रामकृष्ण के सबसे प्रसिद्ध शिष्यों में थे, स्वामी विवेकानंद जी, जिन्होंने आधुनिक युग में भारत, हिंदू धर्म एवं आध्यात्म को एक नया स्वरूप देने में अहम् भूमिका निभाई थी.
रामकृष्ण जयंती ब्रिटिश सत्तात्मक भारत के सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक संत थे. 4 मार्च को रामकृष्ण परमहंस की जयंती पूरे देश में धूमधाम के साथ मनाई जायेगी. वर्तमान में भी रामकृष्ण शांति, प्रेम और दया की शिक्षा देने वाले संत रूप में याद किये जाते हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार इनका जन्म फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की द्वितिया के दिन हुआ था. इस आधार पर इस वर्ष रामकृष्ण जयंती 4 मार्च के दिन मनाई जायेगी. आइये जानें स्वामी रामकृष्ण परमहंस की जयंती पर उनके जीवन के कुछ रोचक प्रसंग.
12 साल की उम्र में क्यों छोड़ी स्कूली शिक्षा?
रामकृष्ण जयंती संत समाज एवं उनके भक्तों के लिए बहुत महत्वपूर्ण दिवस माना जाता है. उनकी जयंती समारोहों में हिंदू दर्शन, उनके जीवन दर्शन, एवं आध्यात्मिक व्याख्यान सम्पन्न किये जाते हैं. स्वामी का जन्म बंगाल के कामारपुकुर गांव के एक गरीब ब्राह्मण खुदीराम बोस के घर में हुआ था. उनकी माता का नाम चंद्रा देवी था. उन्होंने 12 वर्ष की आयु तक शिक्षा ग्रहण की, उसके बाद स्कूल छोड़ दिया. उन्हें रोटी खिलाने वाली शिक्षा हासिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वे आध्यात्म से ज्यादा प्रभावित थे, जिसमें माँ काली-पूजा, तंत्र, वैष्णव भक्ति एवं अद्वैत वेदांत की भक्ति शामिल थी. कम समय में वे पुराणों, रामायण, महाभारत और भागवत पुराण के अच्छे जानकार बन गये. उनके वेदांतिक गुरु पंजाब के जानेमाने संत तोतापुरी थे, जिनसे उन्हें परमहंस की उपाधि मिली थी.
क्या स्वामी जी श्रीहरि के अवतार थे?
स्वामी रामकृष्ण के जीवन के कई विस्मित कर देने वाले किस्से प्रचलित हैं. इन्हीं में एक यह है कि उनके पिता खुदीराम को भगवान श्रीहरि ने स्वप्न में दर्शन दिया था कि वे पुत्र रूप में उनके घर पर जन्म लेंगे. इसी वजह से उनके पिता ने उनका नाम गदाधर रखा था. कहते हैं कि मां ने भी इस घटना को स्वीकारा था. उनके अनुयायी उन्हें श्रीहरि का अवतार मानते थे.
माँ काली को अपनी माँ मानते थे!
स्वामी रामकृष्ण जी के बड़े भाई कलकत्ता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य पुजारी थे, बालपन में रामकृष्ण जी मां काली की प्रतिमा को सजाते-संवारते थे. बड़े भाई के निधन के पश्चात मंदिर के देखभाल एवं पूजा-पाठ का दायित्व एक मुख्य पुजारी के रूप में स्वामी रामकृष्ण जी को मिला था. माँ काली की सेवा पूजा करते हुए वे उनमें इतने लीन हो गये थे कि उन्हें ही अपनी माँ मान लिया था.
विवाह और संन्यास धर्म में प्रवेश
काली मंदिर में मां काली की पूजा करते हुए एक दिन अफवाह फैली कि गदाधर का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है, तब गदाधर की माँ ने सुझाव दिया कि अगर उऩकी शादी करवा दिया जाये तो संभवतया वे सामान्य व्यवहार करने लगेंगे. इस पर स्वयं गदाधर ने उन्हें बताया कि उनकी पत्नी बनने योग्य कन्या शारदामणि कामारपुकुर से 3 किमी दूर उत्तर पूर्व जयरामबाटी में रहती है. अंततः साल 1859 में मात्र 5 वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय से 23 वर्षीय गदाधर का विवाह करवा दिया गया. विवाह के पश्चात शारदा मणि जयरामबाटी में रहती थीं और 18 वर्ष की आयु होने पर वे रामकृष्ण के पास आकर रहने लगीं, लेकिन तक तक गदाधर स्वामी रामकृष्ण के रूप में संन्यास धर्म में प्रवेश कर चुके थे.
स्वामी जी ने कैंसर का इलाज क्यों नहीं करवाया?
स्वामी रामकृष्ण जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे. डॉक्टर ने उनकी जांच कर बताया कि उन्हें कैंसर हो गया है, वे समाधि छोड़ इलाज करवायें. लेकिन स्वामी जी ने उनकी बात हंसकर ठुकरा दी. उन्हें पता था कि उनके जीवन के दिन पूरे हो चुके हैं. धीरे-धीरे वे शिथिल होने लगे. अंततः 16 अगस्त 1886 को (श्रावणी पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा के दिन) उन्होंने देह त्याग दिया.