समान सबूत के मामले में अदालतें एक आरोपी को दोषी और दूसरे को बरी नहीं कर सकती: न्यायालय
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नयी दिल्ली, 14 सितंबर: उच्चतम न्यायालय ने हत्या के साथ डकैती सहित कथित अपराधों के लिए 10 साल जेल की सजा पाये चार व्यक्तियों को बरी करते हुए कहा है कि जब एक जैसी भूमिका बताने वाले एक समान सबूत हों तो अदालतें एक आरोपी को दोषी ठहरा कर, दूसरे को बरी नहीं कर सकती. शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे मामले में जिसमें साक्ष्य एक समान हैं, दोनों आरोपियों के मामले "समानता के सिद्धांत" द्वारा शासित होंगे, जिसका अर्थ है कि अदालतें दोनों के बीच अंतर नहीं कर सकती क्योंकि यह भेदभावपूर्ण होगा.

न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने शीर्ष अदालत के 11 मई, 2018 के आदेश का उल्लेख करते हुए आरोपियों में से एक आरोपी को बरी कर दिया, जिसने इससे पहले उच्चतम न्यायालय में गुजरात उच्च न्यायालय के एक फैसले को चुनौती दी थी, जिसे खारिज कर दिया गया था. उच्च न्यायालय ने मामले में सात आरोपियों की दोषसिद्धि की पुष्टि की थी लेकिन सजा आजीवन कारावास से घटाकर 10 साल कर दी थी.

शीर्ष अदालत ने उन दो आरोपियों की दोषसिद्धि भी रद्द कर दी, जिन्होंने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ कोई अपील नहीं की थी.

शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘‘अनुच्छेद 136 के तहत शक्तियों का स्वत: उपयोग वांछनीय है" क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा मिली उनकी स्वतंत्रता का सवाल है. संविधान का अनुच्छेद 136 मामलों में अपील के लिए विशेष अनुमति देने की शीर्ष अदालत की शक्ति से संबंधित है, अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है.

पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत ने अगस्त 2018 में तीन आरोपियों को बरी कर दिया था, जबकि एक अन्य आरोपी की याचिका मई 2018 में खारिज कर दी गई थी. उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ जावेद शौकत अली कुरेशी द्वारा दायर अपील पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने अपना फैसला सुनाया. शीर्ष अदालत ने बुधवार को दिए गए अपने फैसले में कहा, ‘‘जब दो आरोपियों के खिलाफ एक समान या एक जैसी भूमिका बताने वाले चश्मदीद गवाहों के एक समान सबूत हों, तो अदालत एक आरोपी को दोषी ठहरा कर दूसरे को बरी नहीं कर सकती। ऐसे मामले में, दोनों आरोपियों के मामले समानता के सिद्धांत द्वारा शासित होंगे.’’

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘इस सिद्धांत का मतलब है कि आपराधिक अदालत को एक जैसे मामलों का फैसला एक तरह से करना चाहिए और ऐसे मामलों में, अदालत दो आरोपियों के बीच अंतर नहीं कर सकती है, यह भेदभावपूर्ण होगा.’’ कुरेशी के मामले में पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष के दो गवाह, जिनके चश्मदीद गवाह होने का दावा किया गया था, वे पुलिस कांस्टेबल थे और उन्होंने दावा किया था कि नवंबर 2003 में घटना के समय अहमदाबाद में लगभग 1,000 से 1,500 लोगों की भीड़ घटनास्थल पर इकट्ठा हुई थी. पीठ ने कहा कि अन्य तीन आरोपियों की दोषसिद्धि इन दो कांस्टेबलों की गवाही पर आधारित थी और इन तीनों को बाद में शीर्ष अदालत ने बरी कर दिया था.

उसने कहा कि शीर्ष अदालत की एक समन्वय पीठ ने उनकी गवाही को अविश्वसनीय होने के आधार पर पूरी तरह से खारिज कर दिया था, निष्कर्ष का लाभ अन्य आरोपियों को समान रूप से दिया जाना चाहिए. शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘इसलिए, हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो लाभ आरोपी नंबर 1,5 और 13 (जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने बरी कर दिया था) को दिया गया है, वह आरोपी नंबर 3 और 4 को भी दिया जाना चाहिए, जिन्होंने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती नहीं दी थी.’’

पीठ ने कहा कि आरोपियों में से एक का मामला, जिसकी याचिका पहले खारिज कर दी गई थी, अन्य तीन के समान ही है, जिन्हें शीर्ष अदालत ने बरी कर दिया था. पीठ ने कहा कि अगर वह उन्हें राहत देने में विफल रहती है तो यह "स्पष्ट रूप से अन्याय" करने के समान होगा. अपील मंजूर करते हुए, पीठ ने निचली अदालत के मार्च 2006 के फैसले के साथ-साथ उच्च न्यायालय के फरवरी 2016 के फैसले को रद्द करके कुरेशी को बरी कर दिया. इसने मेहबूबखान अल्लारखा और सैदखान को भी बरी कर दिया, जिन्होंने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ कोई अपील नहीं की थी. पीठ ने मामले में अमजदखान नासिरखान पठान को बरी कर दिया.

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