बलूचिस्तान में कैसे भड़की विद्रोह की चिंगारी? जानें आजादी से लेकर पाकिस्तान में विलय तक कालात रियासत की पूरी कहानी

Balochistan And Pakistan Conflict: बलूचिस्तान एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्र है, जो कभी स्वतंत्र रियासत कालात था. 1948 में पाकिस्तान ने इसे बलपूर्वक अपने में मिला लिया, जिससे यहां असंतोष और संघर्ष शुरू हो गया. ब्रिटिश राज के दौरान बलूचिस्तान को सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र माना जाता था. विलय के बाद से बलूच नेता लगातार स्वतंत्रता की मांग करते रहे हैं और कई विद्रोह हो चुके हैं. यह क्षेत्र गैस, खनिज और समुद्री बंदरगाहों से समृद्ध है, लेकिन विकास और अधिकारों से वंचित है. आज भी यहां मानवाधिकार हनन, जबरन गुमशुदगियां और राजनीतिक अस्थिरता एक बड़ी समस्या बनी हुई है.

बलूचिस्तान का इतिहास (History of Balochistan)

बलूचिस्तान पाकिस्तान का दक्षिण-पश्चिमी प्रांत है, जो लगभग देश के 44% क्षेत्र में फैला हुआ है लेकिन सबसे कम आबादी वाला प्रांत है. यह क्षेत्र घने रेगिस्तानी पठार, पहाड़ों और गहरी घाटियों का समूह है. उत्तर में यह ख़ैबर पख्तूनख्वा, पूर्व में पंजाब व सिंध से, पश्चिम में ईरान और उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान से घिरा है, जबकि दक्षिण में इसका समुद्री किनारा अरब सागर के साथ जुड़ा है. यहां की सबसे प्रमुख बंदरगाह परियोजना ग्वादर है, जो अरब सागर में स्थित दुनिया का सबसे गहरा बंदरगाह है.

बलूचिस्तान की जलवायु बहुत शुष्क और रेगिस्तानी है; कुल क्षेत्र का केवल लगभग 5% भूमि खेती योग्य है . इसके बावजूद कृषि और पशुपालन अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा हैं (लगभग 47%). प्रांत की आर्थिक जीवनरेखा में खनिज संसाधनों का भी महत्वपूर्ण योगदान है – यहां बड़ी मात्रा में प्राकृतिक गैस, कोयला, तांबा और सोने के भंडार हैं. बलूचिस्तान में मुख्यत: बलूच और ब्राहुई जातियाँ निवास करती हैं. बलूच लोग मुख्य रूप से सुन्नी मुस्लिम हैं और बलोची (एक पारसी-भारतीय भाषाई समूह की भाषा) बोलते हैं.

ब्राहुई भाषा ड्रोविड़ मूल की है, जो यहां की ब्राहुई जनजाति की मातृभाषा है. क्षेत्र की संस्कृति में कई लोक परंपराएँ, संगीत (जैसे लोकवाद्य डफ़्ल और सुरैला नृत्य) व वीर प्रेमकथाएँ शामिल हैं. ऐतिहासिक रूप से बलूचिस्तान रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण रहा है, जहाँ प्राचीन समय में सिंधु घाटी सभ्यता तथा मध्य पूर्व के सभ्यताओं को जोड़ने वाले मार्ग रहे हैं. भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचने के लिए सिकंदर महान की सेना ने 326 ईसापूर्व में बलूचिस्तान से मार्ग लिया था.

प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास

बलूचिस्तान का इतिहास बहुत प्राचीन है. करीब 3000 साल पहले इस क्षेत्र में रहने वाले आदिम लोग सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े थे. ऐतिहासिक उत्खनन स्थल “जलावारनु” (बर्न्ट सिटी) की खुदाई से यह क्षेत्र शुरूआती नगर सभ्यताओं से भी जुड़ा पाया गया. इसे पारसी और मेसोपोटामियाई सभ्यताओं तक ले जाने वाले मार्ग का हिस्सा माना जाता है. चौथी शताब्दी ईसापूर्व में मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने यहां के दक्षिणी हिस्से पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था. 725 ईस्वी में अरब सेनाओं ने बलूचिस्तान का दखल लिया और यहां इस्लाम का प्रसार हुआ.

समय के साथ क्षेत्र में गुर्जर, पाल, शेखवाली और बाद में मुगल बादशाह अकबर तक के शासक आए. 17वीं सदी तक बलूच लोग राजनीतिक रूप से संगठित होकर कालात के ख़ान का राज्य (ख़ानते-ए-कालात) बना चुके थे. इस कालखंड में बलूच जनजातियां चरवाहे-युद्धवीर जीवन यापन करती थीं और उनकी संस्कृति में मार्शल परंपराएँ, गौरवगाथाएँ और लोक गीत विकसित हुए. बाहरी आक्रमणों के संदर्भ में 7वीं शताब्दी में अरब, 11वीं शताब्दी में अफगानी राजा महमूद गज़नी ने इस क्षेत्र में आक्रमण किए. 18वीं सदी में अफगानियाई और ईरानी ताकतों का प्रभाव रहा, लेकिन इसी दौरान कालात खंड ने सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से मजबूती से अपनी पहचान बनाई.

ब्रिटिश काल में बलूचिस्तान की स्थिति और संधियां 

19वीं शताब्दी के मध्य में, अफगानिस्तान पर ब्रिटिश प्रभुत्व कायम करने की तैयारी में अंग्रेजों ने 1839 में प्रथम अफगान युद्ध के दौरान बलूचिस्तान में हस्तक्षेप किया. नवंबर 1839 में कर्नल विलशायर के नेतृत्व में 1049 ब्रिटिश सैनिकों ने कालात पर आक्रमण किया. इस युद्ध के बाद कालात के ख़ान मीर महरब खान ब्रिटिश नियंत्रण को झेलते हुए पालित बने. इसके बाद ब्रिटिश और कालात के बीच कई समझौते हुए. 1875-76 में ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि रॉबर्ट सैनडेमैन ने कालात के ख़ान के साथ “कालात संधि” की. इस संधि में बलूच जनजातियों को ख़ान से जोड़ा गया और ब्रिटिश राज ने कालात के ख़ान का राज्य अधीनता में लेने की शर्त स्वीकार की.

इस प्रकार कालात (लगभग सशक्त शासक रहा) अब ब्रिटिश छत्रछाया में आ गया. इसके साथ ही बेलोचिस्तान एजेंसी स्थापित हुई जिसमें ब्रिटिश प्रशासन ने क्वेटा, पिशीन, जोप, खैरपोर दराउज़खान आदि इलाकों को सीधे नियंत्रित करना शुरू किया. कालात और अन्य छोटे रियासतों (ख़ारान, माकरण, लास बेला) को ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त शाही छत्रछाया के रूप में रखा गया. कुल मिलाकर, इम्पीरियल काल में ब्रिटिश भारत ने बलूचिस्तान को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया, जहां से चीन और मध्य एशिया जाने वाले गुज़रगाहों पर नियंत्रण हासिल करने की कोशिश की गई.

विभाजन के समय बलूचिस्तान की राजनीतिक स्थिति 1947 में ब्रिटिश भारत के विभाजन के समय बलूचिस्तान में कई रियासतें थीं, जिनमें सबसे बड़ी थी कालात ख़ानते. 12 अगस्त 1947 को कालात के ख़ान मीर अहमद यार खान ने स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा की.

उन्होंने तत्कालीन पाकिस्तान या भारत में विलय करने से इंकार किया. लेकिन 1948 की शुरुआत तक पाकिस्तान सरकार और ख़ान के बीच मतभेद बढ़ते गए. 27 मार्च 1948 को लंबी बातचीत के बाद मीर अहमद यार खान ने पाकिस्तान में विलय पर अंतिम मुहर लगाई . अन्य छोटे रियासतों—जैसे ख़ारान, माकरण और लास बेला—ने भी पहले ही 21 मार्च 1948 को पाकिस्तान से शामिल होने की घोषणा की थी . इसके बाद 15 अप्रैल 1948 को पाकिस्तानी सेना बलूचिस्तान में दाखिल हुई . कालात का विलय उस समय विवादों और जुझारू घटनाओं के बीच हुआ. मिसाल के तौर पर, मीर अहमद यार खान के छोटे भाई अफगानिस्तान भाग गए और विद्रोह किया, लेकिन अंततः वे 1950 में आत्मसमर्पण कर गए.

पाकिस्तान में विलय की प्रक्रिया और विवाद 

विलय के बाद कालात के ख़ान और बलूच नेताओं को धीरे-धीरे सीमित करके पाकिस्तानी प्रशासन में समायोजित किया गया. 3 अक्टूबर 1952 को कालात ने ख़ारान, लास बेला और माकरण के साथ मिलकर बलूचिस्तान स्टेट्स यूनियन बनाई, जिसमें मीर अहमद यार ख़ान को खान-ए-आज़म की उपाधि दी गई . लेकिन 1955 में यह संघ भंग कर दिया गया और वन-यूनिट नीति के तहत बलूचिस्तान को पश्चिम पाकिस्तान प्रांत में मिला दिया गया.

इस क्रम में कालात के अखंड स्वायत्तता समाप्त हो गई और मीर अहमद यार ख़ान की सियासी हैसियत कम हो गई. स्थानीय नेताओं में असंतोष बढ़ा. 6 अक्टूबर 1958 को मीर अहमद यार ख़ान को गिरफ्तार किया गया और कई अन्य बलूच राजनीतिक नेताओं को जेल भेज दिया गया. इसी समय के आसपास ख़ान नवाब नुरोज़ ख़ान ने विद्रोह किया. नवाब नुरोज़ और उनके हजारों समर्थकों ने बलूच क्षेत्रों में अर्धसैनिक बलों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी. बाद में 1959 में उनका सरेंडर हुआ और 1960 में कई विद्रोही नेताओं को फांसी दी गई. पाकिस्तान की सैन्य कार्रवाई और राजनीतिक कदमों से बलूचों में भारी नाराज़गी पनपी, जिसने आगे चलकर 1960-70 के दशक में कई विद्रोहों को जन्म दिया.

बलूच संसाधनों का उपयोग और स्थानीय असंतोष 

बलूचिस्तान अपने विशाल प्राकृतिक संसाधनों के लिए जाना जाता है. यहाँ बड़ी मात्रा में गैस के भंडार पाए जाते हैं—उदाहरण के लिए, 1952 में खोजे गए सुई गैस क्षेत्र ने पाकिस्तान की गैस उत्पादन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा दिया. साथ ही, यहाँ कोयला, तांबे व सोने जैसी धातुओं की खदानें हैं, जिनकी देश भर में भारी मांग है. परन्तु स्थानीय जनता को इन संसाधनों से कम ही लाभ मिलता है. अधिकांश संसाधन एक्सपोर्ट और फैक्ट्रियों को ऊर्जा सप्लाई के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं, जबकि स्थानीय क्षेत्र में विकास के काम धीमे हैं. इसके चलते बलूचों में गहरा असंतोष है.

अधिकांश बुनियादी ढांचे (जैसे सड़क, स्कूल, अस्पताल) अन्य प्रांतों की तुलना में कम विकसित हैं. इन परिस्तिथियों को लेकर लोग मानते हैं कि केंद्र सरकार बलूचिस्तान के खनिज धन का दोहन केवल राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के हित में कर रही है, जबकि स्थानीय समुदायों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता. उदाहरणार्थ, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) परियोजनाओं में भी स्थानीय लोग शामिल नहीं किए गए और उन्हें लगा कि ये परियोजनाएं बलूचिस्तान को सशक्त करने की बजाय शोषण का माध्यम हैं. स्थानीय रिसर्चर्स और मानवाधिकार समूह चेतावनी देते रहे हैं कि ऐसे विकास प्रोजेक्ट्स के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात होने से स्थानीय आबादी की स्वतंत्रता और अधिकारों का उल्लंघन बढ़ा है.

बलूच स्वतंत्रता आंदोलन और प्रमुख घटनाएं 

पाकिस्तानी विलय के बाद बलूच नेताओं ने राजनीतिक और सशस्त्र दोनों तरीके से अपनी आवाज़ उठाई. 1967 में बलूच स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन (BSO) नामक संगठन बना, जिसने बलूच अधिकारों की माँग को गढ़ा. 1970 के चुनावों में नज़ीरिया-ए-आज़ाद बलूचिस्तान (NAP) ने बलूचिस्तान की विधानसभा की 20 सीटों में से 8 पर विजय प्राप्त की.

जुलाई 1971 में प्रांत बना और अप्रैल 1972 में संयुक्त प्रगतिशील पार्टी (NAP) से ग़ौस बख़्श बिझेनजो को गवर्नर नियुक्त किया गया. लेकिन 1973 में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सरकार ने बिझेनजो को हटाया और बलूच राष्ट्रीय समिति के सदस्यों को जेल में डाला. इसी साल बड़े पैमाने पर विद्रोह छिड़ गया; इराक और अफगानिस्तान ने बलूच विद्रोहियों को असैन्य और सैन्य मदद देना शुरू किया. मई 1974 में सरकार ने मिलिट्री ओपरेशन चलाकर बगावत को दबा दिया. इन सब संघर्षों में 1970-77 के बीच हजारों बलूच मारे गए और बलूचिस्तान में अस्थिरता बनी रही.

2000 के दशक में फिर से स्वतंत्रता आंदोलन तेज हुआ. इस दौर में कई सशस्त्र समूह सक्रिय हुए, जिनमें सबसे चर्चित है बलूच मुक्ति सेना (बलूच लिबरेशन आर्मी, BLA). BLA की स्थापना करीब 2000 के दशक की शुरुआत में हुई और यह संगठन पाकिस्तान की सरकार के खिलाफ सशस्त्र गुटों में प्रमुख बन गया. बीएलए ने अपने अभियान में सरकारी सुरक्षा बलों के ठिकानों और प्रोजेक्ट्स पर कई बार हमले किए, खासकर 2006 में कर्नल (रिटायर्ड) अख़्तर खान बुगती के मार दिए जाने के बाद हमलों में वृद्धि हुई. बीएलए ने Gwadar बंदरगाह, सीपेक प्रोजेक्ट्स और पाकिस्तानी सुरक्षा संस्थानों पर हमलों को बलूच स्वतंत्रता संग्राम के हिस्से के रूप में जारी रखा.

मानवाधिकार हनन और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं 

बलूचिस्तान में लगातार मानवाधिकार उल्लंघनों की खबरें आती रही हैं. राज्य सुरक्षा बलों द्वारा कथित रूप से लापता कर देना (इन्फोर्स्ड डीसअपीरेंस) बलूच संघर्ष की एक प्रमुख विशेषता बन गया है. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार विशेषज्ञों ने हाल ही में चेतावनी दी है कि वहां “लापता कर देना” लगातार जारी है और इसे रोकने में विफलता से गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन हो रहे हैं. उन्होंने बलूचों के शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के साथ मारपीट, यातना और इजतखोर हत्याओं की भी निंदा की है. अंतरराष्ट्रीय संगठन भी चिंतित हैं.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2011 में रपट दी थी कि बलूचिस्तान में सुरक्षा एजेंसियां ऐसे लोगों को अगवा कर रहीं हैं जिन्हें बलूच राष्ट्रवाद से जोड़ा जाता है. रोज़गार के बहाने पकड़े गए इन लोगों को कई वर्ष तक अज्ञातवास में रखा जाता है. 2016 में अमनिस्टि इंटरनेशनल ने भी बलूचिस्तान में महिलाओं समेत जनसभाओं पर बल प्रयोग की निंदा की थी. जनवरी 2024 में Amnesty ने बताया कि इस्लामाबाद में चल रहे “बलूच लॉंग मार्च” के प्रोटेस्टर्स को पुलिस और एजेंसियों ने लगातार परेशान किया, जिससे उन्हें महीनों की शांतिपूर्ण हड़ताल समाप्त करनी पड़ी. इन रिपोर्टों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय में पाकिस्तान से बलूच अधिकारों के उल्लंघन को रूकने का दबाव बनाया है.

समकालीन परिदृश्य: CPEC, निर्वासित सरकार, अंतर्राष्ट्रीय समर्थन 

आज बलूचिस्तान में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) जैसे बड़े प्रोजेक्ट तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं. ग्वादर पोर्ट को CPEC के तहत प्रमुख केंद्र बनाया गया है. हालांकि इससे स्थानिय लोगों को ज्यादा फायदा नहीं हुआ है. रिपोर्टों के अनुसार, CPEC परियोजनाएं बलूचों द्वारा “शोषण और दमन का उपकरण” मानी जा रही हैं. इस कारण बलूच समुदाय के कुछ हिस्से में घाट-प्रतिरोध भी देखने को मिला है.

वास्तव में हाल के सालों में बलूच विद्रोहियों ने कई बार चीनी राष्ट्रीयों और परियोजना स्थानों को निशाना बनाया है, जिससे सुरक्षा की चुनौतियां बढ़ गई हैं. देश के बाहर बलूच अलगाववादी कार्यकर्ताओं और प्रवासी समूहों की सक्रियता भी बढ़ी है. कुछ बलूच नेता भारत, अफगानिस्तान और यूरोप में ‘बलूचिस्तान स्वतंत्रता आंदोलन’ के समर्थन में सक्रिय हैं. उन्होंने खुद को निर्वासित बलूच सरकार भी घोषित किया है (उदा. “गवर्नमेंट ऑफ़ बलूचिस्तान इन एग्ज़ाइल”) और मानवाधिकार मंचों पर बलूचों की आज़ादी की वकालत की है.

बलूच नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद समेत अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से बुलंद आवाज़ लगाई है. बलूच राष्ट्रीयतावादी संगठन (जैसे वर्ल्ड बलूच ऑर्गनाइजेशन) ने लंदन में टैक्सियों पर “#FreeBalochistan” जैसे नारे छपवाए, हालांकि बाद में ब्रिटिश सरकार ने इसे रोक दिया. दुनिया भर में बलूच प्रवासी समुदाय ने भी आंदोलन को समर्थन दिया है. स्वीडन, नॉर्वे, ओमान, यूएई आदि देशों में बसे बलूच नागरिक अपने-अपने देशों के मीडिया और राजनैतिक मंचों पर बलूच अधिकारों की बात करते रहते हैं.

भारत और अफगानिस्तान सहित कुछ पड़ोसी देशों की भूमिका विवादित रही है: पाकिस्तान पर आरोप है कि भारत बलूच अलगाववाद को वित्तीय सहायता देता है, जिसे भारत ने खंडन किया है. पूर्व अफगानी सरकारों ने अतीत में बलूच विद्रोहियों को आश्रय और प्रशिक्षण प्रदान किया था. इन घटनाओं ने बलूच आन्दोलन को क्षेत्रीय संदर्भों में और जटिल बना दिया है. समग्रतः, सामरिक महत्व और प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न बलूचिस्तान पाकिस्तान के लिए हितों और विवादों का केंद्र बना हुआ है. अभी भी यहां का अधिकांश क्षेत्र पिछड़ा हुआ है और बड़े पैमाने पर सुरक्षा अभियानों के चलते आम जनता को कठिनाइयाँ झेलनी पड़ रही हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव और स्थानीय जनहितों को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तान के लिए बलूचिस्तान की समावेशी विकास रणनीति और मानवीय दृष्टिकोण अपनाना भविष्य की कुंजी हो सकती है.

स्रोत: इस आर्टिकल में इतिहास और वर्तमान घटनाओं से संबंधित आंकड़े विश्वसनीय स्रोतों से लिए गए हैं.

img