देश की खबरें | उच्चतम न्यायालय ने यमुना एक्सप्रेसवे के विकास के लिए भूमि अधिग्रहण को बरकरार रखा

नयी दिल्ली, 26 नवंबर उच्चतम न्यायालय ने एक अहम फैसले के तहत उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर जिले में यमुना एक्सप्रेसवे और उसके आसपास के क्षेत्रों के एकीकृत विकास के लिए भूमि अधिग्रहण की वैधता को मंगलवार को बरकरार रखा।

शीर्ष अदालत ने जमीन मालिकों और यमुना एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (वाईईआईडीए) की ओर से दायर अपील और ‘क्रॉस-अपील’ पर सुनवाई के दौरान यह आदेश पारित किया।

ये मामले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो विरोधाभासी फैसलों से उपजे थे। एक फैसले में वाईईआईडीए की ओर से भूमि अधिग्रहण को बरकरार रखा गया था, जबकि दूसरे फैसले में अति आवश्वयक धाराओं को लागू करते हुए किसानों की जमीन अधिग्रहीत करने की राज्य सरकार की कार्रवाई रद्द कर दी गई थी।

न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने जमीन मालिकों की याचिकाएं खारिज कर दीं, जबकि वाईईआईडीए की ओर से दाखिल अर्जियों को स्वीकार कर लिया। इसी के साथ भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 के अति आवश्यक प्रावधानों को लागू करने पर लंबे समय से चले आ रहे विवाद का समाधान हो गया।

न्यायमूर्ति मेहता ने पीठ के लिए 49 पन्नों का फैसला लिखते हुए कहा कि अधिग्रहण को यमुना एक्सप्रेसवे के विकास के लिए अहम माना गया है।

फैसले में इस बात पर जोर दिया गया कि एक्सप्रेसवे का निर्माण और आसपास के क्षेत्रों का विकास सार्वजनिक-हित की एक एकीकृत परियोजना के दो अविभाज्य घटक हैं।

इसमें कानून के अति आवश्यक प्रावधानों को लागू करने के फैसले को बरकरार रखा गया है और कहा गया है कि यह क्षेत्र की विकास नीति के तहत उचित था।

फैसले में कहा गया है कि अवैध निर्माण और अतिक्रमण के बारे में चिंता और तेजी से विकास की आवश्यकता के कारण संबंधित कानून के तहत सामान्य जांच को दरकिनार करना जरूरी है।

पीठ ने कहा कि प्रभावित जमीन मालिकों में से अधिकांश ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से निर्धारित मुआवजे को स्वीकार कर लिया है और ‘नो लिटिगेशन बोनस’ के रूप में दिए जाने वाले 64.7 फीसदी बढ़े हुए मुआवजे का समर्थन किया है।

पीठ ने सभी प्रभावित पक्षों के लिए लाभ में एकरूपता बनाए रखने पर जोर देते हुए मुआवजा राशि में और वृद्धि करने से इनकार कर दिया।

पीठ ने मामले में तीन प्रमुख प्रश्नों को संबोधित किया।

पहला प्रश्न-क्या वर्तमान अधिग्रहण प्रतिवादी नंबर-3 (वाईईआईडीए) द्वारा ‘यमुना एक्सप्रेसवे’ की एकीकृत विकास योजना का हिस्सा है?

पीठ ने सहमति जताते हुए कहा, “वर्तमान अधिग्रहण यमुना एक्सप्रेसवे के लिए शुरू की गई वाईईआईडीए की एकीकृत विकास योजना का हिस्सा है। अधिग्रहण का उद्देश्य भूमि विकास को यमुना एक्सप्रेसवे के निर्माण के साथ एकीकृत करना है, जिससे सार्वजनिक हित में समग्र विकास को बढ़ावा मिलेगा। एक्सप्रेसवे और आसपास की भूमि के विकास को समग्र परियोजना का अविभाज्य घटक माना जाता है।”

दूसरा प्रश्न-क्या मौजूदा मामले में अधिनियम की धारा 17(1) और 17(4) को लागू करना वैध और आवश्यक था, जिससे भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जांच से छूट देने के सरकार के फैसले को उचित ठहराया गया।

पीठ ने कहा, “हां, इस मामले में भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 की धारा 17(1) और 17(4) लागू करना वैध और उचित था। अति आवश्यक धाराओं को यमुना एक्सप्रेसवे के विकास की योजना के अनुसार लागू किया गया था, जैसा कि नंद किशोर मामले में कहा गया था।”

तीसरा प्रश्न-क्या कमल शर्मा मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण कानून की सही व्याख्या पेश करता था या क्या श्योराज सिंह मामले में लागू किया गया कानून उचित था।

शीर्ष अदालत ने कहा कि कमल शर्मा मामले में निर्णय पहले के उदाहरणों पर आधारित था, जिसने कानून की सही व्याख्या पेश की और अधिग्रहण को बरकरार रखा।

पीठ ने श्योराज सिंह मामले में उच्च न्यायालय के विरोधाभासी फैसले को ‘पर-इंक्यूरियम’ (सुनवाई अदालत के फैसले में प्रासंगिक वैधानिक प्रावधान या मिसालों पर ध्यान देने में विफलता) बताते हुए अमान्य करार दिया। उच्च न्यायालय ने भूस्वामियों के पक्ष में फैसला सुनाया था।

ये मामले यमुना एक्सप्रेसवे क्षेत्र के नियोजित विकास के लिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 17(1) और 17(4) के अति आवश्यक प्रावधानों के तहत 2009 में शुरू किए गए भूमि अधिग्रहण से जुड़े थे।

जमीन मालिकों ने अति आवश्यक प्रावधानों के दुरुपयोग का हवाला देते हुए अधिग्रहण का विरोध किया था। उन्होंने दावा किया था कि आबादी भूमि (आवासीय भूमि) के रूप में वर्गीकृत उनकी जमीन उचित जांच के बिना अधिग्रहण के लिए अनुपयुक्त थी।

उच्च न्यायालय ने संबंधित मामलों में अलग-अलग फैसले जारी किए थे।

कमल शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में अदालत ने अधिग्रहण को बरकरार रखा था और बढ़ा हुआ मुआवजा दिया था, जबकि श्योराज सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में एक अन्य पीठ ने अति आवश्यक प्रावधानों को मनमाने ढंग से लागू करने का हवाला देते हुए अधिग्रहण को रद्द कर दिया था।

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