Jivitputrika Vrat 2021: कब है जीवित्पुत्रिका व्रत? पुत्र-प्राप्ति के लिए जानें कैसे करें जिउतिया व्रत एवं पूजा? एवं क्या है इसका महात्म्य एवं व्रत कथा ?

अश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन जिउतिया व्रत रखा जाता है. विभिन्न क्षेत्रों में इसे जितिया, जीवित्पुत्रिका अथवा जीमूतवाहन व्रत आदि के नाम से भी जाना जाता है. तीन दिन तक चलने वाले इस दिन माएं अपनी संतान के दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी जीवन आदि के लिए निर्जल व्रत रखती हैं.

जीवित्पुत्रिका व्रत 2020 (Photo Credits: File Image)

हिंदू धर्म में पुत्रों के दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी जीवन के लिए रखे जाने वाले तमाम व्रतों में सबसे कठिन जिउतिया व्रत होता है. इस व्रत के संदर्भ में जानें विस्तार से..

अश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन जिउतिया व्रत रखा जाता है. विभिन्न क्षेत्रों में इसे जितिया, जीवित्पुत्रिका अथवा जीमूतवाहन व्रत आदि के नाम से भी जाना जाता है. तीन दिन तक चलने वाले इस दिन माएं अपनी संतान के दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी जीवन आदि के लिए निर्जल व्रत रखती हैं. इसकी शुरुआत सप्तमी तिथि के दिन स्नान-दान, अष्टमी को निर्जल व्रत एवं पूजा-अर्चना के बाद नवमी के दिन स्नान-ध्यान के पश्चात ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देने के बाद पारण किया जाता है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष 29 सितंबर (बुधवार) 2021 को यह व्रत रखा जायेगा, एवं 30 सितंबर (गुरुवार) के दिन व्रत का पारण किया जायेगा.

व्रत का महात्म्य!

जिउतिया व्रत का वर्णन महाभारत काल में मिलता है. कहते हैं कि कुरुक्षेत्र में पांडव-कौरव के बीच हुए युद्ध में द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद उनके पुत्र अश्वथामा ने बदला लेने के लिए पाण्डव खेमे में सो रहे द्रौपदी के पांच पुत्रों को पाण्डव समझकर मार डाला था, लेकिन पांडव को जीवित देखकर क्रोध होकर उसने अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे पुत्र पर ब्रह्मास्त्र चलाकर मार डाला था. तब कृष्ण की सुझाव पर उत्तरा ने जीवित्पुत्रिका व्रत रखा. इसके बाद श्रीकृष्ण ने अपने सारे पुण्य कर्मों के बदले उत्तरा के पुत्र को जीवित कर दिया. कहते हैं कि इसके बाद से ही जीवित्पुत्रिका व्रत की परंपरा शुरु हुई, जो आज तक चल रही है.

जीवित्पुत्रिका व्रत मुहूर्त

अष्टमी प्रारंभः 06.16 PM से (28 सितंबर, 2021)

अष्टमी समाप्तः 08.29 PM तक (29 सितंबर 2021)

जीवित्पुत्रिका व्रत एवं पूजा विधि

अष्टमी के दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान-ध्यान के पश्चात जिउतिया व्रत और पूजा का संकल्प लेते हैं. तत्पश्चात गन्धर्व राजा जीमूतवाहन की पूजा करते हैं. उन्हें सरसों का तेल एवं सरसों के तेल की अर्पित करते हैं. प्रदोषकाल में कुश निर्मित जीमूतवाहन की प्रतिमा को जल से भरे पात्र में स्थापित करते हैं. इसके पश्चात पीली और लाल रंग में रंगी रुई से अलंकृत करते हैं. अब वंशवृद्धि एवं उन्नति के लिए बांस के पत्तों, धूप, दीप, अक्षत, फूल, माला आदि से जीमूतवाहन की पूजा करें. मिट्टी और गाय के गोबर से निर्मित चील व सियारिन की मूर्ति बनाकर उन्हें सिंदूर लगायें. इन्हें खीरा और भींगे केराव का प्रसाद अर्पित करें. इसके बाद जिउतिया व्रत कथा सुनें अथवा सुनाएं. पूजा की समाप्ति आरती से करें. नवमी के दिन सूर्योदय के बाद पारण कर व्रत को पूरा करें यह भी पढ़ें : Sankashti Chaturthi 2021: आज है गणेश संकष्टी चतुर्थी? जानें गणेश संकष्टि चतु्र्थी का महात्म्य, पूजा विधान, मुहूर्त एवं व्रत कथा!

जिउतिया व्रत कथा

प्राचीनकाल में एक जंगल में पाकड़ के पेड़ पर एक चील और उसके नीचे सियारन रहती थीं. दोनों गहरी सखी थीं. एक दिन कुछ महिलाओं को जिउतिया व्रत करते देख और व्रत का महात्म्य जानने के बाद उन्होंने भी इस व्रत-पूजा करने का संकल्प लिया. अगले वर्ष व्रत से एक दिन पहले शहर के एक व्यापारी की मृत्यु हो गई. मृत शरीर देख सियारन को लोभ आ गया, मगर चील ने विधिवत व्रत-पूजा किया. अगले जन्म में दोनों एक ब्राह्मण भास्कर के घर पैदा हुईं. चील, बड़ी बहन का नाम शीलवती और सिया‍रन यानी छोटी बहन का नाम कपुरावती था. शीलवती का विवाह बुद्धिसेन के साथ और कपुरावती का विवाह राजा मलयकेतु से हुआ. जीमूतवाहन के प्रताप से शीलवती के सात बेटे हुए, मगर कपुरावती के बेटे जन्म लेते ही मर जाते थे. बड़े होकर शीलवती के सातों बेटे राजा के दरबार में काम करने लगे. उन्हें देख कपुरावती के मन ईर्ष्या आ गई. उसने राजा से कहकर शीलवती के सातों बेटे के सर कटवा लिये. उनके सिर को सात बर्तनों में रखकर उसे कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया. लेकिन भगवान जीमूतवाहन ने सातों बेटों पर अमृत छिड़क कर जीवित कर दिया. अंततः कपुरावती को अपनी गलती का अहसास हुआ, उसने शीलवती से छमा मांगी.

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