सामाजिक दरारों की हिंसक प्रतिक्रिया से जूझता फ्रांस
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

फ्रांस में पुलिस की गोली से किशोर की मौत के बाद फैली अशांति और हिंसा थमने की बजाय और बढ़ती जा रही है. अब तक 650 से ज्यादा गिरफ्तारियां हो चुकी हैं लेकिन हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं.फ्रांस की राजधानी पेरिस में 17 साल के किशोर की मौत के बाद उपजे तनाव की इतनी हिंसात्मक प्रतिक्रिया होगी, ये अंदाजा लगाना मुश्किल था. चालीस हजार पुलिसवालों की तैनाती के बावजूद लूटपाट और आगजनी की घटनाएं लगातार जारी हैं. खबरें ये भी हैं कि पेरिस की घटनाओं का असर ब्रसेल्स तक पहुंच रहा हैं जहां करीब दर्जन भर लोगों को हिरासत में लिया गया है.

स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों यूरोपीय नेताओं की ब्रसेल्स में चल रही बैठक को बीच में छोड़कर स्वेदस लौट रहे हैं ताकि आपातकालीन मीटिंग में हिस्सा ले सकें. मंगलवार को नॉन्ते में नहेल एम की मौत के बाद लोग प्रतिरोध में सड़क पर उतरे. नाहेल पर गोली चलाने वाले पुलिस अधिकारी पर इरादतन हत्या का आरोप लगाया गया है. इस मामले ने गोली चलाने के पुलिस के अधिकार और फ्रांस में नस्लीय भेदभाव की दबी हुई चिंगारी को एक बार फिर से भड़का दिया है.

फ्रांस में ट्रैफिक स्टॉप पर पुलिस गोली क्यों चला देती है

ट्रैफिक अपराधी या अरब चेहरा

नहेल की मौत, 2020 में अमेरिका में एक काले आदमी जॉर्ज फ्लायड की मौत की यादों को फिर ताजा कर गयी. हालांकि फ्लॉयड को गोली नहीं मारी गई थी लेकिन पुलिस अधिकारी ने उन्हें जमीन पर गिराकर उनकी गर्दन पर इस कदर दबाव डाला कि फ्लॉयड ने दम तोड़ दिया. एक निहत्थे काले व्यक्ति के साथ पुलिस के इस व्यवहार के खिलाफ अमेरिका समेत पूरी दुनिया में विरोध हुआ. नाहेल की मौत के मामले में भी पुलिस पर नस्लीय भेदभाव के आरोप लगाए जा रहे हैं.

नाहेल की मां मोनिया ने साफ कहा है कि उनके बेटे की मौत की वजह नस्ल ही है. हालांकि उन्होंने कहा कि वो पूरी पुलिस फोर्स को कठघरे में खड़ा नहीं कर रही हैं. मोनिया ने कहा, "मैं पुलिस पर आरोप नहीं लगा रही हूं, मैं एक इंसान पर आरोप लगा रही हूं जिसने मेरे बेटे की जान ले ली. मेरे कई मित्र पुलिस में हैं और वो पूरी तरह मेरे साथ हैं. वो भी इस घटना के विरोधी हैं.” नाहेल की मां का कहना है कि पुलिस अधिकारी चाहता तो उसके पास गोली नहीं चलाने का विकल्प था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया.

वो आरोप लगाते हुए कहती हैं, "उसे मेरे बेटे को मारने की जरूरत नहीं थी लेकिन उसने एक अरब चेहरा देखा और उसे मारना चाहा. ये कब तक चलेगा? कब तक बच्चों की जिंदगियां यूं ही खत्म होती रहेंगी? कितनी मांओं को वो झेलना होगा जो मैंने झेल रही हूं?" मोनिया के सवाल फ्रांस के सामाजिक ताने-बाने में दरारों, खासकर मुसलमानों की स्थिति की तरफ इशारा करती हैं.

व्यवस्था का मसला या नस्ल का

हालांकि फ्रांस की सरकार हिंसक विरोध को कानून और व्यवस्था की समस्या की तरह ही देखती है. तीन रातों से चली आ रही हिंसा के बाद शुक्रवार को प्रधानमंत्री एलिजाबेथ बोर्न ने कहा कि "ये बेहद हिंसक युवाओं ने पुलिस स्टेशनों और टाउन हॉल को नुकसान पहुंचाया है लेकिन वो लोग स्थानीय निवासी नहीं हैं."

बोर्न ने जोर देकर कहा, "हमारी प्राथमिकता राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना है और इसके लिए व्यवस्था को पटरी पर लाना ही एकमात्र उपाय है". इससे पहले बीबीसी से बातचीत में राष्ट्रपति माक्रों की पार्टी के नेता नतालिया पूजीरेफ ने कहा कि पुलिस पर नस्लभेद के आरोप निराधार हैं. जो लोग ऐसा कर रहे हैं वो पुलिस अधिकारियों की सामाजिक पृष्ठभूमि को बिल्कुल नजरअंदाज कर रहे हैं. हालांकि फ्रांस में पुलिस और अरब या काले लोगों के बीच हिंसात्मक झड़पें लगातार नस्लीय मसला ही कही जाती रही हैं.

पुलिस की गोली से किशोर की मौत के बाद पेरिस में बवाल

बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब अप्रैल में एक सड़क पर हुई एक घटना के बाद उपजी हिंसा ने फ्रांस को हिला कर रख दिया. विलनवे ला गाहेन शहर में हुई इस घटना में मोटरसाइकल पर सवार एक युवक को पुलिस ने रोका लेकिन स्पीड बढ़ाते हुए निकलने की जुगत में मोटरसाइकिल सवार ने पुलिस की गाड़ी को टक्कर मारी लेकिन उसकी खुद की टांग भी टूट गई. युवक मुसलमान था और लोग उसके समर्थन में उबल पड़े. इसके बाद दंगे जैसा माहौल पैदा हो गया जो पांच दिन तक चलता रहा.

सामाजिक दरारें

बार-बार होने वाली हिंसात्मक प्रतिक्रिया एक झलक है उन गहरी दरारों की जो फ्रांस के बंटे हुए समाज की नुमाइश करती हैं. इन ताजा घटनाओं के बाद जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कमीशन ने भी कहा है कि फ्रांस के लिए ये नाजुक वक्त है अपने नस्लीय मसलों को सुलझाने का. पश्चिमी अफ्रीकी देशों जैसे अल्जीरिया, बुर्किना फासो, गिनी, माली और सेनेगल जैसे देश फ्रांस के उपनिवेश रह चुके हैं. बीसवीं शताब्दी में इन देशों से बहुत से प्रवासी फ्रांस पहुंचे.

2014 से इन देशों से आए प्रवासियों की संख्या में बहुत बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन फ्रांसीसी समाज में इस बदलाव को कानून के स्तर पर आत्मसात करने की कोई पहल नहीं दिखती. यहां तक कि जनगणना में भी धर्म और नस्ल की पहचान नहीं होती. यानी आधुनिक वक्त के हिसाब से सामाजिक विविधता को ढांचागत समानता बनाने के लिए आधार तैयार नहीं हुए जिससे बहुनस्लीय समाज को एकजुट कर सके.

नस्लीय भेदभाव के आरोपों से घिरे राज्य के खिलाफ फ्रांस में लोगों का गुस्सा इस बात का भी प्रतीक है कि देश सिर्फ गरीब-अमीर के बीच नहीं बंटा है. फ्रांस अपनी राष्ट्रीय यात्रा में उस दौर में है जहां बहुसांस्कृतिक पहचान को समेट कर ही आगे का रास्ता तय किया जा सकता है. इसके लिए संवेदनशीलता और कानून दोनों की जरूरत पड़ेगी.

एसबी/एनआर (रॉयटर्स,एएफपी)