यह सच्चाई है कि हाथों में स्मार्टफोन और सुदूर इलाकों तक इंटरनेट की पहुंच के बावजूद कोलकाता और दिल्ली के अलावा छोटे-छोटे शहरों के सालाना पुस्तक मेलों में करोड़ों की किताबें बिकती हैं.इंटरनेट का प्रसार होने के बाद अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के भविष्य पर गहरी चिंता जताई गई थी. हालांकि अब भी देश और दुनिया में लाखों की तादाद में बिकने वाले अखबारों से साफ है कि छपी हुई चीजों की अहमियत अब भी बरकरार है. यह सही है कि इस पर ऑनलाइन का असर जरूर पड़ा है. खासकर जेन जी के युवा छपे हुए अखबारों की बजाय स्मार्टफोन पर खबरें पढ़ने को ही तरजीह दे रहे हैं. बावजूद इसके किताबों और डिजिटल युग में इन पुस्तक मेलों की प्रासंगिकता बनी हुई है.
पुस्तक मेले में करोड़ों रुपये का कारोबार
ऐसा नहीं होता तो जापानी लेखिका मुरासाकी शिकिबु की ओर से 11वीं सदी में लिखे दुनिया के पहले उपन्यास 'द टेल ऑफ जेनजी' को एक हजार साल बाद अब भी लोग दिलचस्पी के साथ नहीं पढ़ रहे होते. जाने-माने बांग्ला साहित्यकार शीर्षेंदु मुखर्जी कहते हैं कि अगर इंटरनेट से ही लोगों को संतुष्टि मिलती तो लोग अब भी इस पुस्तक को दिलचस्पी के साथ नहीं पढ़ रहे होते. 54 अध्याय वाला यह उपन्यास करीब एक हजार पेज का है.
बीते साल दिल्ली में आयोजित 31वें विश्व पुस्तक मेले में 15 करोड़ रुपये से ज्यादा का कारोबार हुआ था. मेले में 15 लाख से ज्यादा पाठक पहुंचे थे. राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की 93 हजार से ज्यादा किताबें बिकीं. इसी तरह कोलकाता के पुस्तक मेले में करीब 30 लाख पाठक पहुंचे और 25 करोड़ रुपये की किताबें बिकीं.
किताबें या ई-बुक्स धरती के लिए क्या बेहतर
कोलकाता में पुस्तकों के सबसे बड़े बाजार कॉलेज स्ट्रीट में बीते करीब छह दशकों से दुकान चलाने वाले गौतम दास डीडब्ल्यू को बताते हैं, "भीड़ पहले के मुकाबले भले कम हो गई है. किताबों के कद्रदान अब भी बड़ी तादाद में आते हैं. इस मामले में सरकार को तो ठोस कदम उठाना ही होगा. लेकिन इसके साथ ही आम लोगों में भी अपने बच्चों में बचपन से ही छपी हुई किताब पढ़ने के प्रति दिलचस्पी पैदा करनी होगी."
"किताबें, किताबें और किताबें"
इंटरनेट की सुलभता ने छपी हुई पुस्तक की बिक्री पर असर जरूर डाला है. लेकिन इनकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई है. विशेषज्ञों का कहना है कि जो संतोष और आनंद हाथ में छपी हुई किताब लेकर पढ़ने से मिलता है, वह स्मार्टफोन, टैब या लैपटाप से नहीं मिल सकता. मशहूर रूसी लेखक और वार एंड पीस जैसी कृति के रचयिता लियो टाल्स्टाय ने आम लोगों के जीवन में पुस्तकों के महत्व के संदर्भ में कहा था, "लोगों के जीवन में तीन चीजों की खास तौर पर जरूरत है, किताबें, किताबें और किताबें."
अब अक्सर सुनने को मिलता है कि युवा पीढ़ी में पुस्तकों के प्रति दिलचस्पी कम हो रही है. विशेषज्ञों की राय में इंटरनेट की सुलभता इसकी सबसे प्रमुख वजह जरूर है, लेकिन यही अकेली वजह नहीं है. इसके कई दूसरे कारण भी हैं. हालांकि अब तक किसी ने इसके कारणों की तह तक जाने की कोशिश नहीं की है.
साहित्यकार शीर्षेंदु मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'पागला गणेश' में इस बारे में लिखा है कि तकनीक पर बढ़ती निर्भरता का नतीजा सुखद नहीं होगा. लोगों की बातचीत और व्यवहार पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है. करीब चार दशकों तक एक कॉलेज में साहित्य पढ़ाने वाले सुकोमल हाजरा डीडब्ल्यू से कहते हैं, "आम लोगों में सृजनशीलता और एकाग्रता बढ़ाने के लिए पुस्तक से बेहतर कोई मित्र नहीं हो सकता. पुस्तकों से बढ़ती दूरी हमें आत्मकेंद्रित और स्वार्थी बनाते हुए लोगों से काट रही है."
वह बताते हैं कि सुभाष चंद्र बोस ने अपनी पुस्तक 'तरुणेर स्वप्न (युवा का सपना)' में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है कि मांडले जेल में रहने के दौरान पुस्तकों ने किस तरह उनका अकेलापन दूर करने में मदद की थी. कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर ने भी कहा था, "अच्छी पुस्तकें आत्मशुद्धि का सर्वोत्तम साधन हैं."
जन-जन तक किताब पहुंचाने की कोशिश
आम लोगों में पुस्तक पढ़ने की आदत को बढ़ावा देने के मकसद से केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने एक नेशनल बुक प्रमोशन पॉलिसी तैयार की है. इसके तहत अंग्रेजी समेत तमाम भाषाओं की पुस्तकों की छपाई बढ़ा कर उसे आम लोगों तक पहुंचाने की आसान तरकीब खोजी जाएगी. इसके तहत विभिन्न शहरी और कस्बाई इलाकों में बुक हब स्थापित करने के साथ ही केंद्रीय और राज्य के स्तर पर दो अलग-अलग बोर्ड गठन करने की बात कही गई है. इनका काम होगा वर्कशाप, सेमिनार और दूसरे कार्यक्रमों के आयोजन के जरिए लोगों में पुस्तक के प्रति दिलचस्पी पैदा करना और पढ़ने की आदत को बढ़ावा देना.
साहित्यकार शीर्षेंदु मुखर्जी इसे एक सकारात्मक पहल मानते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "मौजूदा पीढ़ी में मोबाइल के प्रति बढ़ती आसक्ति को ध्यान में रखते हुए परिवार के लोगों को बचपन से ही बच्चों में छपी हुई किताब पढ़ने की आदत विकसित करनी चाहिए. बुक हब के जरिए आर्थिक रूप से कमजोर प्रकाशकों को सहायता मिल सकती है."
लेखिका तिलोत्तमा मजूमदार भी शीर्षेंदु की बात से सहमत हैं. लेकिन वो कहती हैं कि सिर्फ बोर्ड या बुक हब की स्थापना से ही काम नहीं चलेगा. इस मामले में स्कूलों की भूमिका भी अहम है. उनको भी छात्रों में शुरू से ही इसकी आदत डालनी होगी.
कोलकाता पुस्तक मेले का आयोजन करने वाली संस्था पब्लिशर्स एंड बुकसेलर्स गिल्ड के अध्यक्ष त्रिदिब चटर्जी डीडब्ल्यू से कहते हैं, "बीते पांच साल में पुस्तकों की छपाई का खर्च कम से कम साढ़े तीन गुना बढ़ गया है. पहले छपाई के कागज पर इंसेंटिव मिलता था और बाल साहित्य और स्कूली किताबों पर करों में छूट दी जाती थी. लेकिन अब हर चीज पर यहां तक कि लेखकों की रायल्टी पर भी जीएसटी देना पड़ता है. पुस्तकों की बढ़ती कीमतों ने भी पाठकों को उनसे दूर किया है."