बहू को टीवी देखने, पड़ोसियों से मिलने और अकेले मंदिर जाने की अनुमति न देना क्रूरता नहीं है: बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक 20 साल पुरानी सजा को रद्द करते हुए कहा कि मृतका के खिलाफ उसके ससुराल वालों द्वारा किए गए आरोप, जैसे टीवी न देखने देना, अकेले मंदिर न जाने देना और कार्पेट पर सोने के लिए मजबूर करना, मानसिक और शारीरिक क्रूरता के तहत नहीं आते.

बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में 20 साल पुराना आदेश रद्द करते हुए एक आदमी और उसके परिवार को अपनी मृत पत्नी के खिलाफ क्रूरता के आरोपों से मुक्त कर दिया. कोर्ट ने कहा कि महिला को टीवी देखने, अकेले मंदिर जाने, पड़ोसियों से मिलने और गली में सोने जैसी बातें क्रूरता के तहत नहीं आतीं, क्योंकि ये कार्य अत्यधिक गंभीर नहीं थे.

क्या था मामला? 

यह मामला उन आरोपों से जुड़ा था जिसमें महिला के परिवार ने दावा किया था कि महिला के ससुरालवालों ने उसे मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार बनाया. आरोप थे कि महिला को टीवी देखने से रोका गया, अकेले मंदिर जाने से मना किया गया, उसे गली में सोने के लिए मजबूर किया गया, और यहां तक कि रात में पानी लाने के लिए भी कहा गया. महिला के परिवार का कहना था कि इन शोषणों के कारण महिला ने आत्महत्या कर ली थी.

कोर्ट ने क्यों रद्द किया फैसला? 

कोर्ट ने कहा कि ये आरोप सामान्य घरेलू मामलों से जुड़े थे और इनका कोई गंभीर प्रभाव नहीं था. कोर्ट ने यह भी कहा कि जिन बातों को क्रूरता के रूप में पेश किया गया, जैसे कि गली में सोना या टीवी न देखना, वे शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न के रूप में नहीं मानी जा सकतीं. कोर्ट ने कहा कि "क्रूरता" का मतलब केवल मानसिक या शारीरिक हिंसा से नहीं होता, बल्कि यह एक सापेक्ष (relative) अवधारणा है, जो हर स्थिति में अलग हो सकती है.

क्या था अंतिम फैसला? 

कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि आरोपों के बावजूद मृतका के परिवार के पास कोई ठोस सबूत नहीं था जो यह साबित कर सके कि आरोपी परिवार ने लगातार और गंभीर तरीके से महिला के खिलाफ क्रूरता की. इससे यह साबित नहीं होता कि महिला के आत्महत्या के पीछे ससुरालवालों का कोई सीधा हाथ था. इसके बाद, बॉम्बे हाई कोर्ट ने 20 साल पुराने फैसले को रद्द कर दिया और आरोपी परिवार को निर्दोष करार दिया.

कोर्ट की टिप्पणी 

कोर्ट ने यह भी कहा कि "सिर्फ गली में सोने को क्रूरता नहीं माना जा सकता." कोर्ट का यह निर्णय इस बात को रेखांकित करता है कि क्रूरता का हर मामला अलग होता है और केवल कुछ सामान्य घरेलू असहमति या किसी को टीवी देखने से रोकने जैसे मुद्दों को न्यायालय में क्रूरता के रूप में नहीं लिया जा सकता. कोर्ट ने यह भी कहा कि आरोपों में कोई "गंभीरता" नहीं है और ये सामान्य घरेलू मसले थे, जो आईपीसी की धारा 498A के तहत क्रूरता का मामला नहीं बनाते.

बॉम्बे हाई कोर्ट का यह आदेश घरेलू शोषण और क्रूरता के मामलों में एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हर छोटी बात को क्रूरता के रूप में नहीं देखा जा सकता और यह आरोप तब तक प्रभावी नहीं होते जब तक उन पर ठोस सबूत न हों. यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज को भी यह संदेश देता है कि घरेलू मामलों में संवेदनशीलता और वास्तविकता का ख्याल रखा जाना चाहिए.

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