Rani of Jhansi, Lakshmibai Birth Anniversary: झांसी की रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lashmibai) का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 में हुआ था और उनकी म्रत्यु 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोठा-की-सेराई में हुई थी. बचपन में रानी लक्ष्मीबाई का नाम मणिकर्णिका था और उन्हें लोग प्यार से 'मनु' कहकर पुकारा करते थे. वाराणसी के घाट मणिकर्णिका (Manikarnika) के उपर उनका नाम रखा गया था, जहां माता सती के कान के कुंडल गिरे थे. जब लक्ष्मीबाई 4 साल की थी तभी उनकी माता भागीरथी सप्रे (Bhagirathi Sapre) की मृत्यु हो गई थी, जिसके बाद उनकी परवरिश उनके पिता मोरोपंत तांबे (Moropant Tambe) ने किया था. पेशवा शासक बाजी राव द्वितीय के घर में जन्मीं लक्ष्मीबाई का पालन-पोषण असामान्य ब्राह्मण लड़की की तरह हुआ था. सन 1842 में मणिकर्णिका की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से कर दी गई थी. शादी के बाद मणिकर्णिका को 'लक्ष्मीबाई' का नाम दिया गया था.
सन 1851 में लक्ष्मीबाई को एक पुत्र हुआ लेकिन 4 महीने बाद ही उसकी म्रत्यु हो गई. उसके बाद बिना उत्तराधिकारी को जन्म दिए ही वो विधवा हो गईं. 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया गया. रानी लक्ष्मीबाई 18 साल की उम्र में विधवा हो गई थी. हिंदू परंपरा के अनुसार, महाराजा ने अपनी मृत्यु से ठीक पहले एक लड़के को अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपनाया. भारत के ब्रिटिश गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने गोद (दत्तक) सिद्धांत के अनुसार गोद लिए हुए उत्तराधिकारी और झांसी को मान्यता देने से इनकार कर दिया. ईस्ट इंडिया कंपनी का एक एजेंट प्रशासनिक मामलों की देखभाल के लिए छोटे राज्य में तैनात था. गोद लिए गए बालक का नाम दामोदर रखा गया था. ब्रिटिश शासक ने दामोदर को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया था और वे झांसी को ब्रितानी राज्य में मिलाने का षड्यंत्र रचने लगे थे. 22 साल की रानी ने झांसी को अंग्रेजों को सौंपने से मना कर दिया.
साल 1857 में विद्रोह की शुरुआत के कुछ समय बाद झांसी में लक्ष्मी बाई के शासन की घोषणा की गई, और उन्होंने अपने नाबालिग उत्तराधिकारी की ओर से झांसी पर शासन किया. अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में शामिल होने के बाद, उसने तेजी से अपने सैनिकों को संगठित किया और बुंदेलखंड क्षेत्र में विद्रोहियों का प्रभार संभाला. पड़ोसी क्षेत्रों ने उनका समर्थन किया और उनकी ओर से विद्रोहियों से लड़े. देश के कुछ गद्दारों के कारण रानी लक्ष्मीबाई को शत्रुओं का सामना करना पड़ा. लक्ष्मीबाई ने बड़ी ही वीरता और साहस के साथ युद्ध किया और युद्ध के दूसरे ही दिन 18 जून 1858 में यह महानायिका वीरगति को प्राप्त हो गईं. इन सभी घटनाओं को कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने (Subhadra Kumari Chauhan) कविता का रूप दिया. कविता का शीर्ष रखा 'झांसी की रानी'. यह वो कविता है, जो लोगों के मन में जोश की भावना बढ़ा दें और क्रांति पैदा कर दें. पढ़ें झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के साहस और शौर्य पर लिखी कविता 'झांसी की रानी'.
कविता- झांसी की रानी
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
कानपूर के नाना की, मुहंबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झांसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियां छाई झांसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियां कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
बुझा दीप झांसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झांसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, तांतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुंवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
इनकी गाथा छोड़, चले हम झांसी के मैदानों में,
जहां खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुंचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुंह की खाई थी,
काना और मंदरा सखियां रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फांसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झांसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी॥
बता दें कि राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को प्रयाग में हुआ था. उनके पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह था. सुभद्रा कुमारी की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई प्रयाग में ही हुई थी. वे अपने बाल्यावस्था से ही देश-भक्ति की भावना से प्रभावित थीं. उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया था और एक से बढ़कर एक राष्ट्रवादी कविताएं लिखीं थी. वे विवाह के पश्चात सक्रिय राजनीति में भाग लेने लगीं. 43 साल की उम्र में एक हादसे में उनकी मृत्यु हो गई. सुभद्रा कुमारी द्वारा लिखी प्रमुख रचनाओं में 'मुकुल', कहानी संग्रह 'बिखरे मोती' और 'सीधे-सादे चित्र और चित्रारा' शामिल है. लेकिन उनके द्वारा रचित 'झांसी की रानी' उनकी बहुचर्चित रचना रही है.