नयी दिल्ली, 18 नवंबर उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि उत्तर प्रदेश सरकारी सेवक (अनुशासन एवं अपील) नियमावली-1999 के तहत किसी लोक सेवक के खिलाफ जांच में बड़ा जुर्माना लगाने का प्रस्ताव किए जाने पर आरोपों के समर्थन में मौखिक साक्ष्य दर्ज करना अनिवार्य है।
शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसके तहत एक लोक सेवक के खिलाफ अनुशासनात्मक प्राधिकारी के आदेश को बरकरार रखा गया था।
लोक सेवक को वाणिज्यिक कर के सहायक आयुक्त के रूप में अपनी तैनाती के दौरान अनुशासनात्मक कार्यवाही का सामना करना पड़ा था। अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने नवंबर 2014 में निंदा प्रविष्टि की सजा के साथ-साथ संचयी प्रभाव से लोक सेवक की दो ग्रेड वेतन वृद्धि रोकने का आदेश दिया था।
लोक सेवक ने आदेश को राज्य लोक सेवा न्यायाधिकरण, लखनऊ के समक्ष चुनौती दी थी, जिसने इसे रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि अपीलकर्ता सभी परिणामी लाभों का हकदार होगा।
इसके बाद अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने न्यायाधिकरण के फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने 30 जुलाई 2018 को इसे रद्द कर दिया।
लोक सेवक ने उच्च न्यायालय के फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी।
न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि दोनों पक्षों के बीच इस बात को लेकर कोई विवाद नहीं है कि लोक सेवक को दी गई सजा 1999 की नियमावली के लिहाज से एक बड़ा जुर्माना थी।
पीठ ने कहा, “...हमारी दृढ़ राय है कि अपीलकर्ता (लोक सेवक) के खिलाफ बड़े दंड के प्रावधान वाले आरोपों के संबंध में की गई जांच पूरी तरह से दोषपूर्ण थी और कानून की नजरों में गैर-कानूनी थी, क्योंकि विभाग द्वारा आरोपों के समर्थन में कोई भी मौखिक साक्ष्य दर्ज नहीं किया गया था।”
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