बिहार में जातियां अब एक खास कोड (अंक) से पहचानी जाएंगी. जाति आधारित गणना के लिए राज्य सरकार ने सभी जातियों के लिए नंबर निर्धारित कर दिए हैं.जातिगत आधार पर हो रही गणना की शुरुआत 15 अप्रैल से होगी, जो 15 मई तक चलेगी. इस दौरान कर्मी लोगों के दरवाजे पर पहुंचेंगे और उनसे उनकी जाति पूछेंगे. जाति बताते ही वे तय प्रारूप में उस कोड को अंकित कर देंगे, अर्थात उस अंक से ही जाति की पहचान तय होगी. बीते सात जनवरी को जाति आधारित गणना का प्रथम चरण प्रारंभ हुआ था.
बिहार: भारी-भरकम बजट फिर भी पढ़ाई में पीछे
बिहार सरकार ने इस कार्य के लिए 500 करोड़ रुपये की राशि का प्रावधान किया है. सरकार का कहना है कि इसके जरिए वह जातियों के वास्तविक आंकड़े पता कर रही है. इसके आंकड़े बजट तैयार करने में सहायक होंगे और इससे विकास का मार्ग प्रशस्त होगा. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद इसे लोगों की तरक्की और आर्थिक विकास के लिए जरूरी मानते हैं. उनका कहना है कि इससे सभी जाति-धर्म के लोगों की स्थिति अच्छी होगी और तभी राज्य आगे बढ़ेगा. विदित हो कि आजादी के बाद 2011 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र की कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने देशभर में जातिगत जनगणना की थी, किंतु 2014-15 में आंकड़े आने के बाद तकनीकी खामियों का हवाला देते हुए इसे सार्वजनिक नहीं किया गया. 2017 में भी केंद्र सरकार ने ओबीसी के बीच नए सिरे से वर्गीकरण करने के लिए एक आयोग का गठन किया था, जिसे छह माह में रिपोर्ट देने को कहा गया था. हालांकि, इसकी कोई रिपोर्ट सामने नहीं आई. 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना की जाती थी.
यादव का कोड 165 तो राजपूत का 169
सामान्य प्रशासन विभाग ने ऑनलाइन मोबाइल एप में 214 जातियों के लिए कोड जारी किया है. 01 नंबर अघोरी को तो 214 केवानी जाति को दिया गया है. जो जातियां इस सूची में शामिल नहीं हैं, उनके लिए कोड-215 होगा. ओबीसी में प्रमुख जातियों की बात करें तो कुर्मी-24, कोइरी-26, यादव-165, बनिया-122 कोड से गिने जाएंगे. सवर्णों में कायस्थ के लिए 21, ब्राह्मण के लिए 126, भूमिहार के लिए 142 व राजपूत के लिए 169 कोड तय किए गए हैं. इसी तरह शेख (मुस्लिम) 181 से पहचाने जाएंगे. वहीं, हिन्दू धोबी रजक 95 से तो मुस्लिम धोबी के लिए 96 कोड से जाने जाएंगे. गणना करने वाले कर्मी लोगों से जाति के साथ धर्म, परिवार, पेशा, शिक्षा समेत 17 सवाल पूछेंगे. इनमें 15 सवालों के लिए कोड निर्धारित कर दिया गया है. हिन्दू के लिए 01, इस्लाम के लिए 02 तो ईसाई के लिए 03 व सिख के लिए 04 तय किया गया है. इसी तरह कुंवारे को 01, विवाहित को 02 तो तलाकशुदा को 05 कोड दिया गया है, वहीं, ससुराल में रहने वाले दामाद 07 से जाने जाएंगे. जबकि, डॉक्टर को 25 तो वकील को कोड नंबर 28 दिया गया है.
उपजाति व टाइटल को लेकर संशय
जाति विशेष के लिए कोड जारी करने के बाद उपजाति और टाइटल को लेकर संशय की स्थिति है. उदाहरण के तौर पर एक कोड (21) तो कायस्थ जाति के लिए जारी किया गया है, किंतु एक अन्य कोड (206) के तहत हिंदू धर्म के दर्जी के उपनाम के रूप में श्रीवास्तव/ लाला/ लाल/ दर्जी प्रकाशित किया गया है. विदित हो कि बिहार में कायस्थ जाति अगड़ों (फॉरवर्ड) में आती है. कायस्थों की करीब 12 उपजातियां हैं. इन्हें लाला भी कहा जाता है. बंगाली कायस्थ को 205 कोड दिया गया है. इसी तरह लाल भी इनका टाइटल है. किन्नरों (ट्रांसजेंडर) का समूह भी खुद को जाति के रूप में निर्धारित किए जाने का विरोध कर रहा है. इनके लिए कोड 22 तय किया गया है. एक ही जाति की उपजातियों का अलग-अलग वर्गीकरण किया गया है. वैश्य जाति के साथ भी यही बात है. इसकी 50 से अधिक उपजातियां बताई जाती हैं, जिन्हें अलग-अलग जाति माना गया है. जाहिर है, जब इनकी गिनती अलग-अलग होगी तो इनकी संख्या में स्वाभाविक तौर पर कमी आ जाएगी. इसलिए उन्हें प्रभाव कम होने का खतरा सता रहा है.
आखिर क्यों व्यंग्य का पर्याय बन गया है बिहार?
पूर्व बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष डॉ संजय जायसवाल ने इसे लेकर आपत्ति भी की थी. राजनीति शास्त्र की अवकाश प्राप्त व्याख्याता सुमन सिंह कहती हैं, ‘‘अच्छी बात है कि इससे यह पता चल जाएगा कि किस जाति के कितने लोग हैं और उसी हिसाब से योजनाएं बनेंगी. लेकिन, अगर इसी हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगेगी तो उनका क्या होगा जिनकी संख्या कम है. फिर तो वे नीचे ही खिसकते चले जाएंगे. इससे आखिरकार हरेक जातियों के बीच खाई बढ़ेगी और इसका फायदा राजनीतिक पार्टियां उठाएंगी.'' आजादी के 75 साल बाद बिहार को सौ साल पीछे धकेलने की कोशिश की जा रही है. इसमें जातियों को इतने टुकड़ों में बांटा गया है कि हरेक को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी असल जाति क्या है. इसे लेकर सोशल मीडिया पर यूजर्स भी तीखी प्रतिक्रिया दे रहे हैं. उनका आरोप है कि हिंदू रीति-रिवाज और परंपरा से उलट सरकार तरह-तरह की भ्रांतियां फैला रही है. वहीं, कोई इसे साजिश बता रहा है. कोई कह रहा कि जातिवार गणना करनी ही है तो उपनामों-उपजातियों का इस तरह उपयोग कर भ्रांति नहीं फैलाना चाहिए.
क्या है इस गणना की वजह
जाति आधारित गणना के पक्ष में कहा जा रहा है कि 1951 से अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) का आंकड़ा प्रकाशित हो रहा है, किंतु अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) व अन्य जातियों का आंकड़ा नहीं उपलब्ध हो पाता है. इस कारण ओबीसी की वास्तविक आबादी का पता नहीं चल पाता है. 1990 में जब मंडल कमीशन की सिफारिश लागू की गई, तब उस समय 1931 की जनगणना के अनुसार देश में ओबीसी की जनसंख्या 52 फीसद होने का अनुमान लगाया गया था. जैसा कि सर्वविदित है कि बिहार की राजनीति में ओबीसी का खासा महत्व है. आज भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से लेकर महागठबंधन समेत तमाम पार्टियां इस वर्ग को ही ध्यान में रखकर राजनीति कर रही है. लालू प्रसाद यादव की आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) व नीतीश कुमार की जेडीयू (जनता दल यूनाइटेड), दोनों ही ओबीसी की सियासत की उपज हैं. इन्हें अब लगता है कि उनका दायरा बढ़ा है और इसका पता इस गणना से चल पाएगा. अगर यह सच हुआ तो आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा टूट सकती है और इसका फायदा उन्हें ही होगा जो जाति आधारित गणना के हिमायती होंगे. यही वजह है कि जानकार ओबीसी का वोट बैंक पुख्ता करने के लिए इसे नीतीश कुमार का मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं.
एक पूर्व मंत्री ने नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर कहा, ‘‘नीतीश कुमार को लगता है कि इस गणना के बाद वे खास-खास जातियों को टारगेट कर योजनाएं बनाएंगे, जिससे सत्ता पर उनकी पकड़ बरकरार रह सके. वे समझ रहे कि ओबीसी समुदाय के लोग इससे खुश हैं. हंगामा तो तब होगा जब इसकी रिपोर्ट आ जाएगी.'' वहीं भाजपा के राष्ट्रीय मंत्री ऋतुराज सिन्हा कहते हैं, ‘‘बिहारियों की पहचान को 215 टुकड़ों में विखंडित कर दिया गया है. जातीय राजनीति की मलाई खाने वाले अब अपना नया प्रपंच लेकर तैयार हैं. सामाजिक समरसता का ढोंग रचने वाली महागठबंधन की सरकार अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति से प्रेरित है.''
क्या सार्वजनिक हो सकेगी रिपोर्ट
जाहिर है, इस जातीय जनगणना को लेकर एक डर यह भी है कि कहीं कर्नाटक वाली स्थिति न उत्पन्न हो जाए. वहां 2014-15 में जाति आधारित गणना का फैसला हुआ, जिसे बाद में सामाजिक-आर्थिक सर्वे कहा गया और कंठराज समिति ने इसकी रिपोर्ट 2017 में सरकार सौंपी. लेकिन यह कवायद विवादों में घिर गई और कांग्रेस पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हुई. इससे वहां ओबीसी की संख्या में काफी बढ़ गई और लिंगायत व वोक्कालिगा जैसे प्रमुख वर्ग के लोगों की संख्या घट गई. आज तक यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है. यही हाल इससे पहले राजस्थान में हुआ. वहां भी 2011 में जातिगत जनगणना हुई, लेकिन उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि बिहार में चल रही इस जातिगत जनगणना की रिपोर्ट राज्य सरकार के अनुकूल नहीं हुई तो क्या इसे सार्वजनिक किया जाएगा. सनद रहे, बिहार में फिलहाल कांग्रेस पार्टी भी सत्तारूढ़ महागठबंधन का हिस्सा है.
अगड़े गरीबों को दस प्रतिशत आरक्षण देने के बाद से ओबीसी की आबादी के हिसाब से आरक्षण को नए सिरे से तय करने की मांग उठने लगी है. देश की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां जाति आधारित गणना के पक्ष में हैं, क्योंकि वे ओबीसी आधारित राजनीति ही करतीं हैं और वहीं उनका जनाधार भी है. वाकई, बिहार में शुरू हुई जाति आधारित यह कवायद निश्चय ही इस राजनीति को और हंगामेदार बनाने में मददगार होगी.