Bilkis Bano Case: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'सार्वजनिक आक्रोश का न्यायिक फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा'
सुप्रीम कोर्ट (Photo Credits: File Image)

नयी दिल्ली, आठ अगस्त: उच्चतम न्यायालय ने बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में 11 दोषियों को सजा में दी गयी छूट की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए मंगलवार को कहा कि सार्वजनिक आक्रोश उसके (शीर्ष न्यायालय के) न्यायिक फैसलों को प्रभावित नहीं करेगा. न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने स्पष्ट कर दिया कि आंदोलनों और समाज के आक्रोश का उसके फैसलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और वह केवल कानून के अनुसार ही चलेगी.

पीठ ने बिलकिस की ओर से पेश वकील शोभा गुप्ता से कहा, "सार्वजनिक आक्रोश हमारे न्यायिक निर्णयों को प्रभावित नहीं करेगा. हम केवल कानूनी दलीलों पर विचार करेंगे तथा इस घटना पर जनता के गुस्से के अनुसार नहीं चलेंगे. मान लीजिए, कोई सार्वजनिक आक्रोश नहीं है. क्या हमें आदेश को बरकरार रखना चाहिए? यदि कोई जनाक्रोश है तो क्या इसका यह मतलब है कि यह गलत आदेश है?"

पीठ की यह टिप्पणी उस वक्त आई, जब बिलकिस की वकील शोभा गुप्ता ने कहा कि दोषियों को सजा में छूट देने पर विचार करते वक्त ‘सार्वजनिक आक्रोश’ पर भी विचार किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा कि मामले में दोषियों की रिहाई के बाद समाज में आक्रोश फैल गया और देश भर में आंदोलन हुए.

मंगलवार को जैसे ही सुनवाई शुरू हुई, बिलकिस बानो के वकील ने शीर्ष अदालत को बताया कि गुजरात के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, जेल और सुधार उपाय प्रशासन ने दोषियों को छूट दिये जाने के बारे में अपनी नकारात्मक राय दी थी और उनमें से एक-राधेश्याम शाह की समय से पहले रिहाई की सिफारिश नहीं की थी.

उन्होंने पीठ को बताया कि गुजरात सरकार की नौ जुलाई, 1992 की छूट नीति के तहत समय से पहले रिहाई की मांग करने वाली राधेश्याम शाह की याचिका गुजरात उच्च न्यायालय ने अस्वीकार कर दी थी, जिसके बाद उसने राहत के लिए रिट याचिका के जरिये शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया.

उन्होंने पीठ से पूछा, ‘‘इस अदालत के समक्ष यह रिट याचिका कैसे कायम रखी जा सकती है, जबकि उसने पहले ही अनुच्छेद 226 के तहत (उच्च न्यायालय के समक्ष) अपने अधिकार का इस्तेमाल कर लिया है."

उसे 2008 में मुंबई की एक सीबीआई अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. उस समय लागू नियमों के अनुसार, एक दोषी 14 साल के बाद सजा में छूट के लिए आवेदन कर सकता था, जिसे तब आजीवन कारावास की अवधि माना जाता था.

याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने गुजरात सरकार से मामले को देखने और दो महीने के भीतर फैसला करने को कहा था कि क्या उन्हें छूट दी जा सकती है. बिलकिस बानो की वकील ने कहा कि गुजरात सरकार को उनकी याचिका पर विचार करने का निर्देश देने के शीर्ष अदालत के आदेश के बाद सब कुछ तीव्र गति से हो गया और सभी दोषियों को 15 अगस्त, 2022 को रिहा कर दिया गया.

जनहित याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने याद किया कि कैसे दोषियों को माला पहनाई गई और उनका अभिनंदन किया गया तथा उनके ब्राह्मण होने के बारे में बयान दिए गए कि ब्राह्मण अपराध नहीं कर सकते.

अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने कहा कि रिहा किए गए दोषियों को माला पहनाने वाले उनके परिवार के सदस्य थे. उन्होंने पूछा, "परिवार के किसी सदस्य द्वारा माला पहनाने में क्या गलत है?" इससे पहले न्यायालय ने कहा कि वह इस मामले में जनहित याचिका दायर करने वाले कई लोगों के ‘हस्तक्षेप के अधिकार (लोकस स्टैंडाई)’ पर नौ अगस्त को दलीलें सुनेगा.

बिलकिस बानो की ओर से दायर याचिका के अलावा, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा)की नेता सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लाल और लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति रूप रेखा वर्मा सहित कई अन्य ने जनहित याचिका दायर करके दोषियों की सजा में छूट को चुनौती दी है. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सांसद महुआ मोइत्रा ने भी सजा में छूट के खिलाफ जनहित याचिका दायर की है.

दोषियों में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने पीठ को बताया कि इस प्रकार के मामलों में जब एक बार पीड़ित खुद अदालत पहुंच जाता है, तो दूसरों के पास हस्तक्षेप करने यानी अदालत में मुकदमा दायर करने का अधिकार नहीं हो सकता है.

पीठ ने कहा, ‘‘हमने संबंधित पक्षों के वकीलों को सुना है. अन्य रिट याचिकाएं जनहित याचिकाओं की प्रकृति की हैं. जनहित याचिकाओं की विचारणीयता के सवाल पर एक प्रारंभिक आपत्ति दर्ज कराई गई है. प्रारंभिक आपत्तियों पर सुनवाई के लिए मामले को कल भोजनावकाश के बाद तीन बजे सूचीबद्ध किया जाए.’’

एक जनहित याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने कहा कि वह मामले के तथ्यों पर बहस नहीं करेंगी, बल्कि पूरी तरह से कानूनी पक्ष पर दलील पेश करेंगी. शीर्ष अदालत को सोमवार को सुनवाई के दौरान बताया गया था कि बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार मामले और उसके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के दोषियों के सिर पर मुसलमानों को शिकार बनाने और उन्हें मारने के लिए “खून सवार” था. इस मामले के सभी 11 दोषियों की सजा में पिछले साल छूट दे दी गई थी, जिसे न्यायालय में चुनौती दी गयी है और इसी के तहत सोमवार को अंतिम सुनवाई शुरू हुई थी.

शीर्ष अदालत ने 18 अप्रैल को 11 दोषियों को दी गई छूट पर गुजरात सरकार से सवाल किया था और कहा था कि नरमी दिखाने से पहले अपराध की गंभीरता पर विचार किया जाना चाहिए था. न्यायालय ने आश्चर्य भी जताया था कि क्या इस मामले में विवेक का इस्तेमाल किया गया था. ये सभी दोषी 15 अगस्त, 2022 को जेल से रिहा कर दिये गये थे.

शीर्ष अदालत ने दोषियों की समय से पहले रिहाई का कारण पूछते हुए जेल में बंद रहने के दौरान उन्हें बार-बार दी जाने वाली पैरोल पर भी सवाल उठाया था. बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार और उसके परिवार के सदस्यों की हत्या को ‘भयावह’ कृत्य करार देते हुए शीर्ष अदालत ने 27 मार्च को गुजरात सरकार से पूछा था कि क्या दोषियों को सजा में छूट देते समय हत्या के अन्य मामलों की तरह समान मानक इस्तेमाल किये गये थे. इस घटना के वक्त बिलकिस बानो 21 साल की थी और पांच महीने की गर्भवती भी थी. उसकी तीन साल की बेटी भी दंगों में मारे गए उसके परिवार के सात सदस्यों में से शामिल थी.

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