अपनी 'खूनी क्रांति' से अंग्रेजी हुकूमत के होश उड़ा देनेवाले भगतसिंह ने 23 मार्च को लाहौर में फांसी पर चढ़ने से एक दिन पूर्व अपनी डायरी में कुछ पंक्तियां लिखी थीं. अपने क्रांतिकारी बनने के संदर्भ में उन्होंने लिखा था, 'जीने की इच्छा मुझे भी होनी चाहिए, मैं चाहकर भी इसे छिपा नहीं सकता, लेकिन मैं इसी शर्त पर जिंदा रहना चाहूंगा कि मैं किसी की कैद अथवा गुलामी में सांस नहीं ले सकता. आज मैं हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका हूं.’
गांधीजी के प्रशंसक होकर भी वह उनके साथ जुड़ने के बजाय क्रांति की राह क्यों चुनी? यह सवाल किसी के भी मन में आ सकता है. आइये जानें कि मात्र 12 वर्ष की किशोर वयः में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध बंदूक क्यों उठाई.
क्यों पसंद आया चाचा का साथ
भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह और उऩके चाचा स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजी हुकूमत के अंग्रेजों के खिलाफ थे. स्वर्ण सिंह तो कट्टर क्रांतिकारी थे. वे ‘मरो या मारो’ वाली नीति को ही पसंद करते थे. कहते हैं कि जिस दिन भगत सिंह का जन्म (19 अक्टूबर 1907) हुआ था, उसी दिन वे जेल से छूटे थे. 1919 में अमृतसर के जलियांवाला कांड में अंग्रेजों ने बहुसंख्य निर्दोष भारतीयों को गोलियों से भून दिया था. उस समय भगत सिंह मात्र 12 वर्ष के थे. जालियांवाला कांड से वे इतने व्यथित हुए कि जालियांवाला जाकर वहां की मिट्टी को माथे से लगाते हुए कसम खाई कि वह अंग्रेजी सरकार को नेस्तनाबूत करके रहेंगे. उन्होंने स्कूल छोड़ चाचा का हाथ पकड़ लिया. यद्यपि वे गांधी जी से बहुत प्रभावित थे, मगर उन्हें लगता था कि क्रूर अंग्रेजों को अहिंसा से नहीं हराया जा सकता.
नौजवान भारत सभा’ का गठन
किशोर भगत सिंह ने चाचा के साथ अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले जुलूसों में भाग लेना शुरू किया. उनके जोश, जुनून और जिद को देखते हुए हर क्रांतिकारी दलों उन्हें लेना चाहता था. अंततः उन्होंने ‘नौजवान भारत सभा’ नामक टीम तैयार किया. उनके साथ चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त जैसे तमाम युवा क्रांतिकारियों थे. 9 अगस्त 1925 में लखनऊ में काकोरी ट्रेन काण्ड में जब चार क्रांतिकारियों को ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी की सजा सुनाई तो एक बार फिर भगत सिंह का खून खौल उठा. अपनी पार्टी को विस्तार देने के लिए उन्होंने 1928 में ‘नौजवान भारत सभा’ का ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ में विलय कर एक नये नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ पार्टी बनाई.
लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला
1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार का क्रांतिकारियों ने अपने तरीके से विरोध किया. इस प्रदर्शन को पुलिस ने बलपूर्वक दबाने की कोशिश की. पुलिस के बर्बर तरीके से की गयी लाठी-चार्ज से लाला जी की मृत्यु हो गई. भगत सिंह एवं उनके साथियों ने खून का बदला खून से लेने का फैसला किया. 17 दिसंबर 1928 को लाहौर कोतवाली के सामने से गुजर रहे सुपरिटेंडेंट सॉन्डर्स पर भगत सिंह और उनके साथी राजगुरू ने ताबड़तोड़ कई गोलियां दाग दी. इस तरह भगत सिंह ने लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया.
2 असंवैधानिक बिल के विरोध में असेंबली पर बम फेंका
उन्हीं दिनों अंग्रेजी हुकूमत द्वारा जनता विरोधी दो बिल ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ एवं ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ पास हुए. भगत सिंह इसका विरोध करना चाहते थे, लेकिन साथ ही वे खून-खराबा नहीं चाहते थे. उन्होंने दिल्ली की केंद्रीय एसेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई. इस कार्य की जिम्मेदारी उन्होंने खुद ली. उन्हें साथ मिला बटुकेश्वर दत्त का.
8 अप्रैल 1929 को दोनों ने सुरक्षा में सेंध लगाकर अंदर पहुंचे. उन्होंने इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ बम फेंकते हुए साथ लाए बिल विरोधी पर्चे फेंके. दोनों ही क्रांतिकारी चाहते तो वे सुरक्षित बाहर निकल सकते थे, मगर वे भागे नहीं. दोनों को पुलिस ने अरेस्ट कर जेल भेज दिया गया.
64 दिन का उपवास
भगत सिंह करीब दो साल जेल में थे. इस दरम्यान वे डायरी लिखते थे. इसके साथ ही उऩ्होंने अपने साथियों के साथ 64 दिन भूख हड़ताल भी रखा. उनका उपवास तुड़वाने की काफी कोशिशें जेल प्रशासन ने की मगर वे टस से मस नहीं हुए. इस उपवास में यतींद्रनाथ की मृत्यु हो गयी. भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ उनके कुछ शुभचिंतकों ने उनकी उम्र का हवाला देते हुए उन्हें रिहा करने की अपील की, लेकिन अंग्रेज किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहते थे.
रक्तपात नहीं पसंद था
भगत सिंह का जन्म 1907 में तथा शहीद 1930 में हुए थे. वह मात्र 23 साल की जिंदगी जी सके थे. लोग उन्हें क्रांतिकारी मानते थे, लेकिन भगत सिंह को रक्तपात कभी पसंद नहीं था. वे मूलतः वामपंथी विचारधारा वाले थे. वह कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों को मानने वाले समाजवाद के समर्थक थे. कहा जाता है कि उन्होंने हर बार अंग्रेजी हुकूमत के उकसावे अथवा उनकी नृशंसता पूर्ण कार्रवाई के कारण बंदूक उठाना पड़ा. उन्हें पूंजीपतियों की नीति कभी पसंद नहीं रही, और उन दिनों चूंकि अधिकांश अंग्रेज ही बड़े पूंजीपति थे लिहाजा अंग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचारों से उनका विरोध स्वाभाविक ही था.
26 अगस्त, 1930 को भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6 एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के तहत अपराधी सिद्ध करते हुए भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई. 23 मार्च 1931 की शाम 07.33 बजे तीनों को फांसी दे दी गई.