मुंबई, 20 अप्रैल मुबंई उच्च न्यायालय की न्यायाधीश साधना जाधव ने एल्गार परिषद-माओवादी (भीमा कोरेगांव) संबंध मामले की कई याचिकाओं पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है, जो इस साल ऐसा करने वाली उच्च न्यायालय की तीसरी न्यायाधीश हैं।
मामले के आरोपियों में दिवंगत जेसुइट पुजारी स्टेन स्वामी सहित 16 विद्यार्थी (स्कॉलर्स) और कार्यकर्ता शामिल हैं।
इस साल की शुरुआत में मुबंई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएस शिंदे और न्यायाधीश पीबी वराले ने एल्गार परिषद मामले से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था।
न्यायमूर्ति साधना जाधव और न्यायमूर्ति मिलिंद जाधव कार्यकर्ता रोना विल्सन और शोमा सेन द्वारा दायर दो याचिकाओं की अध्यक्षता कर रहे थे, जिसमें उनके खिलाफ मामले को रद्द करने की मांग की गई थी। वकील सुरेंद्र गाडलिंग द्वारा दायर एक जमानत याचिका दायर की गई थी और पुजारी फ्रेजर मस्करेन्हास द्वारा दायर एक याचिका में मांग की गई थी कि उन्हें स्वामी की ओर से दायर मुकदमे को चलाने की अनुमति दी जाए, जिनकी चिकित्सा जमानत की प्रतीक्षा में हिरासत के दौरान ही मृत्यु हो गई।
न्यायमूर्ति साधना जाधव ने मंगलवार को कहा कि उन्हें मामलों की सुनवाई से खुद को अलग कर लेना चाहिए और उनके सामने एल्गार परिषद या कोरेगांव भीमा मामला नहीं रखा जाना चाहिए। उन्होंने खुद को अलग करने के अपने फैसले के लिए कोई कारण नहीं बताया।
न्यायमूर्ति शिंदे 2019 और 2021 के बीच इन मामलों की अध्यक्षता कर रहे थे। यह उनकी पीठ थी जिसने कवि-कार्यकर्ता वरवर राव को अस्थायी चिकित्सा जमानत दी थी, और वकील सह कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को डिफॉल्ट जमानत दी थी, दोनों एल्गार मामले में आरोपी थे। तब मामलों को न्यायमूर्ति पीबी वराले की अध्यक्षता वाली पीठ को स्थानांतरित कर दिया गया था, उन्होंने भी उनकी सुनवाई से इनकार कर दिया था।
उच्च न्यायालय ने तब मामलों को सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति एसबी शुक्रे के नेतृत्व में एक विशेष पीठ को सौंपा।
इस महीने की शुरुआत में न्यायाधीश शुक्रे को मुबंई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसके बाद मामले को न्यायमूर्ति साधना जाधव के पास भेज दिया गया था।
याचिकाकर्ताओं के वकीलों को अब उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता के समक्ष एक आवेदन देना होगा, जिसमें मांग की जाए कि एल्गार मामले की सुनवाई के लिए एक बार फिर एक विशेष पीठ नियुक्त की जाए।
गौरतलब है कि मामला 31 दिसंबर, 2017 को पुणे के शनिवारवाड़ा में आयोजित 'एल्गार परिषद' सम्मेलन में दिए गए कथित भड़काऊ भाषणों से संबंधित है, जिसके बारे में पुलिस ने दावा किया था कि शहर के बाहरी इलाके में स्थित कोरेगांव भीमा युद्ध स्मारक के पास अगले दिन हिंसा हुई थी।
पुणे पुलिस ने दावा किया कि सम्मेलन को माओवादियों का समर्थन प्राप्त था।
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