COVID-19: कोविड-19 संबंधी शुरुआती अनुसंधान खराब तरीकों से किए गए जिनके निम्न-गुणवत्ता वाले परिणाम रहे

कोविड-19 वैश्विक महामारी की शुरुआत में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए कोरोनावायरस संबंधी अध्ययन पत्रिकाओं में बड़ी संख्या में प्रकाशित हुए.

Covid-19 (Photo Credits: Twitter)

ह्यूस्टन (अमेरिका), 25 फरवरी : कोविड-19 वैश्विक महामारी की शुरुआत में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए कोरोनावायरस संबंधी अध्ययन पत्रिकाओं में बड़ी संख्या में प्रकाशित हुए. कई प्रकाशन संस्थाओं ने कोविड-19 संबंधी अनुसंधान पत्रों की स्वीकृति दर को अपेक्षाकृत अधिक रखा. उस समय धारणा यह थी कि नीति निर्माता और आमजन बड़ी मात्रा में तेजी से प्रसारित जानकारी के बीच से वैध और उपयोगी शोध की पहचान करने में सक्षम होंगे. ‘गूगल स्कॉलर’ में सूचीबद्ध सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी शीर्ष 15 पत्रिकाओं में 2020 में प्रकाशित 74 कोविड-19 पत्रों की समीक्षा करने पर मैंने पाया कि इनमें से कई अध्ययनों के दौरान निम्न गुणवत्ता वाले तरीकों का इस्तेमाल किया गया था. चिकित्सा जगत संबंधी पत्रिकाओं में प्रकाशित अध्ययनों की कई अन्य समीक्षाओं से भी यह पता चला है कि कोविड-19 के शुरुआती दौर में इस महामारी संबंधी अनुसंधान के लिए निम्न स्तर की पद्धतियों का इस्तेमाल किया गया था.

इनमें से कुछ कोविड-19 अनुसंधान पत्रों का कई बार हवाला दिया गया. उदाहरण के लिए, ‘गूगल स्कॉलर’ पर सूचीबद्ध सबसे अधिक उद्धृत सार्वनजिक स्वास्थ्य प्रकाशन संस्था ने 1,120 लोगों के नमूने के आंकड़ों का उपयोग किया. इन लोगों में मुख्य रूप से शिक्षित युवा महिलाएं शामिल थीं, जिन्हें तीन दिनों में सोशल मीडिया के जरिए अनुसंधान में शामिल किया गया था. अपनी सुविधा से चुने गए एक छोटे नमूने पर आधारित निष्कर्ष बड़े पैमाने पर आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते. इसके बावजूद इस अध्ययन को 11,000 से अधिक बार उद्धृत किया गया. यह भी पढ़ें : Sudarshan Setu: देश के सबसे लंबे ‘सुदर्शन सेतु’ ब्रिज के उद्घाटन के बाद पीएम मोदी ने सोशल मीडिया पर शेयर की फोटो, कहा- पर्यटन को मिलेगा बढ़ावा (View Pics)

पद्धति मायने रखती है

मैं सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े मामलों पर शोध करता हूं और मेरी अनुसंधान की गुणवत्ता एवं सत्यनिष्ठा में लंबे समय से रुचि रही है. यह रुचि इस विश्वास में निहित है कि विज्ञान ने महत्वपूर्ण सामाजिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं को हल करने में मदद की है. टीके जैसे सफल सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों के बारे में गलत सूचना फैलाने वाले विज्ञान विरोधी आंदोलन के विपरीत, मेरा मानना है कि तर्कसंगत आलोचना विज्ञान के लिए अहम है.

शोध की गुणवत्ता और सत्यनिष्ठा काफी हद तक उसकी पद्धति पर निर्भर करती है. वैध और उपयोगी जानकारी प्रदान करने के लिए अध्ययन के हर डिज़ाइन में कुछ विशेषताएं होनी आवश्यक हैं.

समान पत्रिकाओं में प्रकाशित गैर-कोविड-19 पत्रों और कोविड-19 पत्रों की तुलना करने वाले अध्ययनों में पाया गया कि कोविड-19 पत्रों में कम गुणवत्ता वाली पद्धतियां अपनाई गईं .

एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि कोविड-19 संबंधी 686 पत्रों को जमा करने से लेकर उनकी स्वीकृति तक का औसत समय 13 दिन रहा, जबकि सामान्य पत्रिकाओं में प्रकाशित महामारी के पूर्व के 539 पत्रों में यह अवधि 110 दिन थी. मैंने अपने अध्ययन में पाया कि जिन दो ऑनलाइन पत्रिकाओं ने पद्धति के आधार पर कमजोर कोविड-19 पत्रों को बड़ी संख्या में प्रकाशित किया, विशेषेज्ञों से उनका विश्लेषण कराए जाने की अवधि मात्र तीन सप्ताह थी.

प्रकाशित करो या नष्ट हो जाओ की संस्कृति

गुणवत्ता नियंत्रण की यह समस्या कोविड-19 महामारी से पहले भी मौजूद थी. महामारी ने उसे और बढ़ा दिया. पत्रिकाएं ऐसे ‘नए’ निष्कर्षों को बढ़ावा देती हैं जो विभिन्न कारकों के बीच एक सांख्यिकीय संबंध दिखाते हैं और कथित तौर पर पहले से अज्ञात किसी चीज की जानकारी देते हैं. चूंकि महामारी कई मायनों में अनोखी थी, इसे लेकर कुछ अनुसंधानकर्ताओं ने इस बारे में कई साहसिक दावे किए कि कोविड-19 कैसे फैलेगा, मानसिक स्वास्थ्य पर इसका क्या प्रभाव होगा, इसे कैसे रोका जा सकता है और इसका इलाज कैसे किया जा सकता है. शिक्षाविदों ने दशकों तक ‘प्रकाशित करो या नष्ट हो जाओ’ की प्रणाली में काम किया है, जहां उनके द्वारा प्रकाशित पत्रों की संख्या पर उनकी नौकरी, पदोन्नति और कार्यकाल का मूल्यांकन निर्भर होता है. मिश्रित-गुणवत्ता वाली कोविड-19 जानकारी की बाढ़ ने उन्हें अपने प्रकाशित पत्रों की संख्या बढ़ाने का अवसर प्रदान किया. ऑनलाइन प्रकाशन ने भी शोध की गुणवत्ता में गिरावट में योगदान दिया है. पारंपरिक अकादमिक प्रकाशन में लेखों की संख्या सीमित होती है. इसके विपरीत, आजकल कुछ ऑनलाइन पत्रिकाएं प्रति माह हजारों पत्र प्रकाशित करती हैं. प्रतिष्ठित पत्रिकाओं द्वारा अस्वीकार किए गए निम्न-गुणवत्ता वाले अध्ययनों को शुल्क लेकर ऑनलाइन पत्रिकाएं प्रकाशित कर देती हैं.

स्वस्थ आलोचना

प्रकाशित शोध की गुणवत्ता की आलोचना करना जोखिम से भरा काम है. इसे विज्ञान-विरोध की भड़कती आग में घी डालना समझा जा सकता है. इस पर मेरी प्रतिक्रिया यह है कि विज्ञान के लिए आलोचनात्मक और तर्कसंगत दृष्टिकोण आवश्यक है. महामारी के दौरान विज्ञान की आड़ में बड़ी मात्रा में गलत सूचना प्रकाशित करना उचित और उपयोगी ज्ञान को प्रभावित कर देता है. विज्ञान आंकड़ों के संग्रह, विश्लेषण और प्रस्तुति के लिए धीमे, विचारशील और सावधानीपूर्वक अपनाए गए दृष्टिकोण पर निर्भर करता है, खासकर यदि इसका उद्देश्य प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों को लागू करने के लिए जानकारी प्रदान करना हो.

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