Moon Crater: चांद पर गिरे रूस के लूना-25 ने बनाया 33 फीट का गड्ढा, NASA ने खोज निकाली क्रैश लैंडिंग वाली जगह
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

Russia's Luna-25 Creates 10M Crater On Moon: 19 अगस्त को चांद की सतह पर उतरने की कोशिश करते हुए लूना-25 काबू से बाहर चला गया था और क्रैश हो गया. रूस के इस नाकाम लूना-25 मिशन ने चंद्रमा पर 10 मीटर चौड़ा एक गड्ढा बना दिया है. यह जानकारी नासा ने दी है.पिछले महीने, भारत के चंद्रयान-3 अभियान के चंद्रमा पर सुरक्षित लैंड होने से पहले लूना-25 चांद पर क्रैश हो गया था. भारत की ही तरह रूस का लूना-25 भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग की कोशिश कर रहा था.

अमेरिका के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन के एलआरओ अंतरिक्षयान ने चंद्रमा की सतह पर बने एक नए गड्ढे की तस्वीर ली. अनुमान है कि यह गड्ढा लूना-25 के क्रैश होने से बना है. इस बारे में नासा ने बताया है, "नया क्रेटर अपने व्यास में करीब 10 मीटर आकार का है. चूंकि यह नया क्रेटर लूना-25 के अनुमानित इंपैक्ट पॉइंट के नजदीक है, तो एलआरओ टीम इस नतीजे पर पहुंची कि यह गड्ढा शायद इसी अभियान के कारण बना, ना कि कुदरती तौर पर."

19 अगस्त को चांद की सतह पर उतरने की कोशिश करते हुए लूना-25 काबू से बाहर चला गया था और क्रैश हो गया. इसके बाद रूस ने बताया कि लूना-25 की नाकामयाबी की जांच के लिए एक विभागीय समिति बनाई गई है.

सोवियत संघ के नाम कई उपलब्धियां

ऐसा नहीं कि रूस का लूना-25, चंद्रमा का पहला नाकाम अभियान हो. कई लूनर मिशन असफल रहे हैं. पिछले साल इसरो और जापान का लूनर मिशन भी असफल रहा था. लेकिन शीत युद्ध के दौर में जब सोवियत संघ और अमेरिका के बीच अंतरिक्ष अभियानों में आगे निकलने की होड़ थी, तो सोवियत संघ ने कई उपलब्धियां अपने नाम की थीं.

मसलन, सोवियत ने ही पहले बार धरती की कक्षा में पहला सैटेलाइट स्पूतनिक-1 लॉन्च किया था. पहली बार चांद पर पहुंचने वाला गैर-मानव मिशन भी सोवियत संघ का लूना-2 (साल 1959) था. इसके अलावा सोवियत के ही अंतरिक्षयात्री यूरी गागरिन 1961 में अंतरिक्ष का सफर करने वाले पहले मानव बने थे. ऐसे में अब लूना-25 की असफलता के संदर्भ में कई जानकारों का कहना है कि यह रूस की अंतरिक्ष क्षमता में गिरावट को रेखांकित करता है.

साथ ही, मौजूदा दौर में रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध, आर्थिक चुनौतियां और बड़े स्तर पर पैठे भ्रष्टाचार को भी कारण मानते हैं. विघटन से पहले सोवियत संघ ने 1976 में आखिरी बार चंद्रमा पर अभियान भेजा था. इसके बाद एक अब जाकर रूस ने चंद्रमा का रुख किया, जिसमें उसे असफलता मिली.

रूस की सरकारी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकॉस्मोस के प्रमुख यूरी बोरिसोव मानते हैं कि इस नाकामयाबी की वजह विशेषज्ञता की कमी है, जो कि एक लंबे समय तक लूनर रिसर्च में सक्रिय ना रहने के कारण आई है. बोरिसोव ने न्यूज एजेंसी एपी से कहा, "हमारे पूर्ववर्तियों ने 1960 और 70 के दशक में जो बेशकीमती अनुभव हासिल किया, वो खत्म हो गया. पीढ़ियों के बीच का सूत्र कट गया."

भारत से रेस जीतने की कोशिश में हुई गड़बड़ी?

शीत युद्ध में चंद्रमा को लेकर मची होड़ में सबसे यादगार उपलब्धि अमेरिका के नाम है, जब जुलाई 1969 में नासा ने इंसानों को चंद्रमा की सतह पर उतारा. लेकिन सोवियत ने भी रोबोटिक अभियानों में सफलता पाई थी. वह चंद्रमा की मिट्टी के नमूने भी धरती पर लाया था.

90 साल के रूसी वैज्ञानिक मिखाएल मारोव ने कामयाबी का वह दौर देखा है. सोवियत के चंद्रमा अभियानों में उन्होंने भी अहम भूमिका निभाई है. उन्होंने लूना-25 अभियान पर भी काम किया और इसकी नाकामी के बाद उनकी तबीयत इतनी बिगड़ गई कि अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. रूसी मीडिया में मिखाएल का बयान यूं छपा, "यह बहुत मुश्किल था. यह मेरे जीवनभर का काम है. मेरे लिए, ये चंद्रमा अभियानों को बहाल होते देखने का आखिरी मौका था."

लूना-25 की नाकामी में एक पहलू जल्दबाजी भी है. जैसा कि रूस के एक लोकप्रिय अंतरिक्ष ब्लॉगर विताले इगोरोव ने रेखांकित किया कि भारत के चंद्रयान-3 से पहले चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने और ऐसा करने वाला पहला देश बनने की जल्दबादी में शायद रोस्कॉस्मोस ने चेतावनियों और जोखिमों की अनदेखी की. इगोरोव ने एपी से कहा, "ऐसा लगता है कि चीजें योजना के मुताबिक नहीं जा रही थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने कार्यक्रम को ना बदलने का फैसला किया ताकि भारतीयों को पहले नंबर पर आने से रोका जा सके."

एसएम/एडी (रॉयटर्स, एपी)