भारत में महिला नेताओं के शरीर और चरित्र पर जुबानी हमले होते रहे हैं. कंगना रनौत और ममता बनर्जी पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणियां इसकी ताजा मिसाल हैं. लेकिन महिलाओं पर ऐसे हमले क्यों होते हैं और यह स्थिति कैसे बदल सकती है?पिछले दिनों फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत पर की गई एक आपत्तिजनक टिप्पणी काफी चर्चा में रही. बीजेपी ने उन्हें हिमाचल प्रदेश की मंडी लोकसभा सीट से प्रत्याशी बनाया. इसके बाद कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत के इंस्टाग्राम अकांउट से उन पर एक आपत्तिजनक पोस्ट की गई. हालांकि, बाद में सुप्रिया ने वह पोस्ट हटा दी. उन्होंने सफाई दी कि पोस्ट उन्होंने नहीं, बल्कि उनके अकाउंट का एक्सेस रखने वाले किसी और शख्स ने की थी.
इस मामले पर विवाद जारी ही था कि पश्चिम बंगाल से बीजेपी सांसद दिलीप घोष ने राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर विवादित टिप्पणी कर दी. उन्होंने कहा, "दीदी (ममता बनर्जी) गोवा में खुद को गोवा की बेटी बताती हैं, त्रिपुरा जाकर खुद को त्रिपुरा की बेटी बताती हैं. उन्हें पहले अपने पिता की पहचान करनी चाहिए."
भले ही चुनाव आयोग ने संज्ञान लेकर इन बयानों पर चेतावनी दी है, लेकिन ये दोनों मामले रेखांकित करते हैं कि किस तरह महिला नेताओं को अपमानित करने का प्रयास किया जाता है. ऐसी टिप्पणी करने वालों में समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तक शामिल रहे हैं.
महिला नेताओं के चरित्र पर हमले क्यों?
प्रियंका चतुर्वेदी शिवसेना (उद्धव गुट) से राज्यसभा सांसद हैं. पिछले साल उन्हें भी ऐसे एक बयान का सामना करना पड़ा था. उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी से कहा, "पुरुष प्रधान देश में जब महिलाएं बाधाओं को तोड़ती हैं, तो उन पर लांछन लगाना सबसे आसान होता है. क्योंकि वो जानते हैं कि ये महिलाओं का सबसे कमजोर पक्ष है. ये सिर्फ भारत नहीं, बल्कि विदेशों में भी होता है."
पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और बसपा प्रमुख मायावती जैसी वरिष्ठ नेताओं पर भी व्यक्तिगत हमले होते रहे हैं. मार्च की शुरुआत में स्मृति ईरानी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर "पति चोर" कहकर ट्रोल किया गया था. 2020 में सोनिया गांधी के जन्मदिन पर "बार डांसर डे" ट्रेंड कर रहा था. वहीं, 2016 में उत्तर प्रदेश के मौजूदा परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह ने मायावती की तुलना "वेश्या" से की थी.
वरिष्ठ पत्रकार मनीषा पांडेय दैनिक भास्कर में फीचर एडिटर हैं और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर मुखरता से लिखती हैं. वह कहती हैं, "औरतों के चरित्र और शरीर पर हमले सिर्फ राजनीति में नहीं होते, पूरे समाज में ऐसा हो रहा होता है. जिस तरह समाज में महिलाओं के साथ बर्ताव किया जाता है, वैसा ही राजनीति में हो रहा है."
महिला नेता कैसे दें जवाब?
महिला नेताओं को कई बार बेहद निचले स्तर के बयानों का भी सामना करना पड़ता है. 2019 लोकसभा चुनावों के दौरान सपा नेता आजम खान ने भाजपा नेता जया प्रदा का नाम लिए बगैर उनके अंडरवियर पर टिप्पणी कर दी थी. इस टिप्पणी के लिए आजम खान पर 2,000 रुपए का जुर्माना लगाया गया था.
मनीषा पांडेय कहती हैं, "महिला नेताओं को इन बयानों से ज्यादा प्रभावित नहीं होना चाहिए. उन्हें यह समझना चाहिए कि बयान देने वाले की यही सीमा है. बिना गुस्सा हुए और गरिमापूर्ण तरीके से इनका जवाब देना चाहिए." वहीं, प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, "इन लोगों को किसी भी तरह का महत्व देना यह दिखाना है कि उनके बयानों ने हमें प्रभावित किया है. लेकिन अगर ऐसे बयान वरिष्ठ नेताओं की तरफ से आते हैं, तो उनका जवाब देना चाहिए."
इस तरह के बयान पर संतुलित जवाब देने का एक उदाहरण इतिहास में भी मौजूद है. अमर उजाला की एक खबर के मुताबिक, 1962 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर सीट से जनसंघ के उम्मीदवार थे. कांग्रेस ने उनके खिलाफ स्वतंत्रता सेनानी रहीं सुभद्रा जोशी को उतारा था. प्रचार अभियान के दौरान जोशी अक्सर कहती थीं कि सांसद बनने पर वो बारह महीने, महीने के तीसों दिन और चौबीस घंटे जनता की सेवा के लिए उपलब्ध रहेंगी.
इस पर बाजपेयी ने कहा था, "सुभद्रा जी कहती हैं कि वह महीने के तीसों दिन मतदाताओं की सेवा करेंगी. मैं पूछता हूं, कैसे करेंगी? महीने में कुछ दिन तो महिलाएं सेवा करने लायक रहती ही नहीं हैं." इसके जवाब में जोशी ने कहा था कि इस अपमान का बदला वह नहीं, बल्कि उनके मतदाता लेंगे. परिणाम आने पर उनकी बात सही साबित हुई और वाजपेयी चुनाव हार गए.
महिलाएं क्यों देती हैं ऐसे बयान?
कई बार महिलाएं भी दूसरी महिला नेताओं पर अभद्र टिप्पणी करती हैं. जैसा सुप्रिया श्रीनेत और कंगना वाले मामले में हुआ. कंगना खुद भी पहले ऐसी टिप्पणी कर चुकी हैं. उन्होंने एक इंटरव्यू में अभिनेत्री और कांग्रेस नेता उर्मिला मातोंडकर को "सॉफ्ट पॉर्न स्टार" कहा था. इस पर मनीषा पांडेय कहती हैं, "औरतों की मानसिकता भी वही है. वे भी इसी समाज में पली-बढ़ी हैं. उनको भी सबसे आसान यही लगता है कि दूसरी महिला के शरीर पर हमला किया जाए."
वहीं, प्रियंका चतुर्वेदी का मानना है कि महिलाओं में एकजुटता होनी चाहिए. अपनी राजनीति से ऊपर उठकर यह मंशा होनी चाहिए कि हम इस तरीके की भाषा को कतई सहन नहीं करेंगे.
कैसे आएगा बदलाव?
राज्यसभा में शिवसेना (उद्धव गुट) की उपनेता प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, "अगर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा,तो इस तरह की सोच भी कम होगी. इसके लिए उन्हें संसद और विधानसभाओं में भेजें. शहरों में वॉर्ड स्तर और गांवों में पंचायत स्तर पर अधिक मौके दें. संगठनों में उनकी ताकत बढ़ाएं."
मनीषा पांडेय भी इस बात से सहमति जताती हैं. वह कहती हैं, "संसद में महिलाओं की संख्या जितनी ज्यादा बढ़ेगी, उतना ज्यादा बदलाव आएगा. उनकी उपस्थिति से ही चीजें धीरे-धीरे बदलने लगेंगी." वह आगे कहती हैं, "चीजें बदली भी हैं. कई साल पहले विधानसभा के अंदर जयललिता की साड़ी खींची गई थी. उन पर हमला किया गया था, लेकिन आज कोई भी किसी महिला को संसद या विधानसभा के अंदर हाथ नहीं लगा सकता. समाज बदलाव और बेहतरी की तरफ जा रहा है. आगे चीजें और बदलेंगी."