ठंडे बस्ते में क्यों चला गया ईयू-ऑस्ट्रेलिया के बीच मुक्त व्यापार समझौता
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया के बीच मुक्त व्यापार समझौते की बातचीत का असफल रही. ईयू के लिए इसमें क्या सबक छिपे हैं.यूरोपीय संघ (ईयू) और ऑस्ट्रेलिया आपसी कारोबार को सुविधाजनक बनाने और उसे बढ़ाने के इरादे से 2018 से एक समझौते पर बातचीत कर रहे थे. हालांकि, यह समझौता अपने मुकाम पर नहीं पहुंचा और इस साल अक्टूबर महीने में यह बातचीत ‘अस्थायी तौर पर बंद' कर दी गई. इससे ईयू को काफी ज्यादा हैरानी हुई. ईयू के एक व्यापार अधिकारी ने जर्मन बिजनेस अखबार ‘हांडेल्सब्लाट' को बताया कि वार्ता खत्म होने से यूरोपीय संघ ‘सदमे की स्थिति' में था.

जर्मनी के वित्त मंत्री क्रिश्टियान लिंडनर ने निराशा भरे लहजे में कहा, "अगर हम ऑस्ट्रेलिया के साथ भी कारोबारी मसले पर बातचीत को आगे नहीं बढ़ा पाए, तो यह वाकई में चिंताजनक है. ऑस्ट्रेलिया एक उदार लोकतंत्र है, जिसके सिद्धांत और मूल्य पश्चिमी देशों से मेल खाते हैं.”यूरोपीय लोगों को ऑस्ट्रेलिया के साथ समझौते से बड़ी उम्मीदें थीं. इसकी कई वजहें हैं. संघर्ष, अलगाववाद, और संरक्षणवाद के दौर से गुजरती दुनिया में मुक्त व्यापार समझौते को प्रतीक के तौर पर देखा जाता है कि एक अलग दृष्टिकोण भी संभव है.

दांव पर क्या था?

यूरोपीय संघ वैश्विक स्तर पर उदार व्यापार व्यवस्थाको बनाए रखना चाहता था. साथ ही, ऑस्ट्रेलिया के कच्चे माल में भी उसकी दिलचस्पी थी. उदाहरण के लिए, दुर्लभ धातु रेयर अर्थ के लिए यूरोप फिलहाल चीन पर निर्भर है. इस समझौते के सफल होने पर यह निर्भरता कम हो सकती थी. वहीं, ऑस्ट्रेलिया से मिलने वाले ग्रीन हाइड्रोजन से यूरोप को अपने परिवहन क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाने में मदद मिलती. यूरोप के कार निर्माताओं को भी बाजार में हिस्सेदारीबढ़ने की उम्मीद थी.

वहीं, दूसरी ओर ऑस्ट्रेलिया के लिए यूरोप के दरवाजे खुल जाते. उसने अपने कृषि उत्पादों, विशेष रूप से अनाज और बीफ के लिए यूरोपीय संघ के बड़े बाजार में पहुंच की मांग की. यह ऑस्ट्रेलियाई निर्यात का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. चीन और जापान के बाद यूरोपीय संघ ऑस्ट्रेलिया का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, लेकिन ईयू के लिए ऑस्ट्रेलिया 18वें स्थान पर है. 2022 में दोनों पक्षों के बीच 56 अरब यूरो मूल्य की वस्तुओं और 26 अरब यूरो की सेवाओं का कारोबार हुआ.

खेती की वजह से विफल हुई वार्ता

यह वार्ता मुख्य रूप से खेती पर असहमति के कारण असफल हुई. कथित तौर पर यूरोपीय संघ ने सालाना करीब 600 मिलियन यूरो के ऑस्ट्रेलियाई कृषि उत्पादों को यूरोपीय बाजार में लाने की अनुमति देने की पेशकश की थी. ऑस्ट्रेलिया ने कहा कि यह काफी कम है.

कील इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकोनॉमी (आईएफडब्ल्यू) के अंतरराष्ट्रीय व्यापार विशेषज्ञ होल्गर गोर्ग समझ सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया इस समझौते पर राजी क्यों नहीं हुआ. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "यूरोपीय संघ ने 2022 में करीब 200 अरब यूरो मूल्य के कृषि उत्पादों का आयात किया. ऑस्ट्रेलिया को दिया गया प्रस्ताव कुल यूरोपीय संघ के कृषि आयात का लगभग 0.3 फीसदी है. ऐसे में समझौते के बाद भी ऑस्ट्रेलिया यूरोपीय संघ में निर्यात किए जा रहे अपने कृषि उत्पादों की मौजूदा मात्रा को आधे से अधिक नहीं बढ़ा पाता.”

विवाद का एक अन्य मुद्दा यूरोपीय संघ की संरक्षित मूल पदनाम (पीडीओ) नीति थी. इसके तहत ब्रांडेड कृषि उत्पादों का उत्पादन, प्रसंस्करण और तैयारी खास क्षेत्र में ही होनी चाहिए.

गोर्ग ने कहा, "पर्मा हैम, फेटा चीज, शैंपेन या प्रोसेको जैसे उत्पाद नाम यूरोपीय संघ में संरक्षित हैं, लेकिन ऑस्ट्रेलिया में नहीं. ऑस्ट्रेलिया में किसी प्रॉडक्ट का क्या नाम रखा जाए, इसके लिए ज्यादा सख्त नियम नहीं हैं. यहां के कई ऐसे उत्पाद हैं जिनके नाम यूरोपीय संघ में मौजूद उत्पादों के नाम से मेल खाते हैं.”

मेलबर्न यूनिवर्सिटी के एवगेनी पोस्टनिकोव का कहना है कि ऑस्ट्रेलियाई किसान ईयू की पीडीओ नीति को गलत मानते हैं. यही वजह है कि इस मुद्दे पर बातचीत आगे नहीं बढ़ पाई. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "ऑस्ट्रेलिया में इन नामों का इस्तेमाल उन यूरोपीय किसानों की सफलता का संकेत है जो यहां अपने साथ इन उत्पादों को लेकर आए. यह उनकी स्थानीय लोकप्रियता को दिखाता है.”

पोस्टनिकोव का मानना है कि ऑस्ट्रेलियाई किसानों ने बातचीत में मजबूती से अपना पक्ष रखा, क्योंकि वे ‘सौदेबाजी को लेकर अच्छी स्थिति' में हैं. उन्होंने कहा, "यूरोपीय संघ के साथ समझौता ऑस्ट्रेलिया के कृषि क्षेत्र की सफलता के लिए ज्यादा मायने नहीं रखता है. यह उनके लिए सिर्फ बोनस होता. ऑस्ट्रेलिया वैश्विक तौर पर पहले से ही अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए है.”

समझौते के दौरान किसानों का दबाव

सिडनी स्थित वोलोंगोंग विश्वविद्यालय में आर्थिक कानून के एसोसिएट प्रोफेसर और विशेषज्ञ मार्कस वैगनर ने डीडब्ल्यू से कहा, "यूरोपीय संघ और ऑस्ट्रेलिया, दोनों जगहों पर किसानों का काफी ज्यादा राजनीतिक प्रभाव है और उनकी लॉबी ‘समझौता करने को तैयार नहीं थी.' हरित ऊर्जा से जुड़े स्रोतों की लॉबी का प्रभाव इनकी तुलना में कम था. जबकि, रणनीतिक रूप से यह फायदेमंद था.”

इसके अलावा, राजनीतिक बाधाओं ने भी इस समझौते को मुकाम पर पहुंचने से रोकने में अहम भूमिका निभाई. ऑस्ट्रेलियामें एक जनमत संग्रह में लोगों ने मूल निवासी लोगों को संसद में प्रतीकात्मक आवाज देने से इनकार कर दिया. इसका सबसे ज्यादा विरोध ग्रामीण मतदाताओं ने किया. वैगनर कहते हैं, "लेबर सरकार इस निर्वाचन क्षेत्र को अलग करने का जोखिम नहीं उठा सकती, खासकर 2025 के आम चुनावों से पहले.”

यूरोपीय संघ में भी अधिकारियों को डर है कि विदेशी किसानों को किसी तरह की रियायत देने से स्थानीय किसान नाराज हो सकते हैं और अगले साल यूरोपीय संघ के संसदीय चुनावों से पहले लोक-लुभावने वादे करने वाली पार्टियों की लोकप्रियता बढ़ सकती है.

ईयू के साथ मुक्त व्यापार नीति के लिए कोई देश तैयार नहीं?

ऑस्ट्रेलिया के साथ बातचीत खत्म होने के बाद, यूरोपीय संघ और न्यूजीलैंड के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर ग्रहणलग गया है. इस समझौते पर इस साल की शुरुआत में ही मुहर लगी थी.

पोस्टनिकोव का मानना है कि ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापार समझौते से यूरोपीय संघ और अन्य सभी वैश्विक मुक्त व्यापार प्रयासों को लाभ होता. इससे दूसरे देश भी मुक्त व्यापार समझौते में दिलचस्पी दिखाते.

उन्होंने कहा, "यह नियम आधारित व्यापार के लिए अच्छा संकेत नहीं है. दोनों पक्ष अमेरिका और अन्य जगहों पर बढ़ते संरक्षणवाद के मद्देनजर मुक्त व्यापार को बढ़ावा देना चाहते हैं. इस वार्ता के असफल होने से चारों ओर यह संकेत जाएगा कि दुनिया ‘व्यापार उदारीकरण के शिखर' पर पहुंच गई है. विकासशील और अविकसित देश भी इस समझौते पर बारीकी से नजर रख रहे होंगे.”

ऑस्ट्रेलिया के कृषि मंत्री मुर्रे वॉट के मुताबिक, यूरोपीय संघ के साथ द्विपक्षीय व्यापार वार्ता 2025 में होने वाले अगले चुनाव से पहले फिर से शुरू होने की ‘संभावना नहीं' है.

खतरे के साए में एक और समझौता

यूरोपीय संघ और दक्षिण अमेरिकी व्यापार ब्लॉक मर्कोसुर के बीच भी मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत चल रही है. मर्कोसुर ब्लॉक में अर्जेंटीना, ब्राजील, पैराग्वे और उरुग्वे जैसे देश शामिल हैं. हालांकि, इस बातचीत में भी कृषि नीति अहम भूमिका निभा रही है.

दो दशकों की बातचीत के बाद 2019 में व्यापार समझौता पहले ही हो चुका था, लेकिन यूरोपीय संघ की पर्यावरण संबंधी चिंताओं के कारण इसे रोक दिया गया. यूरोपीय संघ ने समझौते में बदलाव करते हुए मर्कोसुर ब्लॉक को पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को दूर करने के लिए कहा है. मर्कोसुर ब्लॉक का मौजूदा अध्यक्ष ब्राजील समझौते में हुए बदलाव से सहमत नहीं है और कहा कि यह गलत है.

दरअसल, 2020 में यूरोपीय संघ ने अपने तथाकथित ग्रीन डील को अपनाया था. यह डील विशेष रूप से केवल लैटिन अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि यूरोपीय संघ के व्यापार सौदों को भी कठिन पर्यावरण मानकों से बांधता है. इस साल मार्च में यूरोपीय संघ ने व्यापार समझौते को अपडेट करने के लिए कई प्रस्ताव प्रस्तुत किए. इनमें वनों की कटाई पर बाध्यकारी सीमाएं शामिल थीं. चूंकि यह व्यापार परिणामों के साथ जुड़े थे, इन्होंने ब्राजील के गुस्से को भड़काया.

होल्गर गोर्ग का मानना है कि दोनों पक्षों को "मौजूदा स्थिति को देखते हुए” अपनी प्राथमिकताएं बदलनी चाहिए. विशेष रूप से कच्चे माल पर, व्यापार समझौतों में प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, "अगर यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान सिर्फ एक से दो फीसदी है, तो ‘अन्य क्षेत्रों', विशेष रूप से कच्चे माल के आयात के लाभ के लिए इस क्षेत्र को खोलने पर विचार करना चाहिए.” वोलोंगोंग विश्वविद्यालय के वैगनर भी इस बात से सहमत हैं. वह मानते हैं कि मर्कोसुर के मामले में भी कृषि लॉबी ‘भारी दबाव' बनाएगी. उन्होंने कहा कि चुनौतीपूर्ण भू-राजनीतिक स्थिति के मद्देनजर, यह देखना बाकी है कि क्या यूरोपीय संघ विशुद्ध रूप से आर्थिक हितों से परे देख सकता है या नहीं.