नग्न शरीर पर भस्म लपेटे, एक हाथ में चिमटा या त्रिशूल दूसरे हाथ में कमण्डल, माथे पर त्रिपुण्ड, गले में रुद्राक्ष की माला, जटा बने लंबे-लंबे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी और निर्विकार भाव वाले लाल-लाल आंखों से ‘हर हर महादेव’ (Har Har Mahadev) का हुंकार करते नागाओं (Nagas) का जत्था जब कुंभ क्षेत्र में प्रवेश करता है, तभी कुंभ मेला क्षेत्र में चार चांद लगता है. इनके बिना कुंभ मेले (Kumbh Mela) की दिव्यता की कल्पना ही नहीं की जा सकती.आखिर कौन हैं ये नागा बाबा? (Naga Baba), कहां से आते हैं और अचानक कहां लोप हो जाते हैं? कैसा होता है इनका आम जीवन?, क्या खाते-पीते हैं? कहां रहते हैं? इन तमाम प्रश्नों के साथ हम मिलते हैं प्रयागराज (Prayagraj) के दारागंज स्थित श्रीमज्ज ज्योतिषपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य पीठ के एक जत्थेदार से. बामुश्किल वह नागाओं के संदर्भ में कुछ अहम जानकारियां देने के लिए तैयार होते हैं.
प्रयागराज में आयोजित कुंभ की एक खासियत यह भी है कि इसका आयोजन केवल जनवरी-फरवरी की ठिठुरती ठंड में ही होता है. दूर-दूर से आये कल्पवासी 40 से 45 दिनों तक गंगा किनारे कपड़े के टेंट में रहते हैं. सूर्योदय से पहले संगम में डुबकियां लगाते हैं. ठिठुरती ठंड और बर्फीला पानी न उन्हें विचलित कर पाता है ना ही उनकी श्रद्धा को प्रभावित कर पाता है, लेकिन इस महापर्व का रोमांच तभी चरम पर पहुंचता है, जब हाथी, घोड़े, ऊंठ, रथ और पालकी आदि पर सवार इष्टदेव नागाओं की टोली के साथ गाजे-बाजों के साथ त्रिवेणी के पवित्र तट पर ये नागा बाबा प्रवेश करते हैं.
हड्डियों को जमा देने वाली ठंड में नग्न शरीर पर भस्म लपेटे, माथे पर त्रिपुण्ड, हाथों में त्रिशूल, गले में रुद्राक्ष, सर पर सूखी जटाओं और लाल खूनी आंखों वाले इन नागा बाबाओं का झुण्ड संगम की दिव्यता और भव्यता में चार चांद लगा देता है. इनकी टोली के दोनों तरफ श्रद्धालुओं की जमा भीड़ इनके दर्शन मात्र से खुद को कृतार्थ मान लेती है. हर कोई इनके चरणरज माथे से लगाने के लिए बेताब रहता है, लेकिन हैरानी तब होती है, जब पूरे कुंभ काल तक मेले की रौनक बढ़ाने के बाद ये नागा बाबा अचानक कहां गुम हो जाते हैं, ये किस तिलिस्मी दुनिया में लोप हो जाते हैं. आखिर कैसा होता है इनका जीवन चक्र, आइये जानते हैं...
गृहस्थ जीवन से सौ गुना कठिन है नागा जीवन
नागाओं का जीवन वस्तुतः बहुत कठिन होता है. गृहस्थ जीवन से सैकड़ों गुना मुश्किल होता है इनका सामान्य जीवन. जत्थेदार बताते हैं कि इसके लिए एक आम साधु को अखाड़े में सात चक्रों से गुजरने के बाद ही नागा की उपाधि प्राप्त होती है. सर्वप्रथम उन्हें अखाड़ा विशेष से संपर्क करना होता है. वहां उनकी पृष्ठभूमि जानने के पश्चात उनकी इच्छा शक्ति और संयम की परीक्षा ली जाती है.
अखाड़े में प्रवेश मिलने के पश्चात उनकी ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है. इसके अंतर्गत तप, वैराग्य, ध्यान, संन्यास और आध्यात्म आदि की दीक्षा दी जाती है. इस प्रक्रिया को कोई एक साल में पूरी कर लेता है तो किसी को सालों लग जाते हैं. नागा की पदवी प्राप्त होने के दौरान उनका मुंडन संस्कार करवाकर पिंडदान करवाया जाता है. अपने ही हाथों से अपना श्राद्ध कर उन्हें घर परिवार के लिए मृत मान लिया जाता है. इसके पश्चात वह पूरी तरह से अखाड़े के लिए समर्पित हो जाता है.
कुंभ मेलों में मिलती है पहचान
अमूमन कुंभ मेलों में ही नागा बाबा को भिन्न-भिन्न नामों और उपाधियों से नवाजा जाता है. हर कुंभ में उन्हें अलग-अलग नाम दिये जाते हैं. उदाहरणस्वरूप प्रयागराज में उपाधि प्राप्त करने वाले को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा और नासिक में खिचड़िया नागा के नाम से नामकरण होता है. इससे यह पता चलता है कि अमुक नागा को किस क्षेत्र के कुंभ में नागा पद दिया गया है. इस संदर्भ में एक प्रमाण पत्र दिया जाता है, जिसे उन्हें हमेशा अपने पास रखना होता है.
शस्त्र शिक्षा
अलग-अलग अखाड़ों में नागा संस्कार हासिल करने वाले नागा को शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र की भी शिक्षा दी जाती है. वे बंदूक, तलवार, त्रिशूल, भाला आदि चलाने में दक्ष होते हैं ताकि जंगल में किसी हिंसक जानवरों से सामना हो तो वे डटकर उसका मुकाबला करते हैं. ऐतिहासिक दस्तावेज भी बताते हैं कि मठों और मंदिर की रक्षा के लिए इन नागाओं ने मुगल सैनिकों से भी लड़ाइयां लड़ी और उन्हें खदेड़ने में सफल रहे हैं. प्रत्येक नागा के लिए शस्त्र शिक्षा अनिवार्य होता है.
मानव शरीर का भस्म होता है श्रृंगार
नागा जीवन में प्रवेश की अनुमति मिलने के पश्चात उसे अपने शरीर पर मानव राख से निर्मित भभूत लपेटना होता है. यह किसी मृत मानव शरीर के भस्म से लंबी प्रक्रियाओं के बाद तैयार की जाती है. किसी किसी अखाड़े में हवन की राख को भी शरीर पर लपेटा जाता है.
नागाओं का निवास
जत्थेदार के अनुसार नागा बाबाओं का कोई स्थाई निवास नहीं होता. कोई हिमालय की कंदराओं में तो कोई काशी के मणिकर्णिका एवं अन्य घाटों पर निवास करता है. कुछ नागा बाबा उत्तराखंड की पहाड़ियों की तलहटी में रहते हैं, तो कुछ घुमक्कड़ी स्वभाव के होते हैं, वह पूरे देश की परिक्रमा करते रहते हैं. अलबत्ता ये आम लोगों से दूर रहना पसंद करते हैं.
दिव्य शक्ति
तमाम शिक्षा दीक्षा हासिल कर इन्हें महान दिव्य शक्ति प्राप्त हो जाती है. हिमालय की कंदराओं और उत्तराखंड की पहाड़ियों की तलहटी में माइनस डिग्री तापमान में भी ये निवस्त्र रहकर अपने प्राणों की रक्षा करने में समर्थ होते हैं. इनमें लंबे समय तक भूख पर नियंत्रण रखने की शक्ति होती है. इन्हें भिक्षा मांग कर ही उदरपूर्ति करनी होती है. ज्यादा से ज्यादा सात स्थानों से इन्हें भिक्षा मांगने का अधिकार होता है. इन जगहों पर भिक्षा नहीं मिलने पर इन्हें पूरे समय भूखे रहना पड़ता है.