भारत में रंगोत्सव यानी होली का धार्मिक, सामाजिक एवं वैज्ञानिक महत्व है. हिंदू पंचांग के अनुसार यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन सेलीब्रेट किया जाता है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह त्यौहार अमूमन मार्च के महीने में पड़ता है. इस बार भी होली 18 मार्च (शुक्रवार) 2022 को मनाई जायेगी. पौराणिक कथाओं के अनुसार एक ओर यह पर्व राधा और भगवान श्रीकृष्ण के शाश्वत प्रेम का प्रतीक माना जाता है, वहीं राक्षस राजा हिरण्यकश्यपु का वध करने के लिए नृसिंह अवतार के साथ भगवान विष्णु की जीत की खुशी में भी सेलीब्रेट किया जाता है. आइये जानें इस पर्व की परंपराओं के पीछे छिपी वैज्ञानिक अवधारणा क्या कहती है.
होली के पीछे ये है वैज्ञानिक अवधारणा!
जिन दिनों पूरे देश में होली का पर्व मनाया जाता है, वातावरण में जीवाणु की वृद्धि चरम पर होती है. ऐसे में जब हम धार्मिक परंपराओं का पालन करते हुए होलिका जलाते हैं, तो वातावरण का तापमान बढ़ जाता है, क्योंकि कमोबेश अधिकांश चौराहों पर एक ही समय (मुहूर्त अनुसार) पर होलिका-दहन की परंपरा निभाई जाती है. इस तरह काफी हद तक वातावरण में पल रहे जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे संक्रमण की संभावना कम हो जाती है. इस तरह होलिका दहन का पर्व वैज्ञानिक धारणाओं के अनुसार वायु-शुद्धि का प्रतीक माना जा सकता है. यह तो रही होलिका-दहन के महत्व की वैज्ञानिक पुष्टि. अब जानते हैं रंगों की होली क्या कहती है.
रंगों की होली पर क्या कहता है विज्ञान?
होली का पर्व अमूमन मार्च माह में मनाया जाता है. यह वह समय होता है, जब ठिठुरती सर्दी की विदाई होती है और वातावरण में गर्म होने लगता है. इस मौसम परिवर्तन के कारण लोग आलस्य, थकान एवं सुस्ती महसूस करते हैं. ऐसे में ही होली के रंगोत्सव का आगमन होता है. होली की परंपराओं को निभाने के लिए लोग घरों से बाहर निकलकर दोस्त-मित्रों के साथ ढोल-मजीरों की धुन पर नाचते-गाते और होली के रंगों से सराबोर होते हैं. परिजनों एवं मित्रों के साथ पार्टियां करते हैं. इस तरह रंगोत्सव के बहाने आलस्य, थकान और सुस्ती से मुक्ति मिलती है और हम स्वयं में दुगुनी ऊर्जा, उत्साह एवं खुशहाली महसूस करते हैं. यह भी पढ़ें : Holi 2022 Special: इस होली घर पर बनाएं झटपट कुछ स्वादिष्ट एवं जायकेदार व्यंजन, यहां पढ़ें पूरी रेसिपी
क्या कहते हैं होली के लाल, पीले, नीले.. रंग?
रंगों के बिना रंगोत्सव की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मान्यता है कि प्राचीनकाल में होली के रंगों के लिए जैविक रंगों का इस्तेमाल किया जाता था. उदाहरणस्वरूप पीले रंगों के लिए हल्दी का इस्तेमाल करते थे. केशरिया के लिए टेशू के फूलों को प्रयोग में लाते थे. इसके अलावा पलाश, हिबिस्कस, चंदन, अनार, केसर, मेंहदी, बिल्व पत्र, गेंदा, अमलतास, जकरंदा और नील इत्यादि से लाल, गुलाबी, हरे, नीले रंग इत्यादि तैयार किये जाते थे. इन रंगों के इस्तेमाल से शरीर की त्वचा ना केवल सुरक्षित रहती थी, बल्कि वनस्पतियों में युक्त गुणकारी तत्व त्वचा को और ज्यादा चमकीली और मुलायम बनाते थे. त्वचा के सारे विकार दूर हो जाते थे.
होलिका दहन से संबंद्ध हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद की कहानी हमारे मन में बुराई पर अच्छाई की जीत और हमारे अंदर मुश्किलों पर काबू पाने की उम्मीदें जगाती हैं. इसलिए हमें समाज में व्याप्त किसी भी बुराई से दूर रहते हुए अच्छे कार्य करने चाहिए. होली पर्व की पौराणिक कथाएं एवं परंपराएं दर्शाती हैं कि हमें विपरीत परिस्थितियों की चुनौतियों को स्वीकारते हुए खुद में एक नया जोश नई ऊर्जा लाने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए. तभी हम शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूरी तरह चुस्त एवं दुरुस्त रहेंगे.