Ram Navami 2021: श्रीराम के इन आदर्शों को अपने जीवन में उतारें, तभी बन सकते हैं श्रेष्ठ पुरुष

हिंदू पौराणिक ग्रंथों में भगवान श्रीराम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहा जाता है. यानी पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ पुरुष. विद्वानों का भी मानना है कि अगर आप जीवन में महान बनना चाहते हैं तो श्रीराम द्वारा दी गई नैतिक शिक्षाओं को अपने जीवन में आत्मसात करें. त्रेता युग में भगवान विष्णु का अवतार होने के बावजूद श्रीराम ने कहीं भी ईश्वरत्व का प्रदर्शन नहीं किया.

भगवान राम (photo credits: file photo)

हिंदू पौराणिक ग्रंथों में भगवान श्रीराम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहा जाता है. यानी पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ पुरुष. विद्वानों का भी मानना है कि अगर आप जीवन में महान बनना चाहते हैं तो श्रीराम द्वारा दी गई नैतिक शिक्षाओं को अपने जीवन में आत्मसात करें. त्रेता युग में भगवान विष्णु का अवतार होने के बावजूद श्रीराम ने कहीं भी ईश्वरत्व का प्रदर्शन नहीं किया. वे चक्रवर्ती महाराजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे, लेकिन उनमें अहंकार, कामी, लोभी, अथवा शाही ठाठ-बाट जैसी बातें कहीं सुनी या पढ़ी नहीं गयीं. यह श्रीराम की महानता ही थी कि वनवास से वापस लौटने पर पहले वह माता कैकेयी से मिलने गए, जिनकी वजह से उन्हें चौदह वर्ष का वनवास मिला था. श्रीराम की शिक्षाएं इस बात की प्रेरणास्त्रोत हैं कि श्रेष्ठ मनुष्य का आचरण कैसा होना चाहिए. प्रभु श्रीराम ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आदर्श, अपनी मर्यादा अपने आचरण को प्रभावित नहीं होने दिया. आइए जानें आखिर प्रभु श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम क्यों कहा जाता है. यह भी पढ़ें: Ram Navami 2021: कब है रामनवमी? जानें क्यों और कैसे हुआ श्रीराम का जन्म? क्यों की जाती है इस दिन सूर्य-पूजा?

शौर्यता का प्रतीक थे श्रीराम

जब श्रीराम किशोरावस्था में थे तो विश्वामित्र ने राजा दशरथ से विनय किया कि उनके आश्रम में राक्षस यज्ञों में विघ्न डाल रहे हैं, और श्रीराम को हमारी सुरक्षा के लिए आश्रम भेजें. राजा दशरथ ने विश्वामित्र से कहा कि ये बच्चे अभी नाजुक उम्र के हैं, महाबलवान राक्षसों से कैसे आपकी रक्षा कर सकेंगे, तब श्रीराम ने पिता से कहा कि उन्हें आश्रम जाने की इजाजत दें, हम क्षत्रिय का जन्म आतताइयों से पृथ्वी को मुक्त कराना है. इसके बाद श्रीराम महाबलशाली राक्षसों का संहार कर ऋषि-मुनियों की रक्षा की.

पिता का मान का सम्मान करें

प्रभु श्रीराम ने पिता की हर आज्ञा को सर झुकाकर स्वीकारा. जब उनके राजतिलक की तैयारी चल रही थी, तो पति दशरथ से मिले वरदान स्वरूप माता कैकेयी ने भरत को सिंहासन और श्रीराम को वनवास भेजने की मांग की तो राजा दशरथ किंकर्तव्य विमूढ़ हो गए. पुत्र श्रीराम पिता के मूक आदेश का सम्मान करते हुए पत्नी सीता और लक्ष्मण के साथ खुशी-खुशी वनवास के लिए प्रस्थान कर गए.

गुरु का सदैव सम्मान करें

गुरु का सम्मान ही व्यक्ति को महान बनाता है. भगवान श्रीराम की विश्वामित्र से लेकर महर्षि वशिष्ठ तक के प्रति अपार भक्ति और आस्था की कहानियां सुनने को मिलती है. श्रीराम ने उन्हें हमेशा भगवान की तरह पूजा और सम्मान किया है. तुलसीदास कृत रामायण में उल्लेखित है कि श्रीराम ने एक बार लक्ष्मण से कहा था कि गुरु की जीवन में वही भूमिका होती है जो अंधेरे में रोशनी की होती है. गुरु हमेशा अपने शिष्य को सही और उचित मार्ग दिखाता है. गुरु सदैव देते हैं, लेते नहीं हैं.

सर्वधर्म सम्मान

श्रीराम ने हर जाति धर्म के लोगों का सम्मान किया. श्रीराम कथा में दो बहुचर्चित प्रसंग है एक केवट के प्रति प्रेम और दूसरी सबरी की भक्ति का. श्रीराम महान शक्तिशाली थे. मगर वन के लिए प्रस्थान करते समय जब मार्ग में गंगा नदी मिलीं, तो केवट से उसकी नाव से गंगा पार कराने का आग्रह किया, केवट ने स्पष्ट इंकार कर दिया. श्रीराम ने बिना क्रोधित हुए केवट से इंकार की वजह पूछी, तो केवट ने बताया और कहा कि आप अपने पैर धुलवाकर ही नाव में पैर रख सकते हैं. श्रीराम केवट को पूरा मान-सम्मान देने के बाद ही नाव में चढ़ सके थे. यही नहीं निचली जाति की भीलनी सबरी के जूठे बेर भी उसकी भक्ति का सम्मान देते हुए श्रीराम ने ग्रहण किया था. श्रीराम की जगह कोई और होता तो केवट और सबरी को सम्मान की जगह दण्ड दिया जाता.

विपरीत माहौल में भी संयम बरतना

श्रीराम के जीवन में कई ऐसे अवसर आए जब उन्होंने विपरीत माहौल में भी अपनी संयम का बांध नहीं टूटने दिया. धनुष भंग के पश्चात परशुराम द्वारा बार-बार शब्दों की प्रताड़ित झेलने के बाद भी वे उग्र नहीं हुए. यद्यपि वे इतने बलशाली थे परशुराम को युद्ध के लिए ललकार कर उनका अहंकार नष्ट कर सकते थे.

वनवास काल में भी राजसुख भोग सकते थे

"श्रीराम ने अयोध्या से लंका तक की अपनी यात्रा में कभी अतिक्रमण नहीं किया. पहली बार जब उन्हें वानरराज बालि के साम्राज्य पर अधिकार का मौका मिला था, वे चाहते तो बालि के भाई सुग्रीव का साथ देने के बहाने उसके साम्राज्य पर अपनी पताका फहराकर राजसुख भोग सकते थे, लेकिन उन्होंने कभी भी ऐसा नहीं किया. यहां तक कि रावण का संहार करने के बाद वे लंका नरेश भी बन सकते थे, लेकिन यह उनके मर्यादा के विपरीत बात थी, जिसका उन्होंने पालन करते हुए विभीषण को राजपाट सौंपकर अयोध्या लौट आए.

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