कब तक भूख झेल सकता है हमारा शरीर?
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

दुनिया भर में 70 करोड़ से अधिक लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं. गाजा में यह स्थिति और विकट है, जिसकी सबसे अधिक तपिश बच्चे झेल रहे हैं. लेकिन इंसान का शरीर ऐसा है कि वह खानपान के बिना भी कुछ समय तक हमें जिंदा रख सकता है.गाजा पट्टी में लोग भुखमरी और कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं. यह फलस्तीनी क्षेत्र इस्राएल-हमास युद्ध छिड़ने के बाद से ही चर्चा के केंद्र में बना हुआ है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रोस घेब्रेयेसस के अनुसार, "कुपोषण की स्थिति भयावह स्तर पर" पहुंच गई है. इसके चलते कम से कम 10 बच्चों की मौत हुई है. वहीं, हमास द्वारा संचालित फलस्तीन के स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि इस बीच भोजन और पानी की कमी के चलते 15 बच्चों की मौत हो गई. उत्तरी गाजा में लगभग तीन लाख लोग भोजन और स्वच्छ पेयजल की कमी से जूझ रहे हैं.

लंबे समय तक भूख की स्थिति शरीर के लिए भारी बोझ सिद्ध होती है, लेकिन हमारे विकास की प्रक्रिया ने मानव शरीर को इस प्रकार विकसित किया है कि आवश्यकता पड़ने पर वह कुछ हफ्तों के लिए बिना भोजन के जीवित रह सके. हालांकि यह हर किसी के लिए कारगर नहीं होता. इसमें कई और पहलू भी प्रभावी भूमिका निभाते हैं. जैसे, यदि कोई व्यक्ति बीमार है तो उसकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है. ऐसी स्थिति में भोजन की कमी से इतर भी किसी व्यक्ति के जीवित रहने की संभावना और कमजोर हो जाती है.

चलिए, हम उन प्रक्रियाओं की पड़ताल करते हैं कि भूख और पोषण की कमी की स्थिति में हमारा शरीर अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए कैसे प्रयास करता है.

वजूद बचाए रखने के लिए बना है शारीरिक ढांचा

मस्तिष्क के भीतर हाइपोथैलेमस नाम का हिस्सा होता है. भूख की अनुभूति कराने में इसकी अहम भूमिका होती है. रक्त में शर्करा यानी शुगर के स्तर में गिरावट आते ही यह सक्रिय हो जाता है. सबसे पहले हाइपोथैलेमस किडनी की एड्रिनल ग्रंथियों को तनाव उत्पन्न करने वाला हार्मोन एड्रिनेलिन स्रावित करने का निर्देश देता है. यह हमें भोजन की खोज में उन्मुख करता है. लेकिन यदि हम भोजन तलाशने में असफल रहते हैं तो मस्तिष्क वैकल्पिक योजना यानी प्लान बी पर काम करता है. इसके तहत वह शरीर के अन्य हिस्सों में ग्लूकोज की तलाश करता है.

मस्तिष्क को अपने संचालन के लिए शुगर के एक स्वरूप ग्लूकोज की आवश्यकता है होती है, जिसे ब्लड शुगर भी कहा जाता है. किसी व्यक्ति के कुल वजन के दो प्रतिशत हिस्सा ही ग्लूकोज के रूप में होता है, लेकिन उसमें आधा केवल मस्तिष्क ही उपयोग करता है. इस आवश्यक शुगर की प्राप्ति के लिए मस्तिष्क शरीर को सुनियोजित रूप से निर्देशित करता है, जिसमें इंसुलिन स्राव को रोकने का संकेत होता है. इससे शरीर की मांसपेशियों को ग्लूकोज की आपूर्ति रुक जाती है और उनके बजाय मस्तिष्क उसका उपयोग करता है.

भयंकर भूख के दौरान शरीर का प्रत्येक अंग अपने मूल आकार की तुलना में घटकर आधा रह जाता है. यह तब तक उस स्थिति में रह सकता है जब तक वह खराब न हो जाए और व्यक्ति की मृत्यु हो जाए. मस्तिष्क इसमें इकलौता अपवाद है, जो ग्लूकोज संरक्षित रखने की अपनी क्षमता के चलते अधिकतम 4 प्रतिशत तक सिकुड़ सकता है.

शरीर के अन्य हिस्से ऊर्जा उत्पादन के लिए प्रोटीन का रुख करते हैं. यह मांसपेशियों की कीमत पर होता है, जिनमें व्यापक रूप से प्रोटीन होता है. मुख्यतः प्रोटीन के स्वरूप वाले एमीनो एसिड को शरीर ग्लूकोज में परिवर्तित करता है.

क्या आप अत्यधिक भूख को भांप सकते हैं?

करीब आठ से दस दिनों के बाद शरीर अपना मेटाबॉलिज्म यानी उपापचय प्रणाली को ऊर्जा की किफायत से खर्च करने वाली स्थिति में ढाल लेता है. जानवरों की सुषुप्तावस्था की तरह हृदय की गति, रक्तचाप और शरीर का तापमान जैसी आवश्यक शारीरिक गतिविधियां न्यूनतम स्तर पर चले जाते हैं. सीमित भोजन की स्थिति में शरीर यही सबसे बेहतर काम करता है.

शरीर फैटी एसिड्स को तथाकथित कीटोन बॉडीज में रूपांतरित कर वसा के भंडार का उपयोग करना शुरू कर देता है. कीटोन बॉडीज ऊर्जा की अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत होती हैं. ये इकलौती ऐसी यौगिक संरचनाएं यानी कंपाउंड्स हैं, जिनका उपयोग मस्तिष्क ग्लूकोज के साथ भी कर सकता है.

लेकिन जब ये फैटी एसिड कीटोन बॉडीज में रूपांतरित होते हैं तो इस प्रक्रिया से नेल पॉलिश जैसी गंथ निकल सकती है. यह इसलिए होता है, क्योंकि एसिटोन उन कीटोन बॉडीज में से होते हैं, जो किडनी और सांसके माध्यम से उत्सर्जित होते हैं.

भूख का सिलसिला जितना लंबा खिंचता है, हालात उतने ही खराब होते जाते है. मसलन, त्वचा की अवरोधक क्षमता क्षीण हो जाती है, प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर पड़ जाती है और सूजन यानी इनफ्लेमेशन बढ़ने लगती है.

भूख से क्यों बेहाल हो जाते हैं अंग

धीरे-धीरे शरीर अपने सभी अहम अंगों को मस्तिष्क के भोजन में रूपांतरित कर देता है. कुछ समय के बाद व्यक्ति केवल त्वचा एवं हड्डियों का ढांचा मात्र बनकर रह जाता है और अंग निष्क्रिय होकर दम तोड़ने लगते हैं. अक्सर सबसे पहले दिल जवाब दे जाता है.

कोई व्यक्ति कितनी लंबी अवधि तक भूख से जूझकर जिंदा रह सकता है, यह इसी बात पर निर्भर करता है कि मेटाबॉलिज्म प्रक्रिया किस प्रकार खुद को नए सिरे से संयोजित कर मस्तिष्क को कम ग्लूकोज पर निर्भरता के लिए तैयार करने में सक्षम होती है. ऊपर भी इसका उल्लेख किया गया है. इससे महत्वपूर्ण अंगों में प्रोटीन भंडारण के बचे रहने की संभावना कायम रहती है.

यह सब सुचारु रूप से चल सके, उसके लिए शरीर को भूख के आरंभिक संकेत अवश्य देने चाहिए, जो इंसुलिन के स्राव को रोक सकें. हालांकि यह तरीका हमेशा काम नहीं करता. उदाहरण के तौर पर मलेरिया, एचआईवी/एड्स या किसी अन्य बीमारी से जूझ रहे लोगों के रक्त में कई इनफ्लेमेशनरी तत्व उपस्थित रहते हैं, जिससे पैंक्रियाज भूख संबंधी मेटाबॉलिज्म को बाधित कर निरंतर इंसुलिन रिलीज करना जारी रखेगी.

शरीर पर भूख का दीर्घकालिक प्रभाव

लोग भुखमरी से उबर जाते हैं. लेकिन कुछ लोगों को इसके दूरगामी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव झेलने पड़ते हैं. इसमें अंगों को पहुंची ऐसी क्षति भी शामिल है, जिसकी पूर्ति संभव न हो. अंग निष्क्रियता भी हो सकती है. प्रतिरक्षा प्रणाली के प्रभावित होने के साथ ही हड्डियों का ढांचा बिगड़ सकता है.

भुखमरी-इंसुलिन, कार्टिसोल और थाइरॉयड जैसे हार्मोंस भी प्रभावित कर सकती है. भुखमरी से जूझने वाले लोगों में गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याओं के पनपने की आशंका भी कहीं अधिक होती है. भुखमरी प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर देती है, जिससे शरीर हैजा, खसरा और मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियों के लिहाज से बहुत नाजुक हो जाता है.

मां से बच्चे में हस्तांतरित होती है भुखमरी

कुपोषित गर्भवती महिलाओं में भुखमरी के नकारात्मक प्रभाव उनके बच्चों में भी हस्तांतरित हो सकते हैं. अमेरिका के पेंसिनवेलिया स्टेट यूनिवर्सिटी ने 2022 में एक अध्ययन किया. यह अध्ययन उन लोगों पर किया गया जो द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर डच हंगर इंडेक्स की चपेट में आए थे, जिसमें बच्चों पर भुखमरी के दीर्घकालिक प्रभावों का अध्ययन किया गया.

सभी आयुवर्गों के अध्ययन में यह सामने आया कि गर्भाशय में कुपोषण के सर्वाधिक नकारात्मक दीर्घकालिक दुष्प्रभाव होते हैं. ऐसी परिस्थितियों में पैदा हुए बच्चों में डायबिटीज, हृदय संबंधी बीमारियों और कालांतर में मोटापे के साथ ही मांसपेशियों से जुड़ी समस्याओं के साथ ही सुनने में दिक्कत के मामले सामने आए.

भुखमरी के मनोवैज्ञानिक प्रभाव

1940 के दशक के मध्य में शोधकर्ताओं ने भुखमरी की फिजियोलॉजी को समझने का एक ऐसा प्रयोग किया जो आज के समय में अकल्पनीय होगा. अमेरिकी वैज्ञानिक एंसेल कीज ने यह अध्ययन किया था. इसमें शामिल 36 प्रतिभागियों को तीन महीनों तक आवश्यकता से आधी कैलोरी वाली भोजन सामग्री प्रदान की गई. निरंतर भूख के मनोवैज्ञानिक प्रभाव विशेष रूप से स्पष्ट हो गए. कई प्रतिभागी इस अध्ययन से पीछे हट गए या उनमें उदासीनता घर कर गई.

भूख बाकी सभी पहलुओं पर हावी हो गई. उनकी दिलचस्पी केवल खाने पीने से जुड़ी वस्तुओं में थी. कुछ लोग तो नरभक्षी बनने से जुड़े सपने भी देखे. हालांकि, उनकी इंद्रियां खासी तेज हो गईं. उनकी सूंघने और सुनने की क्षमता पहले की तुलना में बेहतर हो गई.

(यह लेख मूल रूप से जर्मन में प्रकाशित हुआ)