ग्लोबल तो बन गया सुपर फूड मखाना पर खाली हाथ हैं किसान

बीते सालों में बिहार का मखाना बड़ी तेजी से आम लोंगों से लेकर कुलीन लोगों तक के खाने में शामिल हुआ है.

देश Deutsche Welle|
ग्लोबल तो बन गया सुपर फूड मखाना पर खाली हाथ हैं किसान
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

बीते सालों में बिहार का मखाना बड़ी तेजी से आम लोंगों से लेकर कुलीन लोगों तक के खाने में शामिल हुआ है. भारत से बाहर भी इसे सुपरफूड का दर्जा मिल रहा है लेकिन इसे उगाने वाले किसान आज भी बदहाल हैं.जेन-जी का मनपसंद स्नैक्स और दुनिया भर में सुपर फूड बना फॉक्सनट या मखाना इस बार भारत के बजट में अहम स्थान पर रहा. प्रोटीन, एंटीऑक्सीडेंट और कई पोषक तत्वों से भरपूर मखाना बेहतर इम्युनिटी बूस्टर भी है, जिसमें नाम मात्र की वसा होती है.

दुनिया भर में मखाने की बढ़ी मांग

भारत मखाने का सबसे बड़ा उत्पादक देश है. घरेलू तथा वैश्विक बाजार में इसकी मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. फिलहाल बिहार का मखाना अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, इंग्लैंड, कनाडा, फ्रांस और खाड़ी देशों में निर्यात किया जाता है. इसका बोटैनिकल नेम यूरीएल फेरॉक्स है.

देश का 80 प्रतिशत मखाना बिहार के मिथिला और कोसी-सीमांचल क्षेत्र के करीब 40 हजार हेक्टेयर इलाके में होता है. अब इसकी खेती उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में भी हो रही है. खेती के लिए ज्यादातर वेटलैंड (जल-जमाव वाले क्षेत्र) का इस्तेमाल होता है.

दरभंगा के मखाना किसान श्याम सहनी बाते हैं कि दो से तीन-चार फीट की गहराई में जमा पानी इसकी खेती के लिए उपयुक्त होता है. जिस तरह धान की रोपाई के लिए उसके बीज (छोटे पौधे) तैयार किए जाते हैं, उसी तरह नवंबर के महीने में मखाने की नर्सरी तैयार की जाती है. दिसंबर से अप्रैल के बीच इसकी बुआई होती है, जिसमें पौधे को मिट्टी में दबाया जाता है.

इसके पत्ते प्लेट की तरह पानी की सतह पर रहते है. रोपाई के करीब दो महीने बाद बैंगनी रंग के फूल पौधों पर आते हैं. करीब 40-50 दिन बाद फल पक कर फूटते हैं और मखाना का बीज नीचे बैठने लगता है. इन्हीं बीजों को चुन कर निकाला जाता है.

जुलाई तक फसल तैयार हो जाती है. बीज को सुखाने के बाद सफाई-छंटाई कर भूना जाता है और फिर उसे तोड़ कर मखाना निकाला जाता है. इसके बाद साइज के अनुसार उसकी ग्रेडिंग की जाती है.

बिहार में 25,000 किसान उगाते हैं मखाना

एक आंकड़े के मुताबिक राज्य के दस जिलों के 3,393 गांवों में करीब 25000 किसान मखाने की खेती से जुड़े हैं. अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार में 50-60 हजार टन मखाना बीज और करीब 23-25 हजार मीट्रिक टन मखाना का उत्पादन किया जा रहा है. अमूमन, एक किलो मखाना बीज से 400 ग्राम तक ही मखाना निकल पाता है.

बिहार में पैदा होने के बावजूद यहां इसकी कीमत 1,000 से 1,400 रुपये प्रति किलोग्राम तक रहती है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह आठ से दस हजार रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है. अगस्त, 2022 में मिथिलांचल मखाना को जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) टैग मिला था.

मखाना के बढ़ते बाजार पर बिहार राज्य मत्स्यजीवी सहकारी संघ के प्रबंध निदेशक ऋषिकेश कश्यप कहते हैं, ‘‘मखाना के उत्पादों की कई किस्में बाजार म�, 650, 420);" title="Share on Twitter">

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ग्लोबल तो बन गया सुपर फूड मखाना पर खाली हाथ हैं किसान
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

बीते सालों में बिहार का मखाना बड़ी तेजी से आम लोंगों से लेकर कुलीन लोगों तक के खाने में शामिल हुआ है. भारत से बाहर भी इसे सुपरफूड का दर्जा मिल रहा है लेकिन इसे उगाने वाले किसान आज भी बदहाल हैं.जेन-जी का मनपसंद स्नैक्स और दुनिया भर में सुपर फूड बना फॉक्सनट या मखाना इस बार भारत के बजट में अहम स्थान पर रहा. प्रोटीन, एंटीऑक्सीडेंट और कई पोषक तत्वों से भरपूर मखाना बेहतर इम्युनिटी बूस्टर भी है, जिसमें नाम मात्र की वसा होती है.

दुनिया भर में मखाने की बढ़ी मांग

भारत मखाने का सबसे बड़ा उत्पादक देश है. घरेलू तथा वैश्विक बाजार में इसकी मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. फिलहाल बिहार का मखाना अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, इंग्लैंड, कनाडा, फ्रांस और खाड़ी देशों में निर्यात किया जाता है. इसका बोटैनिकल नेम यूरीएल फेरॉक्स है.

देश का 80 प्रतिशत मखाना बिहार के मिथिला और कोसी-सीमांचल क्षेत्र के करीब 40 हजार हेक्टेयर इलाके में होता है. अब इसकी खेती उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में भी हो रही है. खेती के लिए ज्यादातर वेटलैंड (जल-जमाव वाले क्षेत्र) का इस्तेमाल होता है.

दरभंगा के मखाना किसान श्याम सहनी बाते हैं कि दो से तीन-चार फीट की गहराई में जमा पानी इसकी खेती के लिए उपयुक्त होता है. जिस तरह धान की रोपाई के लिए उसके बीज (छोटे पौधे) तैयार किए जाते हैं, उसी तरह नवंबर के महीने में मखाने की नर्सरी तैयार की जाती है. दिसंबर से अप्रैल के बीच इसकी बुआई होती है, जिसमें पौधे को मिट्टी में दबाया जाता है.

इसके पत्ते प्लेट की तरह पानी की सतह पर रहते है. रोपाई के करीब दो महीने बाद बैंगनी रंग के फूल पौधों पर आते हैं. करीब 40-50 दिन बाद फल पक कर फूटते हैं और मखाना का बीज नीचे बैठने लगता है. इन्हीं बीजों को चुन कर निकाला जाता है.

जुलाई तक फसल तैयार हो जाती है. बीज को सुखाने के बाद सफाई-छंटाई कर भूना जाता है और फिर उसे तोड़ कर मखाना निकाला जाता है. इसके बाद साइज के अनुसार उसकी ग्रेडिंग की जाती है.

बिहार में 25,000 किसान उगाते हैं मखाना

एक आंकड़े के मुताबिक राज्य के दस जिलों के 3,393 गांवों में करीब 25000 किसान मखाने की खेती से जुड़े हैं. अनुमान के मुताबिक हर साल बिहार में 50-60 हजार टन मखाना बीज और करीब 23-25 हजार मीट्रिक टन मखाना का उत्पादन किया जा रहा है. अमूमन, एक किलो मखाना बीज से 400 ग्राम तक ही मखाना निकल पाता है.

बिहार में पैदा होने के बावजूद यहां इसकी कीमत 1,000 से 1,400 रुपये प्रति किलोग्राम तक रहती है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह आठ से दस हजार रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है. अगस्त, 2022 में मिथिलांचल मखाना को जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) टैग मिला था.

मखाना के बढ़ते बाजार पर बिहार राज्य मत्स्यजीवी सहकारी संघ के प्रबंध निदेशक ऋषिकेश कश्यप कहते हैं, ‘‘मखाना के उत्पादों की कई किस्में बाजार में उपलब्ध है. मखाना खीर, मखाना मोमो, चाट, इडली, कटलेट, समोसा, रोस्टेड मखाना, मखाना कुल्फी और बर्फी को लोग काफी पसंद कर रहे हैं. बिहार के अलावा दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में भी इसकी मांग बढ़ गई है.''

जीआई टैग से कितना फायदा

मखाना को जीआई टैग मिलने से उम्मीद बंधी थी कि किसानों को मार्केटिंग में फायदा होगा और उनकी अर्थव्यवस्था सुधरेगी. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में मखाना की विशेष ब्रांडिंग से उन्हें उपज का अधिकतम मूल्य मिलने में मदद मिलेगी.

हालांकि स्थिति यह है कि किसानों को आज भी मखाने की फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. बड़े व्यापारी और बिचौलिए ही इसका मूल्य तय करते हैं. पत्रकार अमित झा बताते हैं, ‘‘मखाना उपजाने वाले किसान बमुश्किल मुनाफा कमा पाते हैं. प्रसंस्करण, भंडारण और सप्लाई चेन की दिक्कतों की वजह से उन्हें पर्याप्त आर्थिक लाभ नहीं मिल पाता है. फिर, एमएसपी वाले खाद्य पदार्थों की सूची में भी मखाना शामिल नहीं है.''

किसान से तीन से पांच सौ रुपये प्रति क्विंटल के दर से खरीद कर बिचौलिए व व्यापारी इसे पांच से छह हजार रुपये प्रति क्विंटल तक बेच देते हैं. जब तक सरकार इसकी एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं करेगी, तब तक किसान के लिए नुकसान का खतरा बना ही रहेगा. बिहार सरकार राज्य में इसकी खेती को बढ़ावा देने के लिए बागवानी मिशन के तहत मखाना विकास योजना चला रही है. इसके जरिए 75 प्रतिशत तक की सब्सिडी दी जा रही है.

कितना कारगर होगा मखाना बोर्ड

मखाना के उत्पादन, प्रसंस्करण, मूल्य संवर्धन और बेहतर मार्केटिंग के लिए सरकार ने मखाना बोर्ड बनाने का निर्णय लिया है. इस साल के केंद्रीय बजट में मखाना बोर्ड का प्रावधान किया गया है. इससे उत्पादकों और कारोबारियों को लाभ की उम्मीद है.

राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. इंदु शेखर सिंह कहते हैं, ‘‘बोर्ड के बनने से किसानों की ट्रेनिंग, प्रोडक्ट डेवलपमेंट तथा निर्यात में सहायता मिलेगी.'' डॉ सिंह ने यह भी कहा कि छोटे-छोटे किसान भी अब आधुनिक मशीनों का प्रयोग कर मखाना के उत्पादन और प्रसंस्करण क्षेत्र में स्वावलंबी बनेंगे और उन्हें मखाने का उचित मूल्य मिल सकेगा. इसके अलावा भारी संख्या में रोजगार का सृजन होगा.

बिहार में बेकार पड़े 9.12 लाख हेक्टेयर वेटलैंड में मखाना उत्पादन की संभावना बढ़ेगी. इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में मखाना उत्पादन से जुड़े किसान असंगठित तरीके से काम कर रहे हैं. बोर्ड का गठन होने से किसान उत्पादन के साथ-साथ प्रसंस्करण, वैल्यू एडिशन तथा मार्केटिंग खुद कर सकेंगे.

पांच हजार करोड़ का कारोबार

मखाना कारोबारी मनीष आनंद कहते हैं, ‘‘बोर्ड के गठन के बाद किसान और व्यापारी तक को प्रोडक्ट की शुद्धता से लेकर व्यापार तक के लिए किसी पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा. पिछले दस साल में मखाना का कारोबार पांच हजार करोड़ से ज्यादा का हो गया है. उम्मीद है मखाना देश के बड़े ब्रांडों में से एक बन सकेगा.''

बढ़ते सुपर फूड बाजार में विदेशी निवेशकों के लिए भी कई तरह के अवसर उपलब्ध होंगे, जिससे बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा आएगी. बिहार में सत्ताधारी जेडीयू के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा कहते हैं, ‘‘स्वास्थ्यवर्धक मखाना मिथिलांचल का एक प्रमुख कृषि उत्पाद ही नहीं, बल्कि उसकी पहचान भी है. दुनिया में तेजी से इसकी मांग बढ़ रही है. ऐसे में मखाना बोर्ड की स्थापना की घोषणा निश्चय ही एक क्रांतिकारी कदम है।''

मखाना उगाने वाले रामबली साहनी का कहना है, ‘‘मखाना किसानों और इससे जुड़े व्यवसाय के लोगों के लिए मखाना बोर्ड का गठन अमृत साबित होगा. उन्नत पैदावार के लिए ट्रेनिंग और नई टेक्नोलॉजी की जानकारी मिलेगी तथा उत्पादन में तेजी लाने के लिए संसाधनों की कमी भी नहीं रहेगी.''

क्या हैं किसानों की चुनौतियां

मखाना उगाने में बिहार अग्रणी है, किंतु किसानों के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं. जानकार बताते हैं कि तकनीकी प्रशिक्षण की कमी के कारण प्रति हेक्टेयर तीन-साढ़े तीन टन की बजाय किसान डेढ़-दो टन ही उपजा पाते हैं. उन्हें मौसम की मार भी झेलनी पड़ती है. तेज धूप से पत्तियों को नुकसान पहुंचता है और पानी का स्तर भी कम हो जाता है.

इसकी खेती में नवाचार से अभी भी अधिकतर किसान अनजान हैं. उन्हें सरकारी योजनाओं की भी जानकारी नहीं है. यह जानकारी उन्हें सरकार सेआर्थिक मदद दिला सकती है.

फसल की बिक्री के लिए व्यवस्थित सप्लाई चेन का ना हो पाना किसानों के बिचौलियों पर निर्भर रहने का कारण बनाता है. उन्हें उचित मूल्य भी नहीं मिलता. स्टोरेज की उचित व्यवस्था नहीं होने और प्रोसेसिंग यूनिट की कमी के कारण उन्हें कंपनियों को अपना माल कम कीमत पर बेचना पड़ता है.

विश्व का 90 फीसदी मखाना भारत में पैदा होता है. मखाना को पश्चिमी देशों में बेचने में कई तरह की चुनौतियों पेश आती हैं. खाद्य सुरक्षा व संरक्षा के ग्लोबल क्वालिटी स्टैंडर्ड के कड़े मानकों के कारण निर्यात सीमित है. मैनुअल तरीका अपनाए जाने के कारण मखाने की साइज में एकरूपता नहीं होने से भी दिक्कतें आती हैं. कई बार निर्यात के लिए भेजी गई खेप भी रिजेक्ट कर दी जाती है.

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