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संयुक्त राष्ट्र, छह सितंबर भारत ने चीन और पाकिस्तान के परोक्ष संदर्भ देते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) से कहा है कि बिना कोई कारण बताए विश्व स्तर पर स्वीकृत आतंकवादियों को काली सूची में डालने के साक्ष्य-आधारित प्रस्तावों को रोकना अनुचित है और इस तरह के कदम से ‘‘दोहरेपन की बू’’ आती है।
संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी प्रतिनिधि राजदूत रुचिरा कंबोज ने मंगलवार को यहां कहा, ‘‘यूएनएससी प्रतिबंध समितियों की कार्यप्रणाली संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रही है।’’
काम करने के तरीकों पर सुरक्षा परिषद की खुली बहस में कंबोज ने कहा, ‘‘वैश्विक स्तर पर स्वीकृत आतंकवादियों के लिए वास्तविक, साक्ष्य-आधारित सूची प्रस्तावों को बिना कोई उचित कारण बताए रोकना अनावश्यक है और जब आतंकवाद की चुनौती से निपटने में परिषद की प्रतिबद्धता की बात आती है तो दोहरेपन की बू आती है।’’
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि प्रतिबंध समितियों के कामकाज के तरीकों में पारदर्शिता और सूचीबद्ध करना तथा सूची से हटाने में निष्पक्षता पर जोर दिया जाना चाहिए और यह राजनीतिक विचारों पर आधारित नहीं होना चाहिए।
कंबोज की टिप्पणी चीन और उसके सदाबहार दोस्त पाकिस्तान के परोक्ष संदर्भ में थी।
चीन ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों को सूचीबद्ध करने के भारत और उसके सहयोगियों के प्रयासों में बार-बार रुकावट डाली है।
ताजा उदाहरण इस साल जून का है जब चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 1267 अल कायदा प्रतिबंध समिति के तहत लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी साजिद मीर को एक वैश्विक आतंकवादी के तौर पर नामित करने के लिए भारत और अमेरिका के एक प्रस्ताव में अड़ंगा डाला था, जो 26/11 मुंबई आतंकी हमले में शामिल होने के आरोप में वांछित था।
कंबोज ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यूएनएससी के आठ बार निर्वाचित सदस्य भारत को सुरक्षा परिषद के कामकाज के तरीकों में सुधार की आवश्यकता के बारे में कुछ प्रमुख चिंताएं हैं।
उन्होंने कहा, “हमें... एक ऐसी सुरक्षा परिषद की आवश्यकता है जो आज संयुक्त राष्ट्र की भौगोलिक और विकासात्मक विविधता को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करे। ऐसी सुरक्षा परिषद जहां अफ्रीका, लैटिन अमेरिका तथा एशिया और प्रशांत के विशाल बहुमत सहित विकासशील देशों और गैर-प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्रों की आवाजों को इस मेज पर उचित स्थान मिले।’’
दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत ने इस बात पर जोर दिया कि सदस्यता की दोनों श्रेणियों में परिषद का विस्तार नितांत आवश्यक है।
कंबोज ने कहा, ‘‘यह परिषद की संरचना और निर्णय लेने की गतिशीलता को समकालीन भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के अनुरूप लाने का एकमात्र तरीका है।’’
उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय अब महासभा में अंतर-सरकारी वार्ता (आईजीएन) की आड़ में छिप नहीं सकता है और न ही ऐसी प्रक्रिया में बयान जारी करके दिखावा जारी रख सकता है जिसमें कोई समय सीमा नहीं है, कोई पाठ नहीं है और प्राप्त करने के लिए कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘अगर देश वास्तव में परिषद को अधिक जवाबदेह और अधिक विश्वसनीय बनाने में रुचि रखते हैं, तो हम उनसे खुलकर सामने आने और संयुक्त राष्ट्र में एकमात्र स्थापित प्रक्रिया के माध्यम से समयबद्ध तरीके से इस सुधार के लिए एक स्पष्ट मार्ग का समर्थन करने का आह्वान करते हैं, जो इस पाठ के आधार पर बातचीत में शामिल होने से संबंधित है, न कि एक-दूसरे पर बोलने या एक-दूसरे को अतीत की बातें बताते रहने के माध्यम से होना चाहिए, जैसा कि हमने पिछले तीन दशकों से देख रहे हैं।’’
कंबोज ने रेखांकित किया कि जैसे-जैसे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरे बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए इस परिषद में सुधार होना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘‘हम इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रगति को अवरुद्ध करने वालों से वास्तविक सुधार की मांग पर ध्यान देने और इस परिषद को 21वीं सदी के उद्देश्य के लिए वास्तव में उपयुक्त बनाने में योगदान देने की अपील करते हैं।’’
कंबोज ने कहा कि केवल सुरक्षा परिषद के कामकाज के तरीकों को ठीक करना कभी भी इसके मूलभूत दोष, इसके प्रतिनिधि चरित्र की कमी को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।
उन्होंने कहा, ‘‘ग्लोबल साउथ के सदस्य देशों को परिषद के निर्णय लेने में आवाज उठाने और भूमिका से वंचित करना केवल परिषद की विश्वसनीयता को कम करता है।’’
1960 के दशक में पनपा ‘ग्लोबल साउथ’ शब्द आम तौर पर लैटिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका और ओशिनिया के क्षेत्रों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। खासकर इसका मतलब, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बाहर, दक्षिणी गोलार्द्ध और भूमध्यरेखीय क्षेत्र में स्थित ऐसे देशों से है जो ज्यादातर कम आय वाले हैं और राजनीतिक तौर पर भी पिछड़े हैं।
ज्यादातर ‘ग्लोबल साउथ’ देश औद्योगीकरण वाले विकास की दौड़ में पीछे रह रह गए। इनका उपनिवेश वाले देश के पूंजीवादी और साम्यवादी सिद्धांतों के साथ विचारधारा का भी टकराव रहा है।
भारत ने चिंता के जिस अन्य क्षेत्र के बारे में ध्यान आकर्षित किया वह सहायक निकायों के अध्यक्षों का चयन एक ऐसी प्रक्रिया के माध्यम से किया जाना चाहिए जो खुली, पारदर्शी, व्यापक परामर्श पर आधारित और अधिक एकीकृत परिप्रेक्ष्य के साथ हो।
सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी सदस्य हैं - अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस और ब्रिटेन - जिन्हें सामूहिक रूप से पी5 के रूप में जाना जाता है। सुरक्षा परिषद के दस निर्वाचित सदस्यों को आमतौर पर ई-10 कहा जाता है।
कंबोज ने कहा कि सहायक निकायों में ई-10 की सहमति को पी5 की ओर से सम्मान दिया जानाा चाहिए।
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