Dr. Rajendra Prasad Jayanti 2023: जब डलिया, सूप लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंचें डॉ राजेंद्र प्रसाद! जानें उनके जीवन के ऐसे ही रोचक प्रसंग!
Rajendra Prasad Jayanti

सादगी, सेवा, समर्पण, त्याग और स्वतंत्रता आंदोलनों में अपना सर्वस्व जीवन समाहित करने वाले डॉक्टर राजेंद्र आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने के बाद भी अपनी मूल पहचान नहीं भुला सके थे. वह देश के एकमात्र राष्ट्रपति थे, जिन्होंने पद से हटने के बाद राष्ट्रपति भवन छोड़ने के पश्चात अपने जीवन के आखिरी दिन बिहार की उसी भूमि पर गुजारा, जहां उन्होंने जन्म लिया था. डॉ. राजेंद्र प्रसाद की 139 वीं जयंती पर आइये जानते हैं उनके जीवन के कुछ रोचक प्रसंग...

जन्म एवं शिक्षा

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म 03 दिसंबर 1884 को बिहार स्थित सारण (अब सीवान) के निवासी महादेव सहाय श्रीवास्तव और मां कमलेश्वरी के घर हुआ था. परिवार में माता-पिता, एक बड़े भाई और तीन बहनें थीं. मां अक्सर उन्हें महाभारत एवं रामायण की कहानियां सुनाती थीं. जब वे पांच साल के थे, उनके पिता ने उन्हें फारसी, हिंदी और अँकगणित सीखने के लिए एक मौलवी नियुक्त किया था. कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी.1907 में अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद 1909 में कुछ समय तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे, फिर वहीं प्रिंसिपल बन गये. इसके पश्चात वह गांधीजी के संपर्क में आये और स्वतंत्रता संग्राम की अग्नि में कूद पड़े.

किशोर वयः में राजेंद्र प्रसाद को खेलने-कूदने का बहुत शौक था, एक बार उनके पिताजी ने उन्हें एक छोटी-सी कुल्हाड़ी दे दी. राजेंद्र प्रसाद ने खेल-खेल में आम का पेड़ा काट डाला. पेड़ कटते ही लोगों ने उसे धमकाया कि वह पिताजी का सबसे प्रिय पेड़ था, अब तुम्हारी खैर नहीं. राजेंद्र प्रसाद भी डर गये, कि अब पिताजी उन्हें जरूर डांटेंगे. शाम को पिताजी दफ्तर से आये. आम के पेड़ की दशा देखकर वे बुरी तरह से भड़क गए. बोले ये पेड़ किसने काटा है? राजेंद्र प्रसाद ने डरते-डरते सोचा, चलो मैं झूठ बोलूंगो तो बच जाउंगा. लेकिन जब पिताजी ने पूछा तो वह झूठ बोलने का साहस नहीं कर सके. उन्होंने डरते-डरते कहा मैंने काटा है. राजेंद्र प्रसाद के मुंह से सच सुनकर वह खुश हो गये. उन्होंने कहा, तुमने सच बोलकर मेरा दिल जीत लिया. तुम जीवन पर्यंत सच बोलते रहना. तभी तुम जीवन में आगे बढ़ सकोगे.

उत्तर प्रदेश से बिहार आगमन

राजेन्द्र बाबू के पूर्वज मूलतः अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) कुआं गांव के रहनेवाले थे, जहां कायस्थों का बाहुल्य था. कुछ कायस्थ परिवार बलिया गये, लेकिन यहां भी रास नहीं आया तो वे सारन (बिहार) के एक गांव जीरादेई में चले गये, इन्हीं में एक परिवार राजेंद्र प्रसाद का था. सुशिक्षित एवं समृद्ध होने शीघ्र ही उन्हें हथुआ की रियासत मिल गई. करीब 30 साल तक वे इस रियासत के दीवान थे. कुछ समय के अंतराल के पश्चात राजेंद्र बाबू के पिता महादेव प्रसाद श्रीवास्तव ने कुछ और जमीन खरीद ली, और एक बड़े इलाके के जमींदार बन गए. यहीं पर डॉ राजेंद्र प्रसाद का बचपन बीता.

राष्ट्रपति बनने के बाद गांव पहुंचने पर दादी ने ये कहा!

राष्ट्रपति बनने के बाद राजेंद्र बाबू पहली बार गांव जीरादेई गये तो गांव वालों ने बाजे-गाजे के साथ उनका स्वागत किया. दादी का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया. दादी ने आशीर्वाद देते हुए कहा था, ‘सुनअ तनी कि बउवा बहुत बड़का आदमी बनअ गईल. जुग जुग जिय औरउ आगे बढ़अ. एतना बड़ आदमी जाई कि गांव में ज सिपाही रही ओकर से भी बड़ -उ बहुते तंग करत आ हमरा परिवार के’ (सुना कि तुम बहुत बड़े आदमी बन गए हो. जुग जुग जियो, और भी आगे बढ़ो. इतना बड़ा आदमी कि इस गांव में जो सिपाही है उससे भी बड़े आदमी, वह हमारे परिवार को बहुत परेशान करता है.

सिवान से राष्ट्रपति भवन पहुंचा था उनका ये भी सामान

राष्ट्रपति बनने के बाद राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति भवन शिफ्ट हुए. गांव से उनका सामान ट्रेन के जरिये दिल्ली लाया गया था. सामानों में मुख्य रूप से 2 सूटकेस थे, बाकी उनके घर के कुछ ऐसे समान थे, जो वह मोहवश लेकर आ रहे थे, जिसमें प्रमुख थे, बांस से बने सूप, डलिया, छलनी इत्यादि. गांव में इनका इस्तेमाल वे खेत से आये अनाज से भूसा, कंकड़ आदि निकालने लिए करते थे. उन्हें इन वस्तुओं से बहुत प्रेम था.