Non-Cooperation Movement 2023: असहयोग आंदोलन के 143 बरस! ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाने वाले ‘असहयोग आंदोलन’ का ऐसे हुआ नाटकीय अंत!

ब्रिटिश हुकूमत से भारत को मुक्ति दिलाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में महात्मा गांधी ने तमाम देश व्यापी आंदोलन छेड़े थे, इसमें सबसे ज्यादा असरकारी ‘असहयोग आंदोलन’ था. ब्रिटिश हुकूमत से भारत को स्वराज दिलाने के लिए गांधीजी ने 01 अगस्त 1920 को ‘असहयोग आंदोलन’ की रणभेरी बजाई थी.

असहयोग आंदोलन

ब्रिटिश हुकूमत से भारत को मुक्ति दिलाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में महात्मा गांधी ने तमाम देश व्यापी आंदोलन छेड़े थे, इसमें सबसे ज्यादा असरकारी असहयोग आंदोलन’ था. ब्रिटिश हुकूमत से भारत को स्वराज दिलाने के लिए गांधीजी ने 01 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन’ की रणभेरी बजाई थी. यह सविनय अवज्ञा आंदोलन गांधी जी के शुरूआती आंदोलनों में एक था. साल 1920 से 1922 तक चले इस आंदोलन ने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दी थी. क्योंकि गांधीजी को जनता का व्यापक समर्थन मिल रहा था. अंग्रेज सरकार लगातार हाशिये पर आती जा रही थी, कि एक दिन अचानक गांधीजी ने इसे तुरंत खत्म करने का फरमान जारी कर देश की जनता को हैरान कर दिया. आंदोलन के थमने की वजह बताई गई चौरी-चौरा कांड की हिंसा. आइये जानते हैं, इस आंदोलन के संदर्भ में विस्तार से.. यह भी पढ़ें: ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा लगाने वाले योद्धा बाल गंगाधर तिलक कौन थे, यहां पढ़े उनके जीवन से जुड़े रोचक पहलू!

ब्रिटिश अधिकारियों की कदम-दर-कदम तानाशाही

   प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत में तमाम आर्थिक समस्याएं उत्पन्न होने लगी थी. विशेषकर महंगाई से भारत की जनता अत्यंत परेशान थी. उधर ब्रिटिश सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा रही थी. भारतीय जनता ब्रिटिश सरकार की वादा खिलाफी से भड़क उठी थी, क्योंकि अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों का सहयोग पाने के लिए वादा किया था कि युद्ध समाप्त होने के बाद जनता को हर तरह का सहयोग दिया जायेगा. सहयोग देने के बजाय भारतीय जनता पर ब्रिटिश हुकूमत ने 18 मार्च 1919 को रोलेट एक्ट जैसा काला कानून लागू कर दिया. इसके बाद पुलिस को बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार मिल गया. 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर जालियांवाला बाग में इस काले कानून का शांति पूर्वक विरोध कर रहे निहत्थे भारतीयों को चारों तरफ से घेरकर गोलियों से भून दिया गया. इससे हर भारतीय के मन में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ घृणा, क्रोध और तिरस्कार पैदा हो गया. अंततः 01 अगस्त 1920 को गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की रणभेरी बजा दी.

असहयोग आंदोलन का उद्देश्य

  जैसा कि आंदोलन के नाम से स्पष्ट था कि ब्रिटिश हुकूमत द्वारा संचालित हर कार्यों में असहयोग देना. गांधीजी ने इसे पूर्णतः अहिंसक आंदोलन घोषित किया था. इस आंदोलन के तहत भारतीयों को सरकारी नौकरियों एवं विशिष्ठ पदों से इस्तीफा देने की अपील की गई. सरकारी नियंत्रण वाले संस्थानों से लोगों को परहेज रखने के लिए कहा गया, विदेशी सामान ना खरीदने और देशी सामान के प्रयोग की अपील की गई, विधान परिषदों के चुनावों का बहिष्कार करने और ब्रिटिश सेना में ना जाने का आग्रह किया गया. ब्रिटिश हुकूमत असहयोग आंदोलन से घबरा गई, क्योंकि इससे सरकार की आर्थिक स्थिति दिन-प्रति-दिन डांवाडोल होने लगी. असहयोग आंदोलन की सफलता से गांधी जी गद्गद् थे, उन्होंने लोगों को आश्वासन दिया कि अगर इस अभियान को यूं ही अंजाम तक पहुंचाया गया तो एक साल में देश आजाद हो जायेगा.

असहयोग आंदोलन वापस लेकर गांधीजी ने लोगों को हैरत में डाला

  जनता के असहयोग से ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिल गई थीं, और लगभग समर्पण के मोड़ पर आ गई थी, इसी बीच 04 फरवरी 1922 में चौरी चौरा कांड हो गया. वस्तुतः 2 फरवरी को चौरी चौरा (गोरखपुर) में हुए आंदोलन के दौरान पुलिस अधिकारियों ने दो आंदोलनकारियों को पीटा और उन्हें लॉकअप में बंद कर दिया. इससे आंदोलनकारी भड़क गये, उन्होंने गुस्से में पुलिस थाने को घेरकर आग लगा दिया, जिसमें 22 पुलिस अधिकारी मारे गये. 12 फरवरी 1922 को गांधीजी ने बारदोली में एक मीटिंग कर असहयोग आंदोलन वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा कि जनता अहिंसा के माध्यम से सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार नहीं है. गांधीजी के इस फैसले से जनता ही नहीं मोतीलाल नेहरू, सी.आर. दास जैसे नामचीन नेताओं ने भी हिंसा की छिटपुट घटनाओं के कारण आंदोलन वापस लेने का प्रखर विरोध किया, क्योंकि चौरी चौरा कांड में पुलिस अधिकारियों ने ही आंदोलनकारियों पर हमला कर उन्हें हिंसा के लिए उकसाया था. गांधीजी के इस फैसले के बाद युवा क्रांतिकारियों ने गांधी का विरोध करते हुए दो टूक कहा कि आजादी अहिंसा से कभी नहीं मिल सकती.   

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