भारत के संविधान की प्रस्तावना में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने के खिलाफ जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में 2020 से लंबित थीं. इस साल संविधान दिवस के ठीक एक दिन पहले अदालत ने याचिकाओं को खारिज कर दिया.इन जनहित याचिकाओं खारिज करते हुए मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि इन शब्दों को "व्यापक स्वीकृति" मिल चुकी है और "हम, भारत के लोग बिना किसी संदेह के" इनका मतलब समझते हैं.
पीठ ने यह भी कहा कि यह सच है कि इन शब्दों को संविधान सभा ने नहीं चुना था, लेकिन संविधान एक क्रियाशील दस्तावेज है और उसमें बदलाव लाने की शक्ति संसद के पास है.
क्या था मामला
"समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द संविधान की मूल प्रस्तावना में नहीं थे और उन्हें 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में लागू किए गए आपातकाल के दौरान संशोधन कर प्रस्तावना में जोड़ा गया था. इस संशोधन को 42वां संशोधन कहा जाता है.
बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी, वकील और बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह नाम के एक व्यक्ति ने इस संशोधन के खिलाफ याचिकाएं दायर की थीं. सीपीआई नेता बिनॉय विश्वम ने इन याचिकाओं का विरोध किया था.
सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं पर नोटिस भी जारी नहीं किया और विस्तृत टिप्पणी के साथ याचिकाओं को खारिज कर दिया. पीठ ने यह बताया कि भारत के संदर्भ में दोनों शब्दों के क्या मायने हैं और सरकार कैसे इनके आधार पर नीतियां बना सकती है.
पीठ ने कहा कि भले ही यह संशोधन आपातकाल के दौरान लाया गया हो, आपातकाल के बाद 1978 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने भी इसे 44वें संशोधन के जरिए सही ठहराया था.
अदालत ने समझाया शब्दों का मतलब
इसके अलावा कई पिछले फैसलों में भी सुप्रीम कोर्ट इन शब्दों के जोड़े जाने को सही ठहरा चुका है. पीठ ने यह भी कहा कि इन शब्दों के संविधान का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाने के 44 सालों बाद इन याचिकाओं का दायर किया जाना भी याचिकाओं पर सवाल उठाता है.
"पंथनिरपेक्ष" के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मूल रूप से यह शब्द बराबरी के अधिकार का ही एक पहलू है जो संविधान का महत्वपूर्ण हिस्सा है. अदालत के मुताबिक यह शब्द सरकार को धर्म से जुड़े उन व्यवहारों और प्रथाओं को हटाने से नहीं रोकता जो जनहित के खिलाफ जाकर विकास और बराबरी के अधिकार में बाधा डालते हैं.
कैसे तय होती है अल्पसंख्यक की परिभाषा
"समाजवाद" को लेकर पीठ ने कहा कि यह शब्द सरकार की आर्थिक नीति को दक्षिणपंथी, वामपंथी जैसी परिभाषाओं में सीमित नहीं करता है बल्कि "वेलफेयर स्टेट" या कल्याणकारी सरकार होने की प्रतिबद्धता दर्शाता है.
इसे और स्पष्ट करते हुए अदालत ने कहा कि यह शब्द आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लक्ष्य को दिखाता है और निजी उद्यमिता और व्यापार करने के अधिकार को सीमित नहीं करता है.