुनाव के वोटों की गिनती शुरू हुई, तो सवाल यह नहीं था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) जीतेगा या नहीं. लगभग सभी एग्जिट पोल NDA को बहुमत दे रहे थे. असली सवाल यह था कि यह जीत कितनी बड़ी होगी.
दोपहर होते-होते, यह स्पष्ट हो गया कि यह सिर्फ 'जीत' नहीं, बल्कि एक राजनीतिक 'सुनामी' थी. 243 सीटों वाली विधानसभा में 122 के जादुई आंकड़े के मुकाबले, NDA के शुरुआती रुझान 190, 197 और यहां तक कि 200 सीटों के विशाल पहाड़ को छू रहे थे. यह 2020 के चुनाव की कांटे की टक्कर (125 बनाम 110 सीटें) का बिल्कुल उलटा था. यह RJD-कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन (MGB) की राजनीतिक तबाही थी, जो 50 सीटों के नीचे सिमटता दिख रहा था.
इस अभूतपूर्व जनादेश ने दो बड़े इतिहास रचे. पहला, भारतीय जनता पार्टी (BJP) अपने दम पर 86-90 सीटों पर बढ़त बनाकर, पहली बार बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. दूसरा, तमाम आलोचनाओं और 'पलटू राम' के तंज के बावजूद, नीतीश कुमार ने रिकॉर्ड 10वीं बार मुख्यमंत्री के रूप में अपनी वापसी तय कर ली.
तो, यह हुआ कैसे? विपक्ष का ऐसा सूपड़ा साफ कैसे हो गया? यह जीत किसी एक 'फैक्टर' से नहीं मिली. यह 5 बड़े और मजबूत स्तंभों पर खड़ी एक इमारत है. आइए, एक-एक करके इनकी पड़ताल करते हैं.
वजह 1: 'नारी शक्ति' का 'साइलेंट' प्रहार (और 'दसहजारी' का जादू)
इस चुनाव की सबसे बड़ी, सबसे निर्णायक और सबसे कम चर्चा में रही कहानी महिलाओं के मतदान में है. यह वह अदृश्य लहर थी जिसे कई राजनीतिक विश्लेषक और शायद विपक्ष भी, भांप नहीं पाया.
आंकड़ों का खेल
पहले तो, इस चुनाव ने मतदान के सारे पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए. बिहार ने 1951 के बाद से 67.13% का ऐतिहासिक मतदान देखा. लेकिन असली कहानी इस आंकड़े के भीतर छिपी है. चुनाव आयोग के डेटा ने एक अभूतपूर्व लैंगिक अंतर (Gender Gap) को उजागर किया:
- महिला मतदान: 71.78%
- पुरुष मतदान: 62.98%
यह लगभग 9% का विशाल अंतर है. कुछ जिलों जैसे सुपौल, किशनगंज और अररिया में तो यह अंतर 14% से भी अधिक था. लाखों अधिक महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में वोट डाला.
वोट गया कहां?
यह 'नारी शक्ति' का बढ़ा हुआ वोट सीधे NDA, और विशेष रूप से नीतीश कुमार की JDU की झोली में गया. एक विश्लेषण से पता चलता है कि जिन जिलों में महिलाओं का वोट प्रतिशत पुरुषों से कहीं अधिक था, वहां-वहां NDA का वोट शेयर महागठबंधन (MGB) से 11 से 15 प्रतिशत अंक अधिक था. एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल ने भी अनुमान लगाया था कि 45% महिलाओं ने NDA को वोट दिया, जबकि MGB को 40%.
'दसहजारी' और 'जीविका' का 'गेम-चेंजर'
सवाल है क्यों? इसका जवाब नीतीश कुमार के दो दशक के 'महिला-केंद्रित' सुशासन मॉडल में है:
- 'दसहजारी' चुनाव: इस चुनाव को अनौपचारिक रूप से 'दसहजारी' चुनाव कहा जा सकता है. चुनाव से ठीक पहले, सितंबर में 'मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना' का लॉन्च और 75 लाख से अधिक महिलाओं के खाते में ₹10,000 की नकद सहायता का सीधा हस्तांतरण एक 'गेम-चेंजर' साबित हुआ. विपक्ष ने इसे 'चुनावी रिश्वत' कहा, लेकिन महिलाओं के लिए यह 'आर्थिक सम्मान' और 'हक' था.
- 'जीविका' की सेना: बिहार में 1.2 करोड़ से अधिक 'जीविका दीदी' (स्वयं सहायता समूह) सिर्फ लाभार्थी नहीं हैं; वे नीतीश कुमार की सबसे वफादार और संगठित प्रचारक हैं. इन महिला समूहों ने घर-घर जाकर NDA के 'सुशासन' का संदेश पहुंचाया. कांग्रेस नेता अशोक गहलोत ने भी सार्वजनिक रूप से माना कि 'जीविका दीदी' योजना का NDA ने चतुराई से इस्तेमाल किया.
- पुराना विश्वास: यह विश्वास नया नहीं था. नीतीश कुमार द्वारा लागू की गई शराबबंदी (जिससे घरेलू हिंसा में कमी आई), लड़कियों के लिए मुफ्त साइकिल योजना (जिसने उन्हें शिक्षा दी), और पंचायतों में 50% आरक्षण जैसे पुराने फैसलों ने एक वफादार वोट बैंक बनाया था, जिसने इस बार भी 'नीतीश चचा' पर भरोसा जताया.
यह चुनाव 'बेरोजगारी' (MGB का मुख्य मुद्दा) बनाम 'घरेलू अर्थशास्त्र' (NDA का महिला-केंद्रित एजेंडा) के बीच था. MGB ने पुरुषों (युवाओं) को आकर्षित करने वाले 'नौकरियों' के मैक्रो-इकोनॉमिक वादे पर ध्यान केंद्रित किया. इसके विपरीत, NDA ने ₹10,000 के सीधे नकद हस्तांतरण और 'सुशासन' की स्थिरता के माध्यम से घर चलाने वाली महिला की माइक्रो-इकोनॉमिक चिंताओं को सीधे संबोधित किया. बिहार के 71.78% महिला मतदाताओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि घर की स्थिरता, सुरक्षा और तत्काल वित्तीय सहायता का ठोस लाभ, भविष्य की नौकरी के अमूर्त वादे से अधिक महत्वपूर्ण था.
नीतीश कुमार ने इन 20 वर्षों में महिलाओं को केवल 'लाभार्थी' नहीं बनाए रखा; उन्होंने 'जीविका दीदी' और 'पंचायत आरक्षण' के माध्यम से उन्हें 'राजनीतिक भागीदार' बना दिया. इन योजनाओं ने महिलाओं को घर से बाहर निकाला, उन्हें वित्तीय स्वायत्तता दी और उन्हें निर्णय लेने की स्थिति में बिठाया. यह एक मूक क्रांति थी, और 2025 का परिणाम इसका सबसे मुखर प्रमाण है.
तालिका 1: बिहार 2025: महिला बनाम पुरुष मतदान (एक निर्णायक अंतर)
| संकेतक (Metric) | महिला मतदाता (Women Voters) | पुरुष मतदाता (Men Voters) | अंतर (Gap) |
| मतदाता प्रतिशत (Voter Turnout %) | 71.78% | 62.98% | +8.8% |
| NDA को अनुमानित वोट शेयर | 45% | (उपलब्ध नहीं) |
वजह 2: NDA का 'परफेक्ट' जातीय-समीकरण (EBC + सवर्ण + दलित)
अगर महिलाएं इस चुनाव की 'X-फैक्टर' थीं, तो NDA का मजबूत और 'लीक-प्रूफ' जातीय-समीकरण वह 'आधार' था जिस पर यह प्रचंड जीत खड़ी हुई.
EBC: 'किंगमेकर' जो किंग के साथ रहा
बिहार की 13 करोड़ से अधिक की आबादी में EBC (अति पिछड़ा वर्ग) 36% से अधिक हैं. यह बिहार का सबसे बड़ा और सबसे निर्णायक वोट-ब्लॉक है. परंपरागत रूप से, यह नीतीश कुमार का मुख्य वोट बैंक रहा है. RJD ने EBCs को लुभाने की बहुत कोशिश की, लेकिन NDA का 55% OBC/EBC वोट पर कब्जा यह दिखाता है कि यह वोट-ब्लॉक मजबूती से 'डबल इंजन' के साथ खड़ा रहा. जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देना और EBC समुदाय से आने वाले प्रेम कुमार (जो गया टाउन से लगातार जीत रहे हैं) जैसे नेताओं को प्रमुखता देना, भाजपा की सफल रणनीति का हिस्सा था.
सवर्ण + दलित = 'वोट-प्रूफ' जैकेट
भाजपा का कोर सवर्ण (Upper Caste) वोट बैंक (लगभग 11%) मजबूती से उसके साथ खड़ा रहा. लेकिन असली 'मास्टरस्ट्रोक' 2020 की गलती को सुधारना था.
2020 के चुनाव में, चिराग पासवान (LJP) NDA से बाहर रहकर लड़े थे और उन्होंने 'वोट-कटवा' (Vote Cutter) की भूमिका निभाई थी. उन्होंने JDU की सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए, जिससे नीतीश कुमार की पार्टी 2015 की 71 सीटों से गिरकर 43 सीटों पर सिमट गई.
2025 में, NDA ने इस 'लीक' को बंद कर दिया. चिराग पासवान (LJP-RV) और जीतन राम मांझी (HAM) दोनों न केवल NDA के मंच पर थे, बल्कि एकजुट होकर प्रचार कर रहे थे. इसका नतीजा आश्चर्यजनक था:
- LJP(RV) 21-22 सीटों पर आगे चल रही थी.
- HAM 4 सीटों पर आगे थी.
यह सिर्फ 'वोट-कटवा' राजनीति से 'वोट-मल्टीप्लायर' (वोट-गुणा) राजनीति में बदलाव था. LJP(RV) को 2020 में सिर्फ 1 सीट मिली थी. 2025 में 22 सीटों पर उसकी बढ़त का मतलब यह नहीं था कि उसने अकेले सीटें जीतीं; इसका मतलब था कि NDA के (BJP+JDU) वोटों में पासवान के दलित वोट जुड़े, और LJP(RV) के वोटों में BJP-JDU के वोट जुड़े. इस 'वोट-ट्रांसफर' ने JDU को 43 से 76+ और BJP को 74 से 86+ तक पहुंचने में मदद की. यह एक पूर्ण और कहीं अधिक स्थिर सामाजिक गठबंधन की जीत थी.
इसके विपरीत, RJD ने 'MY+BAAP' (मुस्लिम-यादव + बहुजन, अघाड़ा, महिला, गरीब) का नारा दिया, लेकिन वे 'MY' (मुस्लिम-यादव) समीकरण से बाहर नहीं निकल पाए.
वजह 3: 'डबल इंजन' का डबल अटैक: नीतीश का 'सुशासन' + मोदी की 'गारंटी'
नेतृत्व इस चुनाव में एक बड़ा मुद्दा था. NDA के पास दो बड़े और विश्वसनीय चेहरे थे; MGB के पास एक, जो अपनी ही विरासत के बोझ तले दबा था.
नीतीश का 'सुशासन' फैक्टर
20 साल के शासन के बाद भी, नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' की छवि बरकरार रही. भले ही उन पर बार-बार गठबंधन बदलने के लिए 'पलटू राम' का तंज कसा गया, लेकिन मतदाताओं, खासकर महिलाओं, ने 'जंगल राज' की भयावह यादों के बजाय नीतीश के 'कानून और व्यवस्था' और 'विकास' (बिजली, सड़क, पानी) के ठोस रिकॉर्ड को चुना.
इसे 'नीतीश पैराडॉक्स' (Nitish paradox) कहा जा सकता है - यानी, बेरोजगारी और आर्थिक चुनौतियों के बावजूद उनके खिलाफ कोई बड़ी सत्ता-विरोधी लहर (Anti-Incumbency) नहीं थी. लोगों में थकान थी, लेकिन 'गुस्सा' नहीं था.
'मोदी की गारंटी' का प्रभाव
यह सिर्फ राज्य का चुनाव नहीं था; इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी पूरा जोर था. 'मोदी की गारंटी' और 'डबल इंजन सरकार' के नैरेटिव ने राज्य और केंद्र की योजनाओं के 'लाभार्थी वर्ग' (Beneficiary Class) को एक साथ ला दिया.
इनमें मुफ्त राशन, पीएम किसान सम्मान निधि (जिसे NDA ने ₹6,000 से ₹9,000 करने का वादा किया), और मुफ्त स्वास्थ्य कवर शामिल थे. पीएम मोदी की आक्रामक रैलियां और RJD के 'जंगल राज' पर उनके सीधे और तीखे हमले ने मतदाताओं को यह याद दिलाने का काम किया कि दांव पर क्या लगा है.
MGB का अभियान 'वर्तमान' की विफलताओं (बेरोजगारी) पर केंद्रित था. NDA ने इस नैरेटिव को चतुराई से तोड़ दिया. जब भी MGB ने 'वर्तमान' (नौकरियां) की बात की, NDA ने तुरंत 'अतीत' (जंगल राज) की याद दिला दी. और जब भी MGB ने 'भविष्य' (वादे) की बात की, NDA ने 'मोदी की गारंटी' को एक अधिक विश्वसनीय विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया. यह एक 'अतीत बनाम भविष्य' की लड़ाई थी जिसमें NDA ने दोनों मोर्चों पर जीत हासिल की. नीतीश 'सुशासन' के प्रतीक थे और मोदी 'विकास' के, इस 'सुशासन + विकास' के कॉकटेल का विपक्ष के पास कोई जवाब नहीं था.
वजह 4: 'महागठबंधन' में 'महा-कलह' (और कांग्रेस का 'फ्लॉप शो')
NDA की जीत जितनी बड़ी है, उतनी ही बड़ी विपक्ष की हार है. महागठबंधन यह चुनाव NDA से नहीं, बल्कि काफी हद तक खुद से ही हार गया.
सीट-बंटवारे का सिरदर्द और 'फ्रेंडली फाइट'
NDA ने बहुत पहले ही अपना सीट-बंटवारा (BJP और JDU के लिए 101-101 सीटें) तय कर लिया था, जिससे एकजुटता का स्पष्ट संदेश गया. इसके विपरीत, MGB आखिरी समय तक सीटों के लिए लड़ता रहा.
लेकिन हार का सबसे बड़ा तकनीकी कारण बना MGB का 'आत्मघाती हमला'. लगभग एक दर्जन सीटों पर RJD, कांग्रेस और CPI(ML) के उम्मीदवार 'फ्रेंडली फाइट' के नाम पर एक-दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड़ गए 59. उदाहरण के लिए, बिहारशरीफ, राजापाकर और बछवाड़ा जैसी सीटों पर कांग्रेस और RJD या CPI के उम्मीदवार आमने-सामने थे.
यह 'महा-कलह' एक रणनीतिक गलती नहीं थी, बल्कि यह RJD के 'आधिपत्य' (hegemony) और कांग्रेस के 'अस्तित्व के संकट' (existential crisis) का अनिवार्य परिणाम थी. RJD खुद को एकमात्र विपक्ष के रूप में स्थापित करना चाहती थी, जबकि कांग्रेस अपना राष्ट्रीय दर्जा बचाने के लिए अधिक सीटें मांग रही थी, भले ही उसके पास जीतने के लिए उम्मीदवार न हों. इस 'फ्रेंडली फाइट' ने न केवल MGB के वोट बांटे, बल्कि उनके कैडर को भी भ्रमित कर दिया और NDA की जीत को प्लेट में सजाकर दे दिया.
कांग्रेस: गठबंधन का 'वजन'
कांग्रेस पार्टी MGB के लिए एक 'संपत्ति' (asset) के बजाय 'देनदारी' (liability) साबित हुई. 2020 में 19 सीटें जीतने वाली कांग्रेस, इस बार के रुझानों में 4-6 सीटों पर सिमटती दिखी. पार्टी में राज्य-स्तरीय नेतृत्व का पूर्ण अभाव, राहुल गांधी का 'पॉलिटिकल टूरिस्ट' जैसा अभियान, और RJD के कैडर पर अति-निर्भरता उसकी विफलता का प्रमुख कारण बनी.
इसके अलावा, वाम दलों (CPI-ML, आदि) का पतन भी MGB के लिए एक बड़ा झटका था. 2020 में 16 सीटें जीतने वाले वाम दल, इस बार 26 सीटों पर हारते दिखे.
वजह 5: RJD की रणनीतिक विफलता और 'जंगल राज' का भूत
NDA की जीत का अंतिम और पांचवां कारण RJD की अपनी रणनीतिक कमजोरियां थीं. पार्टी अपनी पुरानी छवि और पुराने वोट बैंक से बाहर नहीं निकल पाई.
M-Y से आगे न बढ़ पाना
RJD ने 'MY+BAAP' का नारा तो दिया, लेकिन उनका टिकट वितरण और पूरा अभियान 'मुस्लिम-यादव' (M-Y) समीकरण पर ही केंद्रित रहा. वे EBC (36%) या महिलाओं (जिनके 45% ने NDA को वोट दिया) के बड़े हिस्से को यह विश्वास नहीं दिला पाए कि वे बदल गए हैं.
'जंगल राज' का भूत
NDA, विशेष रूप से PM मोदी और नीतीश कुमार, ने 'जंगल राज' की यादों को सफलतापूर्वक फिर से जगा दिया. RJD के नेताओं ने भी इसमें उनकी मदद की. तेजस्वी यादव के 'शहाबुद्दीन अमर रहें' जैसे विवादास्पद बयानों ने इस नैरेटिव को और मजबूत किया. पीएम मोदी की यह टिप्पणी कि RJD बच्चों को 'डॉक्टर' के बजाय 'रंगदारी' (extortionist) बनना सिखा रही है, सीधे तौर पर इसी डर को भुनाने के लिए थी.
यह तेजस्वी यादव के लिए एक व्यक्तिगत झटका भी था. न केवल उनकी पार्टी हारी, बल्कि वे खुद अपनी पारंपरिक सीट राघोपुर से BJP के सतीश कुमार से पीछे चल रहे थे. उनके भाई तेज प्रताप यादव भी महुआ में चौथे स्थान पर आ गए.
'वोट-कटवा' पार्टियों का 'फ्लॉप शो'
इस चुनाव ने 'तीसरे मोर्चे' की राजनीति को भी पूरी तरह से खारिज कर दिया.
- प्रशांत किशोर (PK): 'जन सुराज' (JSP) पार्टी इस चुनाव की सबसे बड़ी 'फ्लॉप' रही. अरबों रुपये खर्च करने और 3 साल की पदयात्रा के बावजूद, JSP एक भी सीट पर बढ़त नहीं बना पाई. PK का 'नई राजनीति' का वादा बिहार के जाति-आधारित यथार्थ से टकराकर चूर-चूर हो गया. JSP के अध्यक्ष ने खुद माना कि "लोग हमें समझ नहीं पाए".
- असदुद्दीन ओवैसी (AIMIM): 2020 में 5 सीटें जीतकर 'किंगमेकर' बनने वाली AIMIM, इस बार केवल 1-3 सीटों पर सिमटती दिखी.
प्रशांत किशोर और ओवैसी की यह विफलता यह साबित करती है कि बिहार का मतदाता 'फ्रैक्चर' (टूटे हुए) जनादेश के बजाय 'स्थिरता' के लिए वोट कर रहा था. 2020 का चुनाव एक 'फ्रैक्चर्ड' चुनाव था. 2025 में, मतदाता (विशेष रूप से महिलाएं) स्पष्ट रूप से स्थिरता और 'आजमाए हुए' नेतृत्व की तलाश कर रहे थे. उन्होंने 'व्यवस्था परिवर्तन' के अमूर्त विचार (JSP) को पूरी तरह से खारिज कर दिया और एक स्पष्ट, द्विध्रुवीय जनादेश दिया.
बिहार का नया राजनीतिक अध्याय
अंत में, बिहार 2025 का जनादेश स्पष्ट, निर्णायक और बहु-आयामी है. यह एक साथ कई बातें कहता है:
- यह 'नारी शक्ति' का जनादेश था, जिसने 'दसहजारी' (₹10,000) और 'जीविका' के लिए नीतीश कुमार को खुलकर पुरस्कृत किया.
- यह 'डबल इंजन' के 'सुशासन + गारंटी' मॉडल के लिए एक सकारात्मक वोट था, जिसने 'जंगल राज' के डर को मात दी.
- यह एक 'परफेक्ट' सोशल इंजीनियरिंग (EBC+सवर्ण+दलित) 38 की जीत थी, जिसने RJD के 'M-Y' किले को ध्वस्त कर दिया.
- और यह एक 'अराजक' और 'भ्रमित' विपक्ष की स्पष्ट अस्वीकृति थी.
भाजपा का बिहार की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना और नीतीश कुमार के 10वीं बार मुख्यमंत्री बनने की संभावना, बिहार की राजनीति में एक नए शक्ति-संतुलन का संकेत देता है. यह दिखाता है कि 'विकास' और 'लाभार्थी' की राजनीति ने जाति के पारंपरिक बंधनों को (पूरी तरह से तोड़ा नहीं है, लेकिन) कमजोर जरूर कर दिया है.












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