गूगल ने डूडल बनाकर महान साहित्यकार अमृता प्रीतम को उनके 100वें जन्मदिन पर किया याद, विभाजन के दर्द का आइना हैं इनकी रचनाएं
अमृता की रचनाएं दोनों देशों (भारत और पाकिस्तान) में पसंद की जाती हैं. ठीक वैसे ही जैसे मंटों के कहानियां. भारत की महान साहित्यकार अमृता प्रीतम का आज जन्मशताब्दी वर्ष है. पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम को उनके 100 वें जन्मदिन पर गूगल ने डूडल बनाकर याद किया है.
अमृता प्रीतम (Amrita Pritam) भारतीय साहित्य जगत का वो सितारा हैं, जिनकी रचानाओं को पढ़ना अपने आप में एक अद्भुद एहसास है. जिनकी रचनाएं सरहदों में बंधी हुई नहीं हैं. अमृता की रचनाएं दोनों देशों (भारत और पाकिस्तान) में पसंद की जाती हैं. ठीक वैसे ही जैसे मंटों के कहानियां. भारत की महान साहित्यकार अमृता प्रीतम का आज जन्मशताब्दी वर्ष है. पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम को उनके 100 वें जन्मदिन पर गूगल ने डूडल बनाकर याद किया है. अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 को भारत के पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था, यह अब पाकिस्तान (Pakistan) का हिस्सा है. अमृता का बचपन लाहौर में बीता. अमृता ने काफी कम उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था और उनकी रचनाएं पत्रिकाओं और अखबारों में छपती थीं.
अमृता प्रीतम ने अपने जीवनकाल में सौ से ज्यादा पुस्तकें लिखीं जिनका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ. अमृता सिर्फ एक लेखिका नहीं थी, जो अपनी कल्पनाओं को कागज पर उतारे... अमृता राह दिखाने वाली एक मजबूत महिला थी. ब्रिटिश भारत में उन्होंने एक मजबूत महिला की तरह समाज के लिए काम किया. विभाजन के समय सीमाओं पर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की गंभीर वास्तविकता को सामने लाया उसके लिए लड़ी. पिंजर, सुनेरे और नागमणि ऐसी ही साहित्यिक कृतियां हैं जिनमे अमृता प्रीतम से उस समय की वास्तविकता को दर्शाया है.
विभाजन के दर्द और स्त्री के मन का आइना हैं इनकी रचनाएं
अमृता ने अपनी रचनाओं में भारत-पाकिस्तान विभाजन के दर्द और स्त्री के मन की अभिव्यक्ति को बखूबी उकेरा है. प्यार, दर्द, मिलना, बिछड़ना अपने जीवन की हर कड़ी को शब्दों में संजोकर उन्होंने अपनी जिंदगी जी. अमृता प्रीतम को आजादी के समय 1947 में लाहौर छोड़कर भारत आना पड़ा था और बंटवारे पर लिखी उनकी कविता 'अज्ज आखां वारिस शाह नूं' सरहद के दोनों ओर उजड़े लोगों की टीस को एक सामान रूप से बयां करती है कि दर्द की कोई सरहद नहीं होती.
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कागज के टुकड़ों पर लिखी दिल की दास्तां
बंटवारे के दौरान अमृता प्रीतम गर्भवती थी और वह भारत आई थीं. उस समय सरहद पर हर ओर बर्बादी का मंजर था. तब ट्रेन से लाहौर से देहरादून जाते हुए उन्होंने कागज के टुकड़े पर एक कविता लिखी. उन्होंने उन तमाम औरतों का दर्द बयान किया था जो बंटवारे की हिंसा में मारी गईं, जिनका बलात्कार हुआ, जिन्होंने अपनी अस्मत बचाने के लिए आत्महत्या की. यह रचना ना सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बहुत सराही गई.
साहिर और इमरोज से रिश्ता रहा बेहद खास
अमृता का जीवन कई बार मीडिया की सुर्खियां भी रहा. साहिर लुधियानवी (Sahir Ludhianvi) से उनके इश्क की चर्चे एक वक्त खूब फैले. अमृता ने किसी वजह से अपने पति को छोड़ दिया. उनके जीवन में फिर साहिर के रूप में खुशी आई. अमृता प्रीतम ने साहिर के लिए कई कविताएं लिखीं, लेकिन इनका साथ भी हमेशा का नहीं हो सका. फिर इमरोज (Imroz) (इंदरजीत सिंह) जो पेशे से चित्रकार थे अमृता की जिंदगी में आए और उम्र भर उनके साथ रहे.
अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में अमृता ने लिखा
अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' (Rasidi Ticket) की भूमिका में अमृता प्रीतम ने लिखा है, 'मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं. मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुईं. एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं.'
संघर्ष में मजबूत रहने वाली महिला
अमृता का जीवन संघर्ष और दर्द भरा रहा. लेकिन उन्होंने एक मजबूत महिला बनकर आखिरी समय तक जिंदगी को जिया. कमर उम्र में शादी होना, फिर विभाजन का दर्द. शादी-शुदा जिंदगी को छोड़ना हर कठिन फैसले उन्होंने अपने दम पर किए. दो बच्चों की मां होने के बाद साहिर से प्रेम किया, और फिर वक्त का संकेत समझकर साहिर को भी उन्होंने छोड़ दिया, लेकिन वह सम्मान के साथ हर रिश्ते से अलग हुईं. जीवन के आखिरी समय में सच्चा प्यार उन्हें इमरोज के रूप में मिला.
इमरोज ने अमृता के साथ प्रेम का वह रिश्ता निभाया जो न केवल मुश्किल है बल्कि आज के समय में लगभग नामुमकिन भी. इमरोज ने अभूतपूर्व तरीके से अमृता से अपना प्रेम निभाया. उन्हें यह मालूम था कि अमृता के मन में साहिर बसते थे. हालांकि बाद में अमृता को भी इमरोज में अपनी जिंदगी दिखी. अमृता कई बार इमरोज से कहतीं, "अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते." अमृता के जीवन में साहिर और इमरोज का बहुत खास स्थान है और अपनी आत्मकथा- 'रसीदी टिकट' में उन्होंने बेबाकी से इसका जिक्र किया है.