जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद होने के बाद क्या करेंगे खाड़ी देश
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

खाड़ी देश अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि, इस बात की बहुत कम संभावना है कि वे निकट भविष्य में जीवाश्म ईंधन का निर्यात बंद कर देंगे.पूरी दुनिया अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की दिशा में आगे बढ़ रही है. ऐसे में यह वैश्विक बदलाव खाड़ी क्षेत्र के लिए आर्थिक तौर पर खतरे की घंटी लग सकता है. वजह यह है कि यहां जीवाश्म ईंधन का भंडार है और इसी भंडार के सहारे इस इलाके की अर्थव्यवस्था की चमक बनी हुई है. हालांकि, अब ये देश भी ऊर्जा के स्रोत में हो रहे बदलाव को स्वीकार कर रहे हैं.

सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर जैसे देश दुनिया के कुछ सबसे बड़े अक्षय ऊर्जा संयंत्रों का निर्माण कर रहे हैं, क्योंकि वे खुद को जीवाश्म ईंधन से दूर कर रहे हैं. 2022 में हुए फीफा विश्व कप से पहले, कतर ने देश की 10 फीसदी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए सोलर पावर प्लांट स्थापित किया.

वहीं, सऊदी अरब एक रेगिस्तानी शहर बना रहा है जो विशेष रूप से अक्षय ऊर्जा से संचालित होगा. इस शहर का नाम नियोम है. यहां सौर ईंधन वाला ग्रीन-हाइड्रोजन प्लांट होगा. इस साल के संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन की मेजबानी कर रहा यूएई कथित तौर पर दुनिया का सबसे बड़ा सिंगल-साइट सौर ऊर्जा संयंत्र का निर्माण कर रहा है.

दोनों देशों के मुताबिक, इस तरह की परियोजनाओं से सऊदी अरब को 2030 तक अक्षय ऊर्जा से अपनी जरूरत की 50 फीसदी बिजली पाने के लक्ष्य को पूरा करने में मदद मिलेगी. वहीं, संयुक्त अरब अमीरात 2050 तक अक्षय ऊर्जा की मदद से अपनी जरूरत की 44 फीसदी बिजली पैदा कर सकेगा.

फिलहाल, सऊदी अरब, यूएई, बहरीन, ओमान, कुवैत और कतर दुनिया के उन शीर्ष 15 देशों में शामिल हैं जो सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं. इस सूची में सबसे ऊपर कतर है. यहां 2021 में प्रति व्यक्ति 35.59 टन सीओ2 का उत्सर्जन हुआ जबकि जर्मनी में प्रति व्यक्ति 8.09 टन सीओ2 का उत्सर्जन हुआ.

इन देशों को स्थिति सुधारने के लिए तेजी से काम करना होगा. कतर यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट के रिसर्च एसोसिएट प्रोफेसर मोहम्मद अल-सैदी ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह क्षेत्र अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है.

तेल का निर्यात बढ़ाना होगा

अर्थव्यवस्थाओं को अक्षय ऊर्जा की तरफ ले जाने का काम पूरी तरह से पर्यावरणीय चिंताओं के मद्देनजर नहीं हो रहा है. अल-सैदी के मुताबिक मुख्य बात यह है कि खाड़ी देशों को निर्यात के लिए ज्यादा से ज्यादा जीवाश्म ईंधन उपलब्ध कराना होगा, ताकि देश को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा हो सके.

वर्ष 2020 में सऊदी अरब दुनिया में तेल का चौथा और जीवाश्म गैस का छठा सबसे बड़ा उपभोक्ता था. इस वजह से वह विदेशों में जीवाश्म ईंधन का ज्यादा निर्यात नहीं कर सका.

बढ़ते तापमान और जीवाश्म ईंधन जलाने से जुड़ी चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती संख्या और गंभीरता के बावजूद, 2040 तक तेल की मांग बढ़ने का अनुमान है. इसके बाद जब तेल की मांग कम हो जाएगी, तो जमीन में बचा हुआ तेल ‘फंसी हुई संपत्ति' बन जाएगा और फिर तेल उत्पादक देश मुनाफा नहीं कमा पाएंगे.

अल-सैदी ने बताया कि अक्षय ऊर्जा पर आधारित अर्थव्यवस्था बनने के लिए घरेलू स्तर पर बदलाव की एक और महत्वपूर्ण वजह अंतरराष्ट्रीय निवेश को आकर्षित करना और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी जगह बनाए रखना है. वह कहते हैं, "यह देश की छवि बेहतर बनाने के लिए जरूरी है और बेहतर छवि का मतलब है पैसा.”

सस्टेनिबिलिटी और तकनीक के बीच संबंधों का अध्ययन करने वाले ब्रिटेन के न्यूकैसल विश्वविद्यालय के विजिटिंग लॉ प्रोफेसर जॉन ट्रुबी ने कहा, "अक्षय ऊर्जा पर आधारित अर्थव्यवस्था बनने से विदेशी निवेशक आकर्षित होंगे.”

जलवायु संकट का खतरा

अगर खाड़ी देश तेल निर्यात करना जारी रखते हैं, तो उनका खजाना भर जाएगा, लेकिन इससे उनके अस्तित्व को भी खतरा हो सकता है. जैसे-जैसे अन्य देश सऊदी अरब और उसके पड़ोसियों से निकाले गए जीवाश्म ईंधन को जलाते रहेंगे, वैश्विक तापमान में वृद्धि जारी रहेगी. इस तापमान वृद्धि के असर से खाड़ी देश बहुत अधिक प्रभावित होंगे.

वर्ष 2050 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस की वैश्विक वृद्धि का मतलब है कि खाड़ी देशों में 4 डिग्री की वृद्धि होगी. इन क्षेत्रों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस को पार कर चुका है और यहां का औसत तापमान दुनिया के बाकी हिस्सों से काफी ऊपर है.

इस बात की भी संभावना है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से खाड़ी के अधिकांश हिस्सों में गर्मियों में औसत तापमान इतना अधिक हो सकता है कि लोगों का रहना मुश्किल हो जाएगा. धरती के गर्म होने से धूल भरी आंधियां भी बढ़ेंगी और समुद्र का जलस्तर बढ़ने से निचले इलाके प्रभावित हो सकते हैं. ट्रुबी ने कहा, "वे विरोधाभास में हैं, क्योंकि वे तेल से मिलने वाले राजस्व पर निर्भर हैं, लेकिन उन्हें अपने देश में जलवायु परिवर्तन का भी बड़ा खतरा है.”

कार्बन कैप्चर और भंडारण पर दांव

जलवायु परिवर्तन के खतरे को सीमित करने और जीवाश्म ईंधन का निर्यात जारी रखने के लिए, खाड़ी देश कार्बन कैप्चर और भंडारण पर दांव लगा रहे हैं.

इस तकनीक का नाम है सीएसएस. इसके तहत कार्बन को कैप्चर करके उसे जमीन में दबा दिया जाता है. इस तकनीक को लंबे समय से तेल उत्पादकों के लिए अच्छे उपाय के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि सैद्धांतिक रूप से इसका मतलब यह हो सकता है कि जीवाश्म ईंधन जलाया जा सकता है, लेकिन इसकी वजह से जलवायु परिवर्तन भी नहीं होगा.

हालांकि, दशकों तक हुए शोध के बावजूद अब तक इस दिशा में कोई बेहतर समाधान नहीं मिला है. जलवायु कार्यकर्ता इसे वास्तविक कार्रवाई से ध्यान भटकाने वाले कदम के तौर पर देखते हैं.

अब तक, वैश्विक उत्सर्जन का 0.1 फीसदी (43 मिलियन टन) से भी कम हिस्सा ऐसी तकनीक की मदद से कैप्चर किया गया है. ब्लूमबर्ग के अनुसार, मौजूदा परियोजनाओं से 2030 तक यह आंकड़ा बढ़कर महज 0.5 फीसदी तक ही पहुंच पाएगा.

बहरहाल, इस तकनीक पर संयुक्त अरब अमीरात में हो रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन में व्यापक तौर पर चर्चा होने की संभावना है. इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने इस परियोजना को उन जरूरी उपायों में से एक माना है जिनकी मदद से ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित किया जा सकता है.

कॉप28 के मनोनीत अध्यक्ष अल-जाबर ने बातचीत के लिए अपना एजेंडा निर्धारित करते हुए कार्बन कैप्चर और भंडारण क्षमता पर अधिक ध्यान देने का आह्वान किया. उन्होंने अपने भाषण में कहा, "व्यावहारिक, न्यायसंगत और अच्छी तरह ऊर्जा बदलाव की प्रक्रिया में, हमें जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने पर कम ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जबकि व्यवहारिक, किफायती शून्य-कार्बन विकल्पों के इस्तेमाल को बढ़ाते की जरूरत है.”

हालांकि, यूरोपीय संघ और अन्य देशों ने इस दृष्टिकोण का विरोध किया. उनका कहना है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम या खत्म करने वाली तकनीकों की जगह हमें जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से बंद करने पर ध्यान देना चाहिए.

अलग-अलग ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने का लक्ष्य

जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद होने से आखिरकार धन का प्रवाह रुक जाएगा. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चेतावनी दी है कि तेल की मांग कम होने पर सिर्फ 15 वर्षों में खाड़ी देश का खजाना खाली हो सकता है. इसलिए, राजस्व के वैकल्पिक स्रोत खोजने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं.

सऊदी अरब ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन पर दांव लगा रहा है. इसके अलावा, संयुक्त अरब अमीरात के साथ मिलकर अक्षय ऊर्जा की मदद से वस्तुओं के उत्पादन वाले उद्योग स्थापित कर रहा है. साथ ही, यह प्लास्टिक और पेट्रोकेमिकल उत्पादन के लिए हाइड्रोकार्बन का इस्तेमाल भी शुरू कर रहा है.

सौर ऊर्जा के निर्यात पर ध्यान

सौर ऊर्जा के निर्यात को एक बड़े आर्थिक अवसर के रूप में देखा गया है. खाड़ी देशों में सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित करके प्रति वर्ग मीटर भूमि से हर साल 1.1 बैरल तेल के बराबर ऊर्जा हासिल की जा सकती है.

अल-सैदी के मुताबिक, अन्य खाड़ी देश दुबई मॉडल की भी नकल करना चाह रहे हैं. दुबई की आय में जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी सिर्फ 5 फीसदी है. आय का बड़ा हिस्सा पर्यटन, अमीर प्रवासियों और निवेशकों से आता है.

जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने के लिए ओमान सबसे महत्वाकांक्षी देशों में से एक है. यहां 2017 की जीडीपी में तेल की हिस्सेदारी 39 फीसदी थी, लेकिन 2040 तक इस हिस्सेदारी को घटाकर 8.4 फीसदी करने की योजना है. इसके लिए, पर्यटन, लॉजिस्टिक और विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है.

खाड़ी देश भविष्य में जीवाश्म ईंधन से मुक्त होने के लिए अपने जीवाश्म ईंधन भंडार का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर धन जुटा रहे हैं. यह विडंबना पर्यावरणविदों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से छिपी नहीं है.

एमनेस्टी इंटरनेशनल की महासचिव एग्नेस कैलामार्ड ने सऊदी अरब जैसे देशों से अपने तेल भंडार को जमीन में छोड़ने का आह्वान किया है. उन्होंने इस साल की शुरुआत में कहा था, "अब समय आ गया है कि सऊदी अरब मानवता के हित में काम करे और जीवाश्म ईंधन उद्योग को चरणबद्ध तरीके से बंद करने का समर्थन करे. यह कदम जलवायु क्षति को रोकने के लिए जरूरी है.”