चातुर्मास काल में श्रीहरि-लक्ष्मी की पूजा है अशून्य शयन व्रत, इससे स्त्री वैधव्य और पुरुष विधुर होने के पाप से होते हैं मुक्त

चातुर्मास के चार महीनों में शेषनाग की शैया पर लक्ष्मी जी और श्रीहरि शयन करते हैं. इसीलिए इस व्रत को ‘अशून्य शयन व्रत’ कहते हैं. इस व्रत को करने से स्त्री वैधव्य ए पोलिंग ऑफिसर ईशा अरोड़ा, जानें क्यों वायरल हो रहा ये वीडियो
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    चातुर्मास काल में श्रीहरि-लक्ष्मी की पूजा है अशून्य शयन व्रत, इससे स्त्री वैधव्य और पुरुष विधुर होने के पाप से होते हैं मुक्त

    चातुर्मास के चार महीनों में शेषनाग की शैया पर लक्ष्मी जी और श्रीहरि शयन करते हैं. इसीलिए इस व्रत को ‘अशून्य शयन व्रत’ कहते हैं. इस व्रत को करने से स्त्री वैधव्य एवं पुरुष विधुर होने के पाप से मुक्त हो जाता है. यह व्रत सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है तथा जीवन के अंतिम प्रहर में मोक्ष दिलाता है.

    धर्म Rajesh Srivastav|
    चातुर्मास काल में श्रीहरि-लक्ष्मी की पूजा है अशून्य शयन व्रत, इससे स्त्री वैधव्य और पुरुष विधुर होने के पाप से होते हैं मुक्त
    भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी (Photo Credits: Facebook)

    चातुर्मास (Chaturmas) के दरम्यान अकसर प्रश्न उठता है कि इन चार मासों (Four Months) में श्री विष्णु जी (Lord Vishnu) की पूजा करनी चाहिए या नहीं. क्योंकि शास्त्रों के अनुसार इस काल में श्री हरि योग निद्रा में चले जाते हैं. कुछ पुरोहितों के अनुसार श्रीहरि के भक्त बिना श्री हरि की पूजा किये एक पल नहीं रह सकते. श्रीहरि के प्रति श्रद्धा भाव के बने रहने के कारण ‘अशून्य शयन व्रत’ के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है.इस दिन पति पत्नी एक दूसरे के दीर्घायु के लिए व्रत एवं पूजा अर्चना करते हैं, ताकि उनके दांपत्य जीवन में खटास अथवा किसी तरह की पीड़ा नहीं आने पाए.

    इस व्रत को करने से स्त्री वैधव्य एवं पुरुष विधुर होने के पाप से मुक्त हो जाता है. यह व्रत सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है तथा जीवन के अंतिम प्रहर में मोक्ष दिलाता है. अशून्य शयन व्रत का विधान एवं महात्म्य स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए समान है.

    कब होता है अशून्य शयन व्रत

    चातुर्मास के चार महीनों (आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक मास के देवप्रबोधिनी एकादशी तक) के दौरान हर माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को यह व्रत किया जाता है. इस व्रत का अनुष्ठान श्रावण मास के कृष्णपक्ष की द्वितीया से शुरू होकर कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वितीया तक करने का विधान है. चातुर्मास के चार महीनों में शेषनाग की शैया पर लक्ष्मी जी (Mata Laxmi) और श्रीहरि (Shri Hari) शयन करते हैं. इसीलिए इस व्रत को ‘अशून्य शयन व्रत’ कहते हैं.

    ‘अशून्य शयन व्रत’ का महात्म्य

    ‘अशून्य शयन व्रत’ के संदर्भ में मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण एवं विष्णुधर्मोत्तर आदि में विस्तार से उल्लेखित है. अशून्य शयन से आशय है, स्त्री का शयन पति से तथा पति का शयन पत्नी से शून्य नहीं होता. दोनों का ही साथ जीवनपर्यंत बना रहता है. उसी तरह जिस तरह भगवान विष्णु के साथ लक्ष्मी का साथ अनादिकाल से बना हुआ है.

    लक्ष्मी एवं विष्णु जी की होती है पूजा

    श्रावण कृष्णपक्ष की द्वितीया के दिन लक्ष्मी एवं विष्णु जी की संयुक्त मूर्ति को विशिष्ट शय्या पर अधोस्थापित कर उनका पूजन करना चाहिए. इस दिन प्रातःकाल उठकर स्नानादि कर्मों से फारिग होकर संकल्ं पुरुष विधुर होने के पाप से मुक्त हो जाता है. यह व्रत सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है तथा जीवन के अंतिम प्रहर में मोक्ष दिलाता है.

    धर्म Rajesh Srivastav|
    चातुर्मास काल में श्रीहरि-लक्ष्मी की पूजा है अशून्य शयन व्रत, इससे स्त्री वैधव्य और पुरुष विधुर होने के पाप से होते हैं मुक्त
    भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी (Photo Credits: Facebook)

    चातुर्मास (Chaturmas) के दरम्यान अकसर प्रश्न उठता है कि इन चार मासों (Four Months) में श्री विष्णु जी (Lord Vishnu) की पूजा करनी चाहिए या नहीं. क्योंकि शास्त्रों के अनुसार इस काल में श्री हरि योग निद्रा में चले जाते हैं. कुछ पुरोहितों के अनुसार श्रीहरि के भक्त बिना श्री हरि की पूजा किये एक पल नहीं रह सकते. श्रीहरि के प्रति श्रद्धा भाव के बने रहने के कारण ‘अशून्य शयन व्रत’ के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है.इस दिन पति पत्नी एक दूसरे के दीर्घायु के लिए व्रत एवं पूजा अर्चना करते हैं, ताकि उनके दांपत्य जीवन में खटास अथवा किसी तरह की पीड़ा नहीं आने पाए.

    इस व्रत को करने से स्त्री वैधव्य एवं पुरुष विधुर होने के पाप से मुक्त हो जाता है. यह व्रत सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है तथा जीवन के अंतिम प्रहर में मोक्ष दिलाता है. अशून्य शयन व्रत का विधान एवं महात्म्य स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए समान है.

    कब होता है अशून्य शयन व्रत

    चातुर्मास के चार महीनों (आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक मास के देवप्रबोधिनी एकादशी तक) के दौरान हर माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को यह व्रत किया जाता है. इस व्रत का अनुष्ठान श्रावण मास के कृष्णपक्ष की द्वितीया से शुरू होकर कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वितीया तक करने का विधान है. चातुर्मास के चार महीनों में शेषनाग की शैया पर लक्ष्मी जी (Mata Laxmi) और श्रीहरि (Shri Hari) शयन करते हैं. इसीलिए इस व्रत को ‘अशून्य शयन व्रत’ कहते हैं.

    ‘अशून्य शयन व्रत’ का महात्म्य

    ‘अशून्य शयन व्रत’ के संदर्भ में मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण एवं विष्णुधर्मोत्तर आदि में विस्तार से उल्लेखित है. अशून्य शयन से आशय है, स्त्री का शयन पति से तथा पति का शयन पत्नी से शून्य नहीं होता. दोनों का ही साथ जीवनपर्यंत बना रहता है. उसी तरह जिस तरह भगवान विष्णु के साथ लक्ष्मी का साथ अनादिकाल से बना हुआ है.

    लक्ष्मी एवं विष्णु जी की होती है पूजा

    श्रावण कृष्णपक्ष की द्वितीया के दिन लक्ष्मी एवं विष्णु जी की संयुक्त मूर्ति को विशिष्ट शय्या पर अधोस्थापित कर उनका पूजन करना चाहिए. इस दिन प्रातःकाल उठकर स्नानादि कर्मों से फारिग होकर संकल्प लेकर शेष शय्या पर स्थित लक्ष्मी जी के साथ भगवान विष्णु का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए. पूरे दिन मौन रहते हुए व्रत रखें एवं संध्याकाल में दोबारा स्नान कर भगवान का शयनोत्सव मनाए. चंद्रोदय होने पर ताम्र पात्र में जल, फल, पुष्प और गंधाक्षत तथा ऋतु फल (आम, अमरूद, केले इत्यादि) लेकर अर्घ्य दें और भगवान श्री हरि एवं श्रीलक्ष्मी जी को प्रणाम कर व्रत का पारण करें. इसके पश्चात अगले दिन किसी ब्राह्मण को ऋतु फल एवं दक्षिणा देकर उनकी विदाई करें. ध्यान रहे कि ब्राह्मण को खट्टे फल न दें. मान्यता है कि इस व्रत को विधिवत तरीके से पूरा करने पर आपकी जीवन संगिनी की सारी मुसीबतों से मुक्ति मिलती है. यह भी पढ़ें: देवशयनी एकादशी व्रत 2019: श्रीहरि के सोने के बाद क्यों नहीं होते शुभ-मंगल कार्य, जानें कारण

    इस दिन व्रती को माता लक्ष्मी एवं श्रीहरि की स्तुति स्वरूप इस मंत्र को पढ़ते हुए प्रार्थना करनी चाहिए.

    लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा।

    शय्या ममाप्य शून्यास्तु तथात्र मधुसूदन।।

    अर्थात् हे वरद, जिस तरह से माता लक्ष्मी के कारण आपकी शेष-शय्या कभी सूनी नहीं होती, उसी तरह मेरी शय्या भी मेरी पत्नी के बिना सूनी नहीं हो. अर्थात हमारे और पत्नी के बीच कभी भी अलगाव नहीं होने पाये.

    पुराणों में चंद्रमा को लक्ष्मी का अनुज माना गया है. सूर्य के अलावा वही प्रत्यक्ष देवता हैं. चंद्रमा के पूजन से माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं. उपरोक्त विधान के साथ जो व्यक्ति श्रावण मास से मार्गशीर्ष तक व्रत के सारे नियमों का पालन करता है, उसे कभी स्त्री-वियोग नहीं होता, ना ही कभी लक्ष्मी उसका साथ छोड़ती हैं. जो स्त्री भक्तिपूर्वक इस व्रत का अनुष्ठान करती है, वह तीन जन्मों तक न तो विधवा होती है और न दुर्भाग्य का सामना करती है. यह अशून्य शयन व्रत सभी कामनाओं की पूर्ति और उत्तम भोगों को प्रदान करने वाला है.

    नोट- इस लेख में दी गई तमाम जानकारियों को प्रचलित मान्यताओं के आधार पर सूचनात्मक उद्देश्य से लिखा गया है और यह लेखक की निजी राय है. इसकी वास्तविकता, सटीकता और विशिष्ट परिणाम की हम कोई गारंटी नहीं देते हैं. इसके बारे में हर व्यक्ति की सोच और राय अलग-अलग हो सकती है.

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