न्यायालय ने पुलिस मुठभेड़ों की जांच के लिए 2014 में दिशानिर्देश जारी किए थे
Supreme Court (Photo Credit- ANI)

नयी दिल्ली, 13 अप्रैल: उच्चतम न्यायालय ने 2014 के एक फैसले में पुलिस मुठभेड़ों की जांच के मामलों में पालन किए जाने वाले दिशानिर्देश जारी करते हुए कहा था कि ऐसी मुठभेड़ों में मौत, अपराध न्याय प्रणाली और कानून के शासन की विश्वसनीयता को प्रभावित करती है. यह भी पढ़ें: SC on Lalit Modi: सुप्रीम कोर्ट ने आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी को बिना शर्त माफी मांगने को कहा

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला बृहस्पतिवार को झांसी में उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ उस मुठभेड़ के आलोक में महत्व रखता है जिसमें गैंगस्टर से नेता बने अतीक अहमद का बेटा असद और उसका एक साथी मारे गए. दोनों उमेश पाल हत्याकांड में वांछित थे.

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा और न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन की पीठ ने 23 सितंबर, 2014 के अपने फैसले में मुंबई पुलिस और कथित अपराधियों के बीच करीब 99 मुठभेड़ों की वास्तविकता के मुद्दे को उठाने वाली दलीलों पर गौर किया था. 1995 से 1997 के बीच हुई उन मुठभेड़ों में लगभग 135 लोगों की मौत हुई थी.

पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त अधिकार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है तथा यह हर व्यक्ति के लिए उपलब्ध है और यहां तक कि राज्य को इसका उल्लंघन करने का कोई अधिकार नहीं है. न्यायालय ने कहा था, "कानून के शासन द्वारा शासित समाज में, यह जरूरी है कि न्यायेतर हत्याओं की ठीक से और स्वतंत्र रूप से जांच की जाए ताकि न्याय हो सके."

प्रकाश कदम और अन्य बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता और अन्य के मामले में 13 मई, 2011 को एक अन्य फैसले में, न्यायमूर्ति मार्कंडेय काट्जू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने कहा था कि फर्जी मुठभेड़ और कुछ नहीं बल्कि उन लोगों द्वारा की जाने वाली निर्मम हत्याएं हैं जिन पर कानून को बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है.

न्यायालय ने कहा था, "हमारा मानना है कि जिन मामलों में सुनवाई के दौरान पुलिसकर्मियों के खिलाफ फर्जी मुठभेड़ की बात साबित होती है, उन्हें मौत की सजा दी जानी चाहिए... हम पुलिसकर्मियों को चेतावनी देते हैं कि 'मुठभेड़' के नाम पर हत्या को इस आधार पर माफ़ नहीं किया जाएगा कि वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों या नेताओं के आदेशों का पालन कर रहे थे.’’

न्यायालय ने सितंबर 2014 के फैसले में कई दिशा-निर्देश जारी किए थे जिनमें यह भी शामिल था कि जब भी पुलिस को आपराधिक गतिविधियों या गंभीर अपराध से संबंधित गतिविधियों के बारे में कोई खुफिया जानकारी मिलती है जो इसे लिखित रूप में (केस डायरी में) या किसी इलेक्ट्रॉनिक रूप में दर्ज किया जाए.

शीर्ष अदालत ने कहा कि पुलिस फायरिंग के दौरान मौत के सभी मामलों में सीआरपीसी की धारा 176 के तहत अनिवार्य रूप से एक मजिस्ट्रेटी जांच की जानी चाहिए और इसकी रिपोर्ट संहिता की धारा 190 के तहत क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए.

इसने कहा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की भागीदारी तब तक आवश्यक नहीं है जब तक कि स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के बारे में गंभीर संदेह न हो. हालांकि, जैसा भी मामला हो, घटना की जानकारी बिना किसी देरी के राज्य मानवाधिकार आयोग को भेजी जानी चाहिए.

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि मुठभेड़ की घटना के तुरंत बाद संबंधित अधिकारियों को बिना बारी के पदोन्नति या तत्काल वीरता पुरस्कार नहीं दिया जाएगा और हर कीमत पर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस तरह के पुरस्कार तभी दिए जाएं/अनुशंसित किए जाएं जब अधिकारियों की वीरता हो संदेह से परे स्थापित हो.

(यह सिंडिकेटेड न्यूज़ फीड से अनएडिटेड और ऑटो-जेनरेटेड स्टोरी है, ऐसी संभावना है कि लेटेस्टली स्टाफ द्वारा इसमें कोई बदलाव या एडिट नहीं किया गया है)