मनोज कुमार की जुबानी आजादी की पहली सुबह की कहानी
भारत का राष्ट्रध्वज 'तिरंगा' (Photo Credits: Facebook)

पिता से मिले संस्कार और देशभक्ति नन्हें मनोज कुमार के मन पर कुछ इतनी गहरी पड़ी कि वह बन गये भारत के भारत कुमार. यह किसी कल्पना की उपज नहीं, बल्कि संघर्ष भरी जिंदगी की दर्दनाक कहानी से उभर कर बाहर आयी और सेल्युलाइड पर दर्ज हो गयी. बटवारे के दर्दनाक मंजर से गुजरे मनोज कुमार यहां आजादी की पहली सुबह की कहानी बयान कर रहे हैं... अपनी जुबानी देशभक्ति की ज्वाला मेरे मनोमस्तिक पर कब प्रज्जवलित हुई, मुझे नहीं पता. हम लाहौर में हंसी-खुशी जीवन गुजार रहे थे.

बाबू जी का फलता-फूलता कारोबार था. अचानक एक दिन हंसते-खेलते जीवन में विभाजन का बवंडर आ गया. देखते ही देखते हम लाहौर की आलीशान कोठी से दिल्ली की रिफ्यूजी कॉलोनी में पहुंच गये.

धर्म-ईमान से बाबू जी का विश्वास उठ गया

यहां 3 तरह के कैंप थे, ऑब्जर्व लाइन, आउट लाइन और आउटकम लाइन. हमें आउटकम लाइन में शरण मिला था. किसी भी वस्तु की खरीदारी के लिए दो किमी पैदल चलकर आजादपुर जाना पड़ता था. घायल माँ और भाई तीस हजारी अस्पताल में भर्ती थे. दवा के अभाव में भाई की मृत्यु हो गयी. उधर बाबूजी चाचा जी की तलाश में कैंपों की खाक छान रहे थे. तभी एक रिश्तेदार ने बताया कि लाहौर के समीप दंगाइयों ने चाचाजी की हत्या कर दी थी. इस खबर से बाबू जी का धर्म और ईमान से दिल टूट चुका था. भाई और बेटे को खोने के बाद वे दीवार से सर टकरा-टकरा कर रो रहे थे. उन्हें रोते देख मैं भी रोने लगा था. रोते-रोते हम कब सो गये, पता नहीं.

आजादी की वह पहली सुबह

अगली सुबह बाबूजी ने पांच बजे मुझे जगाया, -चलो लाल किला चलते हैं. मैं समझ नहीं पाया कि बाबूजी मुझे लाल किला क्यों ले जा रहे हैं. बहरहाल तीन घंटे का सफर तय कर हम लाल किला पहुंचे. लाल किला के चारों ओर बहुत भीड़ थी. हर ओर तिरंगे लहरा रहे थे. हमने जवाहरलाल नेहरु को लाल किला पर तिरंगा फहराते देखा. इस समय बाबू जी के चेहरे पर जोश देखते बन रहा था. राष्ट्रगान के बाद नेहरु जी ने जब ‘जय हिंद’ के नारे लगाये तो बाबू जी ने दोगुने जोश के साथ ‘जय हिंद’ बोला. मैं आंखें फाड़कर बाबू जी को देख रहा था, जो इंसान बीती रात बेटे और भाई के गम में सिर पटककर रो रहा था, आज देश भक्ति की रौ में सारा गम भूल गयास था.

बिकते देखा पानी

कड़ी धूप में रिफ्यूजी कैंप से लाल किला तक चलने के बाद मैं काफी थक गया था. तेज प्यास लगी थी. मैंने पास खड़े पानी वाले से तीन-चार गिलास पानी लेकर पीया, तो थोड़ा राहत मिली. इसके बाद पानी वाले ने पानी के पैसे मांगे तो मैं आश्चर्यचकित रह गया. क्या यहां पानी खरीद कर पिया जाता है. लाहौर में जब गांव पड़ोस में कोई त्यौहार या उत्सव होता था, तो हम मुफ्त में बादाम का शरबत लोगों को पिलाते थे. पानी तो मुफ्त ही मिलता था. मैंने बाबू जी की तरफ देखा. उन्होंने  भरे गले से कहा, देश की आजादी के लिए हमने बहुत कुछ खोया है, चलो यह भी सही.

देशभक्ति का नशा

इसके बाद बाबू जी ने लाल किला से ही मिठाई खरीदी और कैंप में ले जाकर सबको बांटी. देशभक्ति का नशा क्या होता है यह मैंने आज बाबू जी से सीखा. आजादी की वह पहली सुबह आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है. अलबत्ता उन दिनों लाल किला की जो लालिमा मैंने देखी थी, वह आज जरूर धुंधली हो गयी है.

मुंबई का सफर

1956 में काम की तलाश में मैं दिल्ली से बंबई आया. सिनेमा में कुछ उल्लेखनीय कार्य करने की चाहत थी. मुझे लिखने-पढ़ने का शौक बचपन से ही था. इतिहास मेरा पसंदीदा विषय था, लेकिन इतिहास प्रेम से पेट तो नहीं भरने वाला था. मैंने घोस्ट रायटिंग शुरू की. प्रतिदिन के 11 रूपये मिलते थे. उसी से गुजारा चलता था. इसके साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लोगों से मिलना जुलना रहता था. काफी भागदौड़ के बाद एक फिल्म ‘फैशन’ में 93 साल के भिखारी का रोल मिला. फिल्म के हीरो-हीरोइन थे प्रदीप कुमार और माला सिन्हा. 20 साल के युवक को 93 साल के वयोवृद्ध का रोल करना हास्यास्पद तो था, मगर खुश था कि शुरुआत तो हुई.

क्रांतिकारियों पर कहानी

धीरे-धीरे काम मिलने लगा था. मगर मैं क्रांतिकारियों के लिए भी कुछ करना चाहता था. आजादी के दीवानों के लिए मेरे मन में शुरु से बहुत सम्मान रहा है. मैं गांधी नीति का पक्षधर कभी नहीं रहा, कि हमें बिना खून बहाये आजादी मिली है. पंडितजी (प्रदीप) जी के गीत कि दे दी तूने आजादी बिना खडग बिना ढाल... पर भी यकीन नहीं करता. दुनिया जानती है कि आजादी के लिए बेहिसाब हत्याएं हुईं. मंगल पांडे, राम प्रसाद बिस्मिल, असफाक उल्ला खान, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे असंख्य क्रांतिकारियों ने आजादी के लिए शहादत दी है.

मगर सरकारी तंत्र ने उनके त्याग को तवज्जो नहीं दी. व्यस्त शेड्यूल से समय निकालकर मैंने क्रांतिकारियों पर एक कहानी लिख डाली. इसे मैंने अपने प्रचारक मित्र केवल पी कश्यप को सुनाई. कहानी उन्हें बहुत पसंद आयी. वे बोले इस पर मैं खुद फिल्म बनाना चाहूंगा. उन दिनों रोमांटिक कहानीवाली फिल्मों का दौर था. मैंने कहा कि मेरी कहानी में महिला पात्र नहीं है. आप किसी और कहानी पर फिल्म बना लो. मगर उन्होंने जिद पकड़कर कहा मैं हीरोइन के बिना फिल्म बनाऊंगा, मगर कहानी यही रहेगी.

शहीद देखकर रो पड़े शास्त्री जी

रात-दिन की मेहनत के बाद मेरी यह कहानी ‘शहीद’ के रूप में सेल्युलाइड पर आई. मैंने लालबहादुर शास्त्री, जिनका मैं शुरु से अनन्य भक्त रहा हूं, से प्रार्थना की कि वे मेरी यह फिल्म देखें और आशीर्वाद दें. वह कुछ मिनटों के लिए फिल्म देखने आये, मगर पूरी फिल्म देखकर ही उठे. फिल्म के कई दृश्यों ने उन्हें रुलाया. अगले दिन उन्होंने पूरी युनिट को लंच पर आमंत्रित किया.

खाना खाता हुए उन्होंने एक पंक्ति, ‘ ना जिस्म मेरा जवान का है, ना जिस्म मेरा किसान का है.‘  सुनाते हुए कहा, मेरी इच्छा है कि आप ‘जय जवान जय किसान’ पर फिल्म बनायें. मैंने कहा, मैं कोशिश करूंगा. मुंबई आने के दौरान मैंने एक ऐसी ही कहानी की रूपरेखा बना ली. इस कहानी पर मैंने ‘उपकार’बनाई. फिल्म सुपर हिट रही. मगर ‘उपकार’ देखने के लिए शास्त्रीजी जीवित नहीं रहे.