इंदौर, 15 नवंबर: कोरोना संक्रमण का असर इंदौर (Indore) में लगभग 200 साल से चली आ रही हिंगोट युद्ध की परंपरा पर भी पड़ा है. प्रशासन ने इस बार हिंगोट युद्ध की अनुमति नहीं दी है और यही कारण है कि इस बार लोगों को हिंगोट युद्ध देखने को नहीं मिलेगा. इंदौर के करीब स्थित गौतमपुरा (Gautampura) में बीते दो शताब्दी से हिंगोट युद्ध का आयोजन होता आ रहा है, यह पर्व दीपावली के अगले दिन होता है. इसकी तैयारियां कई माह पहले से शुरु हो जाती है. इस बार कोरोना संक्रमण के चलते आयोजन की अनुमति नहीं दी गई है. बीते दो शताब्दी में पहली बार ऐसा मौका आया है जब यह युद्ध नहीं होगा.
गौतमपुरा थाने के प्रभारी आरसी भास्करे ने आईएएनएस (IANS) को बताया है कि कोरोना के कारण इस युद्ध की अनुमति नहीं दी गई है क्योंकि इस आयोजन को देखने हजारों लोग पहुंचते हैं और बीमारी के फैलने का खतरा है. ज्ञात हो कि इंदौर मध्य प्रदेश में कोरोना को लेकर हॉटस्पॉट बना हुआ है. यहां अब तक लगभग साढ़े 35 हजार मामले सामने आ चुके है और सात सौ से ज्यादा लोगों क मौत हेा चुकी है. यह भी पढ़े: Madhya Pradesh: मध्य प्रदेश पुलिस ने कंप्यूटर बाबा के खिलाफ इंदौर में दर्ज की FIR.
इस युद्ध की शुरूआत की अपनी कहानी है. बताया जाता है कि रियासत काल में गौतमपुरा क्षेत्र में सुरक्षा करने वाले लड़ाके मुगल सेना के दुश्मन घुड़सवारो के ऊपर हिंगोट से हमला करते थे और अपने इलाके में आने से रोकते थे. बाद में यह परंपरा धार्मिक मान्यताओं से जुड़ती गई और तब से यह लगातार जारी है. इस युद्ध में दो गांव गौतमपुरा व रुणजी की टीमें आमने-सामने होती हैं. एक कलंगी और दूसरा तुर्रा. दोनों ही दल एक-दूसरे पर हिंगोट के जलते हुए गोले बरसाते हैं और एक दूसरे को परास्त करने में नहीं चूकते. इस युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में लोग घायल होते रहे हैं. यह भी पढ़े: कोविड-19 : इंदौर में मरीजों की संख्या 4,373 पर पहुंची, अब तक 201 मरीजों की मौत
हिंगोट युद्ध की दो माह पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं. हिंगोट नाम का एक फल होता है जो नारियल जैसा होता है. इस फल को सुखाने के बाद उसे खोखला किया जाता है और उसके भीतर बारूद भरी जाती है. साथ ही एक हिस्से में बाती लगाई जाती है और उसे पतली लकड़ी के सहारे एक दूसरे की तरफ फेंकते हैं.
कुल मिलाकर यह हिंगोट का गोला राकेट की तरह दूसरे की तरफ जाता है. युद्ध के दौरान आकाश में बारूद के गोले उड़ते नजर आते हैं. इस बार कोरोना के कारण यह परंपरा टूट गई है और स्थानीय लोगों में मायूसी भी है.