नई सड़कें, इमारतें एक-दो बरसात भी क्यों नहीं झेल पा रही हैं
उत्तर भारत में हुई बरसात ने मौसम तो सुहावना बना दिया, लेकिन जरा सी बारिश में सड़कें जाम हो गईं, गाड़ियां बहने लगीं, नए बने भवन भी ढह गए.
उत्तर भारत में हुई बरसात ने मौसम तो सुहावना बना दिया, लेकिन जरा सी बारिश में सड़कें जाम हो गईं, गाड़ियां बहने लगीं, नए बने भवन भी ढह गए. आखिर सड़कें और इमारतें इतनी कमजोर कैसे बनती हैं कि एक-दो बरसात भी नहीं झेल पातीं?जून में लगभग पूरे महीने पड़ी भीषण गर्मी और लू के बाद बारिश की कुछ फुहारें क्या पड़ीं, कई निर्माण कार्यों की पोल ही खुल गई. भारत की राजधानी दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड समेत कई राज्यों में कहीं सड़क धंस गई, कहीं पानी की टंकी गिर गई, कहीं अस्पताल की नई बनी इमारत ढह गई, कहीं सड़कों पर भरे पानी में कारें तैरती दिखीं, तो कहीं लोगों के घरों में पानी भर गया.
बिहार में पुल ढहने का सिलसिला जारी है
बिहार में तो 10 दिन के भीतर पांच पुल ढह गए. दो साल के भीतर, यानी अप्रैल 2022 से लेकर अब तक राज्य में 13 पुल ढह चुके हैं. इनमें पिछले साल ही भागलपुर में 1,700 करोड़ रुपये की लागत से बना अगुवानी-सुल्तानपुर का एक हिस्सा भी शामिल है. अररिया जिले में तो 12 करोड़ रुपये की लागत से बन रहा एक पुल उद्घाटन से पहले ही पानी में समा गया.
क्या भ्रष्टाचार के बोझ से टूट रहे हैं बिहार के पुल
अन्य राज्यों से भी इस मिजाज की खबरें आईं. 28 जून को दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के टर्मिनल संख्या एक की छत गिर जाने से एक टैक्सी ड्राइवर की मौत हो गई. उससे एक दिन पहले मध्य प्रदेश के जबलपुर में डुमना एयरपोर्ट की छत गिर गई थी. यह एयरपोर्ट अभी कुछ समय पहले ही 450 करोड़ रुपये की लागत से बना था.
यूपी के मथुरा में 30 जून की शाम एक रिहायशी इलाके में स्थित एक पानी की टंकी भरभराकर गिर गई. इस हादसे में दो लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए. यह टंकी 2021 में बनकर तैयार हुई थी और महज तीन साल के भीतर ही ढह गई. टंकी का निर्माण हर घर जल परियोजना के तहत जल निगम द्वारा कराया गया था और इसकी लागत छह करोड़ रुपये थी.
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मथुरा के स्थानीय लोगों का कहना है कि टंकी की गुणवत्ता को देखकर पहले से ही लोग कह रहे थे कि यह साल-दो साल से ज्यादा नहीं चलेगी. टंकी की जर्जर स्थिति को देखकर अधिकारियों से भी शिकायत की गई थी, लेकिन हैरानी की बात है कि टंकी को पूर्णता प्रमाणपत्र देने वालों और बनवाने वालों को इस बात का एहसास तक न था.
इमारतों के गिरने की वजह क्या है?
यूपी के ही अयोध्या शहर में जहां विकास के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए, वहां पहली ही बरसात में सड़कें टूट गईं, सड़कों पर गड्ढे हो गए और बरसात में कई जगह सड़कों पर पानी भर गया. इसी साल जनवरी में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हुई थी और वहां की छत से भी पानी टपकने लगा, वह भी गर्भ गृह से जहां भगवान राम की प्रतिमा स्थापित है. यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर के अयोध्या रेलवे स्टेशन पर पानी भर गया और उसकी एक दीवार ढह गई.
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बड़ा सवाल यह है कि आखिर इन इमारतों के गिरने की वजह क्या है? इमारतों के गिरने का मामला 2 जुलाई को लोकसभा में कांग्रेस सांसद केसी वेणुगोपाल ने भी उठाया और उन्होंने इसके पीछे भ्रष्टाचार को मुख्य वजह बताया. वहीं, एक वजह यह भी बताई जा रही है कि चुनावी साल के चलते कई बार इस तरह की सरकारी इमारतें इतनी हड़बड़ी में बना दी जाती हैं, या यूं कहें कि बनाने का दबाव रहता है कि गुणवत्ता से समझौता हो जाता है.
यूपी में लोक निर्माण विभाग के एक बड़े अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि हड़बड़ी वाली बातें तो चुनावी सालों में होती हैं, लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी चहेती कंपनियों को देना भी है. यह अधिकारी घटिया निर्माण सामग्री के इस्तेमाल को भी एक वजह बताते हैं.
वह कहते हैं, "ये कंपनियां न तो किसी के प्रति जिम्मेदार होती हैं और न ही उन्हें नुकसान होने पर किसी तरह की सजा का भय रहता है. ऐसा इसलिए कि वे सरकार में बैठे बड़े लोगों की चहेती होती हैं. हां, कोई बड़ी दुर्घटना होने पर ये बातें सामने आती हैं या फिर मामला कोर्ट में पहुंचने पर. फिर भी सजा भुगतने के लिए कुछ छोटे-मोटे अफसरों को नाप दिया जाता है. बड़े लोगों और बड़ी कंपनियों को कुछ नहीं होता."
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वह आगे कहते हैं, "यदि दोषियों पर कार्रवाई हो जाए, ब्लैकलिस्ट करके कभी काम न दिया जाए तो काफी कुछ सुधार हो सकता है. ऐसा नहीं है कि इनका निरीक्षण नहीं किया जाता, लेकिन सवाल है कि निरीक्षण करने वाले छोटे-मोटे अधिकारी उन कंपनियों का क्या कर लेंगे जिनके ऊपर सरकार में बैठे आला अफसरों का हाथ हो! ऐसी स्थिति में ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार चलता है जिसका असर ऐसे घटिया निर्माण कार्य के रूप में सामने दिखता है."
निर्माण कार्य की लगातार निगरानी करना जरूरी
दो साल पहले जब यूपी में विधानसभा चुनाव होने वाले थे, उस वक्त बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे का उद्घाटन बेहद जल्दबाजी में कर दिया गया था. बिल्कुल वैसे ही, जैसे इस साल जनवरी में अयोध्या में आधे-अधूरे श्रीराम मंदिर का कर दिया गया.
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उद्घाटन के साथ ही बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे की सड़क जगह-जगह टूटने लगी थी. सड़क के आस-पास के गांवों के लोग बताते हैं कि इसे इतनी जल्दबाजी में बनाया गया कि गुणवत्ता की जांच ही नहीं की गई.
दिल्ली और कई दूसरे राज्यों में कई बड़ी इमारतों के निर्माण कार्य से जुड़े रहे सिविल इंजीनियर रमनदीप सिंह कहते हैं कि निर्माण कार्यों में इस्तेमाल की जा रही सामग्री, डिजाइन के साथ-साथ निर्माण कार्य की लगातार मॉनीटरिंग करना बहुत जरूरी होता है. उनके मुताबिक, जल्दबाजी में कई बार तकनीकी निगरानी ठीक से नहीं की जाती. इसका नतीजा यह होता है कि इमारत मानकों पर खरी नहीं उतरती और हादसों को जन्म देती है.
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जानकारों का कहना है कि पुरानी इमारतें, खासकर अंग्रेजों के समय की इमारतें, पुल वगैरह अगर आज भी खड़े हैं तो उसके पीछे यही कारण है कि उनमें बेहतर निर्माण सामग्री इस्तेमाल की गई, मानकों के अनुसार की गई और निर्माण के दौरान उनकी निगरानी भी हुई. यही कारण है कि उनके इस्तेमाल की मियाद खत्म होने के बाद भी वे अपनी जगह पर खड़े हैं, जबकि वे दशकों से गर्मी, बरसात, आंधी-तूफान का सामना कर रहे हैं. चाहे दिल्ली में यमुना नदी पर बना पुराना लोहे का पुल हो या फिर प्रयागराज में गंगा और यमुना नदियों पर बने पुल.
नए निर्माण को टिकाऊ बनाने पर कम ध्यान
अधिकारी और सरकारें चरम मौसमी घटनाओं का हवाला देकर इससे पल्ला झाड़ना चाहते हैं, लेकिन वास्तव में यह सब भ्रष्टाचार, खराब शहरी निर्माण योजना का नतीजा है. न तो ठोस कचरा प्रबंधन की कोई व्यवस्था है, न ही जल निकासी की. यही वजह है कि बड़ी और नामी कंपनियों द्वारा किए गए निर्माण कार्य भी टिकाऊ साबित नहीं हो पा रहे हैं.
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दिल्ली के उप राज्यपाल वीके सक्सेना का कहना है कि शहर का आधे से ज्यादा हिस्सा अनियोजित है, जिससे पानी को जमीन में जाने के लिए बहुत कम या बिल्कुल भी जगह नहीं मिलती है. यही हाल देश के दूसरे शहरों का भी है. लेकिन सवाल यह है कि जब इतनी ज्यादा लागत से निर्माण कार्य होते हैं, तो मूलभूत ढांचे पर खर्च क्यों नहीं होता ताकि नए निर्माण टिकाऊ बन सकें.
क्या राजनीति भी है एक कारण?
वरिष्ठ पत्रकार दिलीप सिंह इसके पीछे राजनीति को भी वजह मानते हैं. वह कहते हैं, "सरकारों को लगता है कि ऐसी चीज बनाओ, जो दिखाई दे. स्वाभाविक है कि इमारतें, सड़कें, फ्लाईओवर दिख रहे हैं, जिन्हें दिखाकर सरकारें वोट मांगेंगी. लेकिन जल निकासी जैसी व्यवस्था उस तरह से नहीं दिखेगी. इसलिए जरूरी होने के बावजूद ऐसे काम नजरअंदाज कर दिए जाते हैं."
हैरानी की बात है कि पुराने समय के बसे शहरों में जल निकासी की व्यवस्था इतनी खराब नहीं थी. हां, ये जरूर था कि निर्माण कार्य, आबादी और निर्माण क्षेत्र के बीच संतुलन जरूर था. उदाहरण के लिए अयोध्या शहर को ही लें. कितना पुराना शहर है, लेकिन न तो कभी अयोध्या कस्बा डूबा और न ही वहां की सड़कें कुछ घंटों की बरसात में पानी से भर गईं. जबकि शहर के किनारे से ही सरयू नदी बहती है. अचानक छोटे से कस्बे में इतने निर्माण कार्य हो गए और होते ही चले जा रहे हैं, तो इस दबाव को अब यह शहर नहीं झेल पा रहा है और न ही बनाने वाले सही तरह से उसका नियोजन कर पा रहे हैं.
दिल्ली में प्रगति मैदान अंडर पास तो अभी दो साल पहले ही बना, लेकिन हर बारिश में यह न सिर्फ भर जाता है बल्कि पानी का रिसाव भी शुरू हो जाता है. जानकारों का कहना है कि यहां तो निर्माण कार्य में इतनी खामियां हैं कि कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है.