आईसीयू से कब बाहर निकलेगी बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था

कई प्रयासों के बावजूद आज भी बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएं लचर हाल में दिखती हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

कई प्रयासों के बावजूद आज भी बिहार में स्वास्थ्य सुविधाएं लचर हाल में दिखती हैं. भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की नई रिपोर्ट दिखाती है कि बिहार अभी भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से हर स्तर पर पीछे है.पटना का नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल. सोमवार, दिन के 10 बजे. रजिस्ट्रेशन काउंटर के पास लंबी कतार. बाहर खासी आपाधापी. हर परिजन की चिंता मरीज को लेकर जल्द से जल्द डॉक्टर के पास पहुंचने की. कतार में खड़े श्याम सुंदर राय कहते हैं, ‘‘सुबह नौ बजे से लाइन में हूं, पता नहीं कब नंबर आएगा. पत्नी को दिखाना है. उसे बाहर बैठाकर आया हूं. गांव भी लौटना है. यहां काउंटर की संख्या भीड़ के अनुसार कम है. इसे बढ़ाया जाना चाहिए.'' इतना सुनते ही उनसे आगे खड़े प्रणय कहते हैं, ‘‘रजिस्ट्रेशन के बाद तो डॉक्टर के चेम्बर के बाहर भी लाइन लगानी पड़ेगी. यहां तो इंतजार में ही काफी वक्त बीत जाता है. हर जगह लाइन ही लाइन.''

इसी अस्पताल का एक वार्ड. यहां भर्ती एक मरीज के अटेंडेंट संतोष कुमार कहते हैं, "अभी तो डॉक्टर का इंतजार है. राउंड पर आने वाले हैं. सीनियर डॉक्टर आ जाएं तो बड़ी बात. व्यवस्था कुल मिलाकर ठीक है, लेकिन नर्स और वार्ड व्वॉय से मनुहार करनी पड़ती है और उनकी झिड़की भी सुननी पड़ती है. खैर, किसी तरह मरीज ठीक हो जाए. हम गरीब लोग तो समझ भी नहीं पाते, क्या इलाज हो रहा."

जाहिर है, यह दर्द किसी एक मरीज या उसके परिजन का नहीं है. शायद इसलिए कहा जाता है कि किसी को कोर्ट-कचहरी या अस्पताल का चक्कर न लगे. वास्तव में यह चक्कर ही है. ऐसा नहीं है कि हाल के वर्षों में बिहार के स्वास्थ्य परिदृश्य में सुधार नहीं हुआ है. स्वास्थ्य सेवा तक आमजन की पहुंच बढ़ाने को निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं, किंतु राज्य की स्वास्थ्य सेवा पर भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट तो यही कहती है कि बिहार अभी भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानक से हर स्तर पर काफी पीछे है.

50 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य कर्मियों की कमी

बिहार में डॉक्टर, नर्स और अन्य स्वास्थकर्मियों की 50 प्रतिशत से अधिक की कमी है. विधानसभा में पेश की गई सार्वजनिक स्वास्थ्य के ढांचे और स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबंधन पर 2016-22 की अवधि के लिए रिपोर्ट में भी राज्य में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में कई गंभीर कमियों को उजागर किया गया है.

ज्यादातर अस्पतालों में जरूरी दवाएं नहीं थीं. कहीं ऑपरेशन थियेटर (ओटी) नहीं था तो कहीं टेक्नीशियन के नहीं होने या आईसीयू के काम नहीं करने के कारण वेंटिलेटर बेकार पड़ा था. कहीं ब्लड बैंक नहीं था तो कई सक्षम प्राधिकार द्वारा जारी लाइसेंस नहीं होने के कारण बंद पड़े थे. 25 एंबुलेंस की जांच के दौरान किसी भी में अनुबंध के अनुसार आवश्यक उपकरण, दवा या उपयोग की अन्य सामग्री नहीं थी. ऐसा नहीं था कि यह सब पैसे की कमी से हुआ. दरअसल, यह बदइंतजामी का परिणाम था कि राज्य सरकार ने 21,743 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किए.

2,148 लोगों पर एक डॉक्टर

बिहार में मार्च 2022 तक अनुमानित आबादी (12.49 करोड़) पर डब्ल्यूएचओ के अनुसार 1,24,919 चिकित्सकों की जरूरत थी. जबकि जनवरी 2022 तक राज्य में महज 58,144 एलोपैथिक चिकित्सक ही थे, जो मानक से 66,775 यानी 53 प्रतिशत और राष्ट्रीय औसत से 32 फीसद कम है. एक हजार की आबादी पर जहां एक डॉक्टर होना चाहिए, वहां बिहार में 2,148 लोगों पर एक चिकित्सक है. मार्च 2023 तक सरकारी अस्पतालों में 11,298 एलोपैथिक चिकित्सकों के स्वीकृत पदों के विरुद्ध 42 फीसद कम यानी 4,741 चिकित्सक ही पदस्थापित थे. अर्थात 6,557 चिकित्सकों के पद खाली थे.

सरकारी अस्पतालों में नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ की भी भारी कमी है. राज्य के विभिन्न जिलों में नर्स की कमी 18 से 75 प्रतिशत तक है, वहीं पैरामेडिकल स्टाफ की कमी 45 से 90 प्रतिशत तक है. महिला चिकित्सक डॉ. ममता कहती हैं, ‘‘पद तो खाली रहेंगे ही. यदि पति-पत्नी दोनों चिकित्सक हैं और उनकी पोस्टिंग आसपास के अस्पताल में की जानी है, किंतु एक को दूसरे से 80 किलोमीटर दूर फेंक दिया जाता है. ऐसी स्थिति में दोनों के पास नौकरी छोड़ने के अलावा क्या विकल्प है.'' फिर ग्रामीण या अद्र्ध शहरी इलाकों में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है. सुरक्षा व्यवस्था भी अहम मुद्दा है.

पीएचसी के भरोसे ग्रामीण आबादी

राज्य की बड़ी, खासकर ग्रामीण आबादी एचएससी (हेल्थ सब सेंटर) और पीएचसी (प्राइमरी हेल्थ सेंटर) के हवाले है. इसके अलावा एपीएचसी (एडिशनल प्राइमरी हेल्थ सेंटर), सीएचसी (कम्युनिटी हेल्थ सेंटर) बनाए गए हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के दिशा-निर्देशों के अनुसार 5000 की आबादी के लिए एक एचएससी, 30,000 की आबादी के लिए एक पीएचसी और एक लाख की आबादी के एक सीएचसी होना चाहिए. मार्च, 2022 तक राज्य में एचएससी की 57 तथा पीएचसी की 54 प्रतिशत कमी थी.

रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के 1932 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी) और एडिशनल प्राइमरी हेल्थ सेंटर (एपीएचसी) 856 सेंटर 24 घंटे कार्यरत नहीं थे. यानी 44 प्रतिशत हेल्थ सेंटर 24 घंटे काम नहीं कर रहे थे. केवल 566 अर्थात 29 प्रतिशत में प्रसव कक्ष और 276 (14 प्रतिशत) में ऑपरेशन थियेटर उपलब्ध था. इन सेंटरों पर शौचालय, पेयजल समेत अन्य मौलिक सुविधाओं की कमी भी पाई गई. 47 एसएच (सब-डिवीजनल हास्पिटल) में स्वास्थ्य देखभाल की आधारभूत संरचना तक नहीं थी. 399 पीएचसी को सीएचसी में अपग्रेड करना किया जाना था, किंतु 191 का ही निर्माण कार्य हो सका.

दवाओं की कमी और जलवायु परिवर्तन से बढ़ रही हैं सांप के काटने से होने वाली मौतें

सामाजिक कार्यकर्ता एस. के. शरण कहते हैं, ‘‘सरकार भले ही कितने दावे क्यों न कर लें, किंतु यह सच है कि एचएससी और पीएचसी में समय पर लोगों को डॉक्टर नहीं मिलते तो कभी दवाइयां नहीं मिलती. पता नहीं क्यों, अगर चिकित्सक होते भी हैं तो मरीज की स्थिति देख वे रेफर करना ही बेहतर समझते हैं. रेफर-रेफर का खेल तो जिलास्तरीय सदर अस्पताल में भी खूब चलता है.''

31 प्रतिशत राशि नहीं हुई खर्च

इस रिपोर्ट में सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में बड़ी चूक की ओर भी इशारा किया गया है. कहा गया है कि वित्तीय वर्ष 2016-17 और 2021-22 के बीच बिहार सरकार अपने कुल स्वास्थ्य बजट का 31 प्रतिशत खर्च नहीं कर सकी. इस अवधि में 69,790.83 करोड़ रुपये के कुल बजट प्रावधान का 69 प्रतिशत यानी 48,047.79 करोड़ ही खर्च किया गया. आशय यह कि 21,743.04 करोड़ रुपये की धनराशि का उपयोग नहीं किया जा सका.

बजट की राशि खर्च नहीं होने का कारण जिलों से समय पर डिमांड लेटर का प्राप्त नहीं होना बताया गया है. प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता ज्ञान रंजन कहते हैं, ‘‘सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि डॉक्टरों के आधे पद खाली हैं. जरूरी दवाइयां अस्पतालों में उपलब्ध नहीं है. राज्य सरकार बताए कि किन वजहों से वह इतनी बड़ी राशि क्यों नहीं खर्च कर सकी.''

रजिस्ट्रेशन के लिए प्रतीक्षा अवधि कम करने की अनुशंसा

सुबह नौ बजे जहानाबाद सदर अस्पताल में रजिस्ट्रेशन के बाद डॉक्टर चैंबर के बाहर खड़ी प्रमिला राय मगही मिश्रित हिन्दी में कहती हैं, ‘‘बहुत देर खड़े रहे तब जाकर बाहर पर्ची कटा, अब डॉ. साहब देख लें तब ना. किसी तरह पूछ-पूछ कर यहां तक आए हैं. कोई कुछ बताने वाला नहीं है.'' उनके साथ आए राजकिशोर कहते हैं, ‘‘जांच-एक्सरे या किसी भी चीज के लिए एक काउंटर है और भीड़ ज्यादा है. समय तो लगेगा ही. ऐसे अस्पताल पहले से ठीक हुआ है.''

वैसे अस्पतालों की स्थिति में सुधार के लिए सीएजी ने राज्य सरकार से 31 अनुशंसाएं की है, जिनमें स्वास्थ्य देखभाल इकाइयों में पर्याप्त संख्या में स्वास्थ्यकर्मियों की तैनाती, रजिस्ट्रेशन (पंजीकरण) काउंटर तथा कर्मचारियों की संख्या बढ़ाते हुए पंजीकरण के लिए प्रतीक्षा का समय कम करना, रेडियोलॉजी तथा एंबुलेंस सेवा आवश्यक मानव बल तथा उपकरणों के साथ संचालित करना, पर्याप्त धनराशि का आवंटन व व्यय में वृद्धि तथा दवाइयां व आवश्यक उपकरण उपलब्ध कराना प्रमुख हैं.

नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच) के वरीय चिकित्सक कहते हैं, ‘‘एक-एक ओपीडी में 200 तक मरीज आते हैं. उनमें अधिकतर नये होते हैं तो कुछ फालोअप के लिए आते हैं. अगर एक पर पांच मिनट भी दिया गया तो कुल 1000 मिनट अर्थात यहां 16 घंटे बैठना पड़ेगा. स्थिति की कल्पना कर सकते हैं आप. केवल इंफ्रास्ट्रक्चर जपने से कुछ नहीं होगा, बुनियादी सुविधाएं बढ़ाने के अलावा हर लेवल पर मानव संसाधन की उपलब्धता पर गंभीरता से ध्यान देना होगा.''

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