जन्मदिन विशेष: दादा साहेब फाल्के, जिसने भारतीय सिनेमा का इतिहास रचने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया. जानें कैसे
दादासाहेब फाल्के (Photo Credits: Facebook)

भारतीय सिनेमा इस वर्ष अपनी 106वीं जयंती मना रहा है. इसकी नींव का पहला पत्थर दादा साहब फाल्के (Dadasaheb Phalke) ने आज से 106 साल पूर्व रखा था. फिल्म का नाम था ‘राजा हरिश्चंद’ (Raja Harishchandra), जो मूक फिल्म थी. इसके पश्चात भारतीय सिनेमा ने लगातार तरक्की की सीढ़ियां तय करते हुए विश्व सिनेमा में अपनी अलग पहचान बनाई. लेकिन कम लोगों को पता होगा कि नींव के इस पत्थर को रखने के लिए दादा साहब फाल्के को संघर्षों का सामना करना पड़ा था. आज देश उन्हीं दादा साहब फाल्के की 149 वीं वर्षगांठ मना रहा है. विश्व सिनेमा को चुनौती दे रही भारतीय सिनेमा के इस कर्णधार ने कब, कैसे और किन परिस्थितियों में पहली फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाया आइये जानते हैं.

शुरुआत एक भागीरथ प्रयास की

25 दिसंबर 1910 में अमरीका-इंडिया पिकचर्स पैलेस में रिलीज फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखते हुए घुंडीराज गोविंद फाल्के के मन में ख्याल आया कि जीसस क्राइस्ट पर बनी फिल्म देखकर आम लोग इतने खुश हो रहे है, तो अगर हिंदू धर्म पर कोई फिल्म बनाया जाये तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा. मन में यह विचार आने के बाद उन्होंने फिल्म की बारीकियों को समझने के लिए बंबई में रिलीज हर फिल्में देखनी शुरु की. महज तीन घंटे सोने के अलाव शेष समय वह फिल्में ही देखते-समझते रहे. उनकी इस दीवानगी पर चिकित्सकों ने चिंता भी जताई कि इस तरह वे शीघ्र ही अपनी आंखों की रोशनी खो सकते हैं. लेकिन फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी पर कोई ब्रेक नहीं लगा सका. इसके पश्चात उन्होंने देश की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का निर्माण शुरू किया. इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर की नौकरी छोड़ी. इसके पश्चात फिल्म के निर्माण के लिए फंड जुटाने की कोशिशें शुरु हुई.

पत्नी का आभूषण बेचना पड़ा

दादा साहेब फाल्के ने 20 से 25 हजार रुपये के बजट में देश की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ शुरु की. हालांकि उन दिनों विदेशों में जो फिल्में बन रही थीं, उनकी तुलना में यह बहुत कम धनराशि थी, लेकिन इतनी ही राशि की व्यवस्था के लिए दादा साहेब को एड़ी चोटी की जोर लगानी पड़ी. उन्होंने अपने एक मित्र से कर्ज लिया, अपनी संपत्ति साहूकार के पास गिरवी रखना पड़ा. यहां तक कि उन्हें अपनी पत्नी के आभूषण भी बेचने पड़े.

महिला किरदार के लिए वेश्याओं ने भी किया इनकार

उन दिनों फिल्मों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था. लिहाजा कोई भी महिला फिल्मों में काम नहीं करना चाहती थी. पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे. दादा साहब फाल्के ने महिला को ही हीरोइन बनाने के प्रयास में रेड लाइट एरिया की भी खाक छानी, अंततः उन्होंने पुरुष को ही औरत बनाकर नायिका के किरदार में प्रस्तुत किया. हालांकि भारतीय फिल्मों में किसी पहली महिला को लाने का श्रेय भी दादा साहब फाल्के को ही जाता है. ये महिला थीं दुर्गा गोखले और कमला गोखले, जिन्होंने दादा साहेब फाल्के की फिल्म मोहिनी भष्मासुर में काम किया था. 'राजा हरिशचंद्र' 1913 में रिलीज हुई.

पहली बोलती फिल्म बनी आखिरी फिल्म

स्व. दादा साहब फाल्के ने अपने करियर में 19 वर्षों में कुल 95 फिल्में और 26 डाक्युमेंट्री फिल्में बनाईं. उनकी आखिरी फिल्म थी 1937 में प्रदर्शित ‘गंगावतरण’. त्रासदी यह कि यह उनकी पहली बोलती फिल्म थी, जो उनके जीवन की आखिरी फिल्म साबित हुई.