देश की खबरें | राष्ट्रपति चुनाव: जब परिणाम निश्चित और संदेश होते हैं महत्वपूर्ण

नयी दिल्ली, 26 जून राष्ट्रपति चुनाव में पहला वोट डाले जाने से पहले ही परिणाम लगभग निश्चित है और विरोधी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार के जरिए अपनी राजनीति के इर्द-गिर्द केंद्रित व्यापक संदेश देने के लिए इस तरह के चुनावी मुकाबले का अकसर उपयोग करते हैं।

वर्ष 2012 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के खिलाफ पी ए संगमा को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस उम्मीद के साथ प्रत्याशी बनाया था कि पूर्वोत्तर के एक प्रत्याशी का समर्थन कर उसे क्षेत्र में कुछ राजनीतिक लाभ मिलेगा।

वहीं, के. आर नारायणन और ए पी जे अब्दुल कलाम क्रमश: 1997 तथा 2002 में ऐसे उम्मीदवार थे कि मुख्य विपक्षी दल को उनका समर्थन करना पड़ गया था।

पूर्व राजनयिक नारायणन अनुसूचित जाति से थे। वह संयुक्त मोर्चा सरकार और कांग्रेस के उम्मीदवार थे तथा उन्हें विपक्षी भाजपा का भी समर्थन हासिल था। जब भाजपा ने सत्ता में रहने के दौरान कलाम जैसे प्रख्यात वैज्ञानिक को उम्मीदवार बनाया, तब कांग्रेस ने उनका समर्थन किया।

साधारण पृष्ठभूमि की आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का उम्मीदवार बनाकर भाजपा अपनी प्रतिनिधिक राजनीति के बारे में एक व्यापक संदेश देने में सफल होती नजर आ रही है क्योंकि उनके (मुर्मू के) भारत के प्रथम एसटी (अनुसूचित जनजाति) राष्ट्रपति बनने की पूरी संभावना है।

उल्लेखनीय है कि भाजपा ने 2017 में मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाया था जो दलित समुदाय से आते हैं।

इस बार, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस तथा वाम दल जैसे भाजपा के अन्य धुर विरोधियों ने पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाकर क्या कोई महत्वपूर्ण संदेश दिया है?

राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि सिन्हा का समर्थन करने का कांग्रेस का फैसला क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल बिठाने की उसकी इच्छा का संकेत देता है क्योंकि विपक्ष 2024 के आम चुनाव की तैयारी करना चाहता है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर मनिंद्र नाथ ठाकुर ने कहा कि मौजूदा नेतृत्व के खिलाफ बगावत करने वाले भाजपा के एक पूर्व नेता को अपना उम्मीदवार बनाने का विपक्ष का फैसला यह संदेश देने का प्रयास प्रतीत होता है कि वर्तमान सरकार के जो भी खिलाफ हैं उन्हें एकजुट होना चाहिए।

ठाकुर ने सिन्हा (84) को थका हुआ राजनीतिक नेता बताया, जिनका व्यापक जनाधार नहीं रहा है। हालांकि, उनकी छवि साफ-सुथरी है।

सिन्हा नौकरशाह रह चुके हैं। वह ऊंची जाति से आते हैं, जबकि मुर्मू ओडिशा के सबसे पिछड़े क्षेत्र से आने वाली एक आदिवासी महिला हैं।

ठाकुर ने कहा कि विपक्ष किसी दलित या मुस्लिम उम्मीदवार को उतारकर इस बार प्रयोग कर सकता था, जब भाजपा समाज के सर्वाधिक वंचित तबकों के लिए अपनी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की विचारधारा में एक जगह होने का संदेश देकर प्रतिनिधिक राजनीति करने जा रही है।

उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि भारतीय जनता पार्टी के आलोचकों ने प्राय: आरएसएस (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ)-भाजपा को ब्राह्मणवादी विचारधारा रखने वाले ऐसे गठजोड़ के तौर पर प्रायोजित करने की कोशिश की है, जो ‘‘दलित-विरोधी, आदिवासी-विरोधी और मुस्लिम-विरोधी’’ है।

उन्होंने कहा कि लेकिन सत्तारूढ़ दल ने इस अभियान को नाकाम कर दिया है।

ठाकुर ने कहा कि भाजपा द्वारा कोविंद को उम्मीदवार बनाए जाने से उसके (भाजपा के) खिलाफ उठने वाली ज्यादातर दलित आवाज बंद हो गई, वहीं मुर्मू को उम्मीदवार बनाकर आदिवासियों के बीच भी यही संदेश देने की कोशिश की गई है। हालांकि, पार्टी को पहले से ही आदिवासियों के एक तबके का समर्थन मिल रहा है। उन्होंने कहा कि यह समर्थन अब और मजबूत होने की संभावना है।

(यह सिंडिकेटेड न्यूज़ फीड से अनएडिटेड और ऑटो-जेनरेटेड स्टोरी है, ऐसी संभावना है कि लेटेस्टली स्टाफ द्वारा इसमें कोई बदलाव या एडिट नहीं किया गया है)