कश्मीर में चिनारों को बचाने के लिए हो रही है जियो टैगिंग
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

कश्मीर के इतिहास और संस्कृति के प्रतीक चिनार को बचाने के लिए अब जियो टैगिंग तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है.कश्मीर में चिनार के पेड़ों को संरक्षित करने और उनकी बेहतर देखरेख के लिए एक बड़ी पहल शुरू की गई है. हजारों चिनार पेड़ों की जियो-टैगिंग की जा रही है ताकि इनके बारे में एक विस्तृत डेटाबेस तैयार किया जा सके. यह कदम शहरीकरण, सड़कों के चौड़ीकरण और बीमारियों से हो रहे नुकसान को रोकने के लिए उठाया गया है.

चिनार के पेड़ कश्मीर की संस्कृति और पर्यावरण का महत्वपूर्ण प्रतीक माने जाते हैं. हालांकि, पिछले कुछ दशकों में सैकड़ों चिनार पेड़ खत्म हो गए हैं.

जियो-टैगिंग के तहत प्रत्येक चिनार पेड़ पर एक क्यूआर कोड लगाया जा रहा है. इस कोड में पेड़ के स्थान, आयु, स्वास्थ्य और बढ़ने के पैटर्न सहित 25 प्रकार की जानकारियां दर्ज की गई हैं. इससे पर्यावरणविद् इन पेड़ों के बदलावों पर नजर रख सकेंगे और खतरे के कारकों को दूर कर सकेंगे.

परियोजना के प्रमुख सैयद तारिक ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "अब तक हमने लगभग 29,000 चिनार पेड़ों की जियो-टैगिंग की है. छोटे आकार के कुछ पेड़ अभी टैग नहीं किए गए हैं. इन्हें जल्द ही टैग किया जाएगा."

जनता भी इन पेड़ों पर लगाए गए क्यूआर कोड को स्कैन करके इनके बारे में विस्तृत जानकारी हासिल कर सकेगी.

चिनार के पेड़ों का महत्व

चिनार के पेड़ पूरी तरह विकसित होने में लगभग 150 सालों का समय लेते हैं. यह पेड़ 30 मीटर (100 फीट) की ऊंचाई तक और 10 से 15 मीटर (30 से 50 फुट) तक के घेराव तक बढ़ सकते हैं.

क्षेत्र का सबसे पुराना चिनार श्रीनगर के बाहरी इलाके में स्थित है और यह लगभग 650 साल पुराना है. इसे दुनिया का सबसे पुराना चिनार माना जाता है. चिनार के पेड़ कश्मीर के इतिहास और संस्कृति से जुड़े हुए हैं. कुछ पेड़ों की उम्र 300 से 700 साल के बीच है. हालांकि पिछले कुछ दशक इन पेड़ों के लिए दर्दनाक रहे हैं. अनदेखी से गुजर रहे इन पेड़ों को कटाई का संकट भी झेलना पड़ा है.

सोनमर्ग और लद्दाख को जोड़ने वाली सुरंग चालू

एक रिपोर्ट के मुताबिक श्रीनगर में ही पिछले कुछ सालों में 50 से ज्यादा चिनार काट दिए गए. पुराने दस्तावेजों के मुताबिक 1947 से पहले राज्य में चिनारों की संख्या 45 हजार से ज्यादा थी. लेकिन 1980 के बाद इनकी संख्या काफी कम हुई है. 2017 में हुई गिनती के मुताबिक राज्य में 35 हजार से ज्यादा चिनार हैं. इनमें वे भी हैं, जिन्हें हाल ही में रोपा गया. हाल के दिनों में पेड़ों की देखभाल पर ज्यादा ध्यान दिया गया है. 2020 में स्थानीय प्रशासन ने चिनार दिवस भी मनाना शुरू किया था. सैकड़ों नए पेड़ रोपे गए.

तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल

तारिक ने बताया, "हमने एक अल्ट्रासोनोग्राफी आधारित उपकरण (यूएसजी) का उपयोग शुरू किया है, जो बिना मानवीय हस्तक्षेप के खतरे के स्तर को माप सकता है. यह उपकरण मानवीय जांच की आवश्यकता को खत्म करेगा और पेड़ों के जोखिम कारकों का मूल्यांकन करेगा."

कश्मीर ने दशकों तक हिंसा झेली है, लेकिन हाल के वर्षों में स्थिति में सुधार हुआ है. इसके चलते पर्यटन और विकास परियोजनाओं में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है.

पिछले हफ्ते भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर का दौरा किया और एक सुरंग का उद्घाटन किया. उन्होंने कहा कि क्षेत्र में कई सड़क और रेल परियोजनाएं जल्द पूरी की जाएंगी. इस पहल से चिनार के पेड़ों को संरक्षित करने और कश्मीर की समृद्ध पर्यावरणीय धरोहर को बनाए रखने में मदद मिलेगी.

जियो-टैगिंग से पेड़ों का संरक्षण

जियो-टैगिंग का इस्तेमाल दुनियाभर में पेड़ों, जंगलों और जैव विविधता के संरक्षण और प्रबंधन के लिए किया जा रहा है. केन्या के नैरोबी में शहरी पेड़ों के बेहतर प्रबंधन और संरक्षण के लिए जियो-टैगिंग का उपयोग किया गया. ग्रीन बेल्ट मूवमेंट, जिसे नोबेल पुरस्कार विजेता वांगारी मथाई ने शुरू किया था, ने जीपीएस तकनीक का उपयोग करके शहरी और ग्रामीण पेड़ों की जानकारी दर्ज की. इस डेटा ने शहर को विकास परियोजनाएं पेड़ों को नुकसान पहुंचाए बिना योजना बनाने में मदद की.

अमेजन के वर्षावनों में कटाई पर नजर रखने में जियो-टैगिंग और सैटेलाइट मॉनिटरिंग सिस्टम का खूब उपयोग किया गया. ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच जैसे संगठन और स्थानीय समुदाय अवैध कटाई की पहचान करने, वनों की कटाई पर नजर रखने और संरक्षित क्षेत्रों की निगरानी के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं. यह डेटा अधिकारियों को तुरंत हस्तक्षेप करने और महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा करने में मदद करता है.

भारत में भी, बेंगलुरू और हिमाचल में जियो टैगिंग बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुई है. बेंगलुरु में, 'से ट्रीज' नामक एक समाजसेवी संस्था ने जियो-टैगिंग का उपयोग करके एक वृक्ष जनगणना की और एक लाख से ज्यादा पेड़ों का डेटा जमा किया गया ताकि उनकी सेहत, प्रजातियों की विविधता और आयु जैसे आंकड़ों का एक डेटाबेस. इस डेटाबेस ने स्थानीय अधिकारियों को उन क्षेत्रों की पहचान करने में मदद की जहां पेड़ घट रहे थे और नए वृक्षारोपण की जरूरत थी.

हिमाचल प्रदेश में जियो-टैगिंग का उपयोग सेब के पेड़ों को मैप करने और उनकी उत्पादकता का पता लगाने के लिए किया गया. इस डेटा ने किसानों को बेहतर खेती के तरीकों को अपनाने और बगीचों की देखभाल में मदद की.

लंदन, सिंगापुर और कैलिफॉर्निया जैसे शहरों में भी पेड़ों की जियोटैगिंग की गई है. इस तकनीक के कई फायदे हैं. एक तो इससे पेड़ों की हर वक्त निगरानी की जा सकती है. टैगिंग से अधिकारियों को बीमारियों, अवैध कटाई या विकास परियोजनाओं से खतरे में पड़े पेड़ों की पहचान करने में मदद मिलती है. एक बड़ा फायदा यह है कि जियो टैगिंग से जनता को डेटा तक पहुंच मिलती है और संरक्षण में उनकी भागीदारी बढ़ाता है. साथ ही, जियो-टैगिंग डेटाबेस से पर्यावरण के अनुकूल शहरी और ग्रामीण विकास में मदद मिलती है.