लिथुएनिया के विलिनुस में 11-12 जुलाई को होने वाली नाटो की बैठक में रूस के हमले के खिलाफ यूक्रेन की मदद और उसकी नाटो सदस्यता के मामले पर अहम चर्चा होगीयूक्रेन युद्ध के साये में चौथी बार मिल रहे नाटो सदस्य बाल्टिक देश लिथुएनिया में जब साथ होंगे तो जाहिर है कि चर्चा के केन्द्र में यूक्रेन को आर्थिक और सामरिक मदद के सवाल होंगे. निगाहें भले ही यूक्रेन के हालात पर हों लेकिन चीन की बढ़ती ताकत भी इस वार्ता का एक मुद्दा होगा. कुल मिलाकर अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से यह बैठक अहम है. यही नहीं इतिहास और भू-राजनीति के नजरिए से लिथुएनिया में बैठक का होना भी कई वजहों से महत्वपूर्ण है. बाल्टिक क्षेत्र के दूसरे देश एस्तोनिया और लातविया हैं.
लिथुएनिया क्यों है अहम
बाल्टिक देशों में से एक लिथुएनिया दशकों तक सोवियत रूस के अधीन रहा है. यह उन शुरूआती नाटो सदस्य देशों में था जिन्होंने रूस के हमले के बाद यूक्रेन को हथियार मुहैया कराए. लिथुएनिया अकेला बाल्टिक देश है जिसका पोलैंड के साथ जमीनी संपर्क है. रूस बाल्टिक क्षेत्र को नाटो की सबसे कमजोर कड़ी मानता है जिसकी वजह से रूस-नाटो विवाद पैदा होने पर इन देशों पर सबसे ज्यादा सैन्य बोझ पड़ सकता है. एक अमेरिकी रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक रूस केवल 60 घंटों के भीतर इन देशों को छकाने की ताकत रखता है.
नाटो के सम्मेलन में छायी चीन और रूस की बढ़ती नजदीकी
तीनों बाल्टिक देश 1991 के बाद रूस के मुकाबले तेजी से विकसित हुए हैं और नाटो के साथ नजदीकी संबंध रखते हैं. हर बाल्टिक देश में नाटो के 1000 सैनिक तैनात हैं. रक्षा खर्च के लिहाज से ये तीनों देश नाटो के टॉप 10 में आते हैं. यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से ही तीनों देशों ने जबरदस्त सतर्कता बनाए रखी है और यूक्रेन की नाटो सदस्यता के प्रबल समर्थक हैं.
यूक्रेन- युद्ध और नाटो की सदस्यता
यूक्रेन में संघर्ष जारी है और सामरिक सुरक्षा का मामला एजेंडे में सबसे ऊपर है. युद्ध ही नहीं बल्कि रूस में भाड़े के लड़ाकों वाले वागनर गुट की भूमिका और उसके मुखिया येवगेनी प्रिगोजिन के रूसी सेना के खिलाफ विद्रोह जैसी घटनाओं ने इस बात के संकेत दिए हैं कि हालात कितने बेकाबू हो सकते हैं. यही वजह है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की को मदद देने और यूक्रेन की नाटो सदस्यता पर कुछ ठोस कदम उठाए जाने की उम्मीद है.
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यूक्रेन को हथियार देने के साथ फंडिंग, खुफिया सूचनाएं और ट्रेनिंग मुहैया कराना इसलिए भी जरूरी है कि नाटो एक संगठन के तौर पर अपनी एकता और शक्ति का परचम लहराकर रूस को संदेश दे सके. हालांकि पूर्वी यूरोपीय देश निकट भविष्य में कीव की नाटो सदस्यता के लिए एक रोडमैप चाहते हैं. दूसरी तरफ जर्मनी और अमेरिका दोनों ही इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि ऐसा कोई भी कदम उठाया जाए जो रूस-नाटो युद्ध के कगार पर ले आए.
स्वीडन का नाटो ड्रीम
स्वीडन विलिनुस बैठक में अपनी नाटो सदस्यता पर मोहर चाहता था लेकिन तुर्की ने उसके रास्ते में रोड़े अटकाए हैं. तुर्की का आरोप है कि स्वीडन अपने यहां आतंकी समूहों को पनाह देता है और नाटो का सदस्य बनने से पहले उसे इन पर कार्रवाई करनी होगी. नाटो के महासचिव येंस श्टोल्टेनबर्ग ने इस बैठके से ठीक पहले सोमवार को एर्दोवान और स्वीडन के प्रधानमंत्री उल्फ क्रिस्टरशॉन के बीच विवादास्पद मुद्दों पर सुलह-सफाई के लिए मीटिंग बुलाई है. सदस्यों को उम्मीद है कि तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोवान बैठक के दौरान शायद कुछ नरमी बरतें लेकिन ऐसा होगा या नहीं ये कहना मुश्किल है. उधर अमेरिका ने स्वीडन की नाटो सदस्यता पर अपना समर्थन देने का वादा किया है.
नाटो का सैन्य खर्च
श्टोल्टेनबर्ग की अध्यक्षता में इस बैठक का लक्ष्य यह भी तय करना है कि सदस्य देश कैसे संगठन के वर्तमान सैन्य खर्च के लिए अपने राष्ट्रीय जीडीपी का 2 फीसदी हिस्सा लगा सकते हैं. हालांकि 2023 में खर्च का पुराना लक्ष्य पूरा करने वाले 31 में से सिर्फ 11 सदस्य हैं. जीडीपी का 2 प्रतिशत खर्च करने का फैसला 2014 में किया गया था और इसे पूरा करने वालों में अमेरिका, ब्रिटेन, पोलैंड, ग्रीस, एस्तोनिया, लिथुएनिया, फिनलैंड रोमेनिया, हंगरी, लात्विया और स्लोवाकिया हैं.
एसबी/एनआर (डीपीए, एएफपी, एपी)