अटलांटिक के किनारे बसे कई देशों में मछुआरे मछली की घटती संख्या से जूझ रहे हैं. ज्यादा मछली निकाले जाने की वजह से उनकी आजीविका खतरे में पड़ गई है. इन सब के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है.सुंदर ताजी मछलियों से भरी हुई टोकरियां, कई लोगों के लिए मुंह में पानी लाने वाला नजारा पैदा कर सकती हैं. अफ्रीका के अटलांटिक तट पर भी कभी इस तरह की मछलियां काफी ज्यादा मिलती थीं, लेकिन अब शायद ही ऐसा दृश्य देखने को मिलता है. वर्षों से जारी मछली पकड़ने के गलत तरीकों और काफी ज्यादा मछली पकड़ने की वजह से समुद्री किनारे तेजी से तबाह हो गए.
पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने का काम करने वाले मछुआरे मछली खोजने और अपने परिवार का पेट चलाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. जबकि, विशाल ट्रॉलरों के जरिए बड़े पैमाने पर मछली पकड़ने वाली कंपनियां अपने कारोबार को बचाए रखने के लिए नए-नए तरीकों का ईजाद कर रही हैं, जो कि अक्सर विनाशकारी होता है. ऐसे में स्थानीय मछुआरों के लिए किसी तरह का स्थायी समाधान मिलना मुश्किल होता जा रहा है. ऊपर से, जलवायु संकट ने उनकी स्थिति और खराब कर दी है.
इस सप्ताह मोरक्को के रबात में आयोजित संगोष्ठी में प्रतिनिधियों ने जैव विविधता के संरक्षण के साथ-साथ मछली पकड़ने के विनाशकारी तरीकों को खत्म करने के उपायों पर चर्चा की. एटीएलएएफसीओ (अटलांटिक महासागर की सीमा से लगे अफ्रीकी देशों के बीच मत्स्य सहयोग पर मंत्री स्तर का सम्मेलन) में कुछ स्थानीय मछुआरे भी शामिल हुए, जो इस बदलती स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं.
30 वर्षों से अधिक समय से बेनिन की खाड़ी में मछली पकड़ रहे 50 वर्षीय बर्टिन ने पुराने दिनों को याद करते हुए कहा, "जलीय बल्बों को पानी के नीचे रखने के लगभग दस मिनट बाद जालों में मछलियां भर जाती थीं.” कुछ साल पहले तक जब स्थिति सामान्य थी, तो बर्टिन के लिए मछली पकड़ना एक आकर्षक व्यवसाय हुआ करता था.
खतरनाक तरीकों का इस्तेमाल
आज कल बर्टिन और उनके साथी मछुआरे असहाय महसूस करते हैं, क्योंकि वे बड़े विदेशी जहाजों को समुद्र में मछली पकड़ते हुए देखते हैं. ये जहाज उनके हिस्से की मछलियों को भी पकड़ लेते हैं.
जबकि, बर्टिन और उनके जैसे अन्य मछुआरे आज भी डोंगी और छोटे जहाजों की मदद से समुद्र में जाते हैं. मछली पकड़ने की यह प्रतियोगिता डेविड बनाम गोलियथ के खेल की तरह दिखती है.
मछली पकड़ने में मछुआरों की मदद करती हैं डॉल्फिन, मगर क्यों?
हालांकि, सिर्फ एक यही समस्या नहीं है. घाना के तट पर वर्षों से लगातार काफी ज्यादा मछली पकड़ने की वजह से पिछले पंद्रह वर्षों में पकड़ी जाने वाली मछलियों की मात्रा लगभग आधी हो गई है. बर्टिन जैसे मछुआरे को यह नहीं पता कि भविष्य में उनकी आजीविका कैसे चलेगी.
मछली पकड़ने वाली बड़ी विदेशी कंपनियों की तरह ही अब घाना और उसके पड़ोसी देश के स्थानीय मछुआरे भी तेजी से नए तरीके ईजाद कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, घाना के मछुआरे अब मछलियों को जहर दे रहे हैं. रात में मछलियां मारने के लिए डायनामाइट का भी इस्तेमाल कर रहे हैं.
बर्टिन ने कहा, "घाना में मैंने लोगों को ओमो नामक साबुन पाउडर जैसे रसायनों का उपयोग करते देखा है. कुछ डायनामाइट जैसे तरीकों का भी उपयोग करते हैं.”
स्थानीय लोग भी हैं समस्या की वजह
ये तरीके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं और इसलिए कानूनी तौर पर मान्य नहीं हैं. इस वजह से, अपनी आजीविका को सुरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे बर्टिन जैसे मछुआरों की शिकायतों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे और अन्य स्थानीय मछुआरे अपनी असुरक्षित और हानिकारक उपायों की वजह से समस्या का हिस्सा बन गए हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ केप कोस्ट में अफ्रीका सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन कोस्टल रेजिलिएंस के शोधकर्ता रोड्रिग पेलेबे ने जोर देकर कहा कि डायनामाइट और रसायनों का इस्तेमाल, समुद्री या जलीय वातावरण को नष्ट कर देता है. ये पहले से ही खराब हो चुकी स्थिति को और बदतर बना रहे हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "इससे कोरल (प्रवाल) का नुकसान होता है. साथ ही, कोरल रीफ (प्रवाल भित्तियों) में जैविक पारिस्थितिक संतुलन को प्रभावित करता है और पूरी खाद्य श्रृंखला को अस्त-व्यस्त कर देता है. जब अधिकारी इन अवैध तरीकों पर नकेल कसते हैं, तब भी मछुआरे समुद्र के तल को खंगालने के नए तरीके खोजते रहते हैं.”
पेलेबे ने विस्तार से बताया, "वे अब भी गलत तरीकों का ईजाद कर रहे हैं, ताकि जो थोड़ी-बहुत मछलियां बची हुई हैं उन्हें पकड़ सकें.” उन्होंने जोर देते हुए कहा कि वर्षों से इन तरीकों से होने वाले नुकसान का सटीक आकलन करने के लिए कई अध्ययन किए जा रहे हैं.
पेलेबे ने कहा कि मछलियों की घटती संख्या इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि इन विनाशकारी तरीकों का कितना गंभीर असर हुआ है. स्थानीय मछुआरे अब भी अपने उपायों और तरीके के विनाशकारी परिणाम को नहीं समझ रहे हैं और अपने पेशे को नियंत्रित करने वाले नियमों की अनदेखी कर रहे हैं.
समस्या सिर्फ स्थिरता का नहीं है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, 27 लाख लोग, यानी घाना की कुल आबादी का करीब 10 फीसदी हिस्सा मछली पकड़ कर ही अपनी आजीविका चला रहे हैं. इसके अलावा, घाना में प्रोटीन का 60 फीसदी हिस्सा मछली और समुद्री जीवों से मिलता है. इस समुद्री संकट की वजह से न सिर्फ समुद्र तल सूख रहे हैं, बल्कि खाद्य आपूर्ति की समस्या भी बढ़ती जा रही है.
अंतहीन दुष्चक्र
रबात में संगोष्ठी के दौरान, सभी प्रतिभागियों ने सैद्धांतिक रूप से वर्तमान स्थिति से निपटने के उपायों की तलाश करने पर सहमति व्यक्त की, क्योंकि सिर्फ पश्चिमी अफ्रीकी तट से ही हर साल करीब 2.3 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है.
एटीएलएएफसीओ सहयोग और सूचना प्रणाली के प्रमुख अब्देनाजी लामरिच ने कहा कि मौजूदा स्थिति का आकलन करने और समस्या को खत्म करने के लिए बेहतर निगरानी तंत्र की जरूरत है. उन्होंने कहा, "अफ्रीकी देशों को स्थानीय मछुआरों के इन हानिकारक तरीकों और अवैध मछली पकड़ने के खिलाफ भी लड़ना चाहिए.”
इसके बाद, काफी ज्यादा मछली पकड़ने के तरीकों पर आसानी से रोक लगाई जा सकती है. पश्चिमी अफ्रीकी देशों के आर्थिक समुदाय (ईसीओडब्ल्यूएएस) के कार्यक्रम निदेशक अमादौ टाल ने कहा कि स्थानीय मछुआरों के बीच हानिकारक तरीकों की पहचान करना, विदेशी जहाजों द्वारा अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र में शुरू किए गए नए उपायों की पहचान करने की तुलना में ज्यादा आसान है.
हालांकि, टाल ने जोर देकर कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि स्थानीय मछुआरे किसी ऐसी समस्या के लिए बलि का बकरा बना दिए जाएं जो कहीं अधिक जटिल है.
टाल के मुताबिक, अवैध, अघोषित और अनियमित तरीके से मछली पकड़ना मुख्य समस्या है. हर साल करीब 2.6 करोड़ टन मछलियां इन तरीकों से पकड़ी जाती हैं. चूंकि ये तरीके काफी दूर समुद्र में अपनाए जाते हैं, जो किसी देश की अधिकार सीमा से बाहर होते हैं. इसलिए, उन्हें नियंत्रित करना लगभग असंभव है. हालांकि, मीलों दूर समुद्र में होने वाली इन गतिविधियों के तरंग का असर किनारे पर महसूस किया जाता है. इन अवैध तरीकों से काफी ज्यादा मछली पकड़ने का सीधा प्रभाव ग्रामीण तटीय आबादी पर पड़ता है. वे इससे सबसे अधिक पीड़ित होते हैं.
स्थानीय मछुआरों के दुष्चक्र की यही विडम्बना है कि मछली का अपना हिस्सा पाने के लिए वे तेजी से हानिकारक तरीकों की तलाश कर रहे हैं. इसका असर यह हुआ है कि अटलांटिक तट वाला पश्चिमी अफ्रीकी हिस्सा रेगिस्तान की तरह दिखने लगा है.