उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के कुशीनगर (Kushinagar) जिले का एक मामला न्याय व्यवस्था की गंभीर खामियों को उजागर करता है. परवेज आलम नाम के व्यक्ति ने लगभग चार साल जेल में गुजार दिए, जबकि उसके खिलाफ अब तक कोई आरोप तय (Charge Frame) ही नहीं हुआ था. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए उनकी जमानत मंजूर की और कहा कि जेल की सजा नहीं हो सकती, जब तक दोष साबित न हो.
परवेज आलम को जून 2021 में एक दहेज हत्या मामले में गिरफ्तार किया गया था. उस पर आईपीसी की धारा 498A, 304B और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3/4 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था. गिरफ्तारी के बाद से वह जेल में बंद था, लेकिन चार साल बाद भी उसके खिलाफ चार्ज तय नहीं किए गए.
क्यों हुई देरी?
वकीलों ने बताया कि देरी की बड़ी वजह आलम का इलाज था. उसे वाराणसी के मानसिक अस्पताल में रखा गया, जिससे ट्रायल की प्रक्रिया शुरू ही नहीं हो सकी.
हाई कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस कृष्ण पहल ने ज़मानत याचिका पर सुनवाई करते हुए साफ कहा, “चाहे अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, आरोपी को संविधान के तहत त्वरित सुनवाई का अधिकार है. जेल सज़ा का स्थानापन्न नहीं हो सकती.” कोर्ट ने यह भी कहा कि चार साल जेल में बिना आरोप तय हुए रहना न्याय के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई अहम फैसलों का जिक्र किया, जैसे जावेद गुलाम नबी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (2024) – जहां आरोपी को चार साल तक ट्रायल शुरू न होने पर जमानत दी गई. वी. सेंथिल बालाजी बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2024) और रामनाथ मिश्रा बनाम सीबीआई (2025) – दोनों मामलों में लंबे समय तक हिरासत को असंवैधानिक बताया गया.
इसके अलावा 1978 के गुडिकांटी नरसिंहुलु बनाम पब्लिक प्रॉसिक्यूटर केस का हवाला देते हुए कहा गया कि जमानत का मकसद केवल आरोपी की ट्रायल में मौजूदगी सुनिश्चित करना है, न कि उसे पहले से दंडित करना.
जमानत पर सख्त शर्तें
हाईकोर्ट ने परवेज आलम को निजी मुचलके और दो जमानतदारों पर रिहा करने का आदेश दिया. साथ ही कुछ सख्त शर्तें भी रखीं; वह सबूतों से छेड़छाड़ नहीं करेगा, गवाहों को डराएगा या धमकाएगा नहीं, ट्रायल कोर्ट में हर सुनवाई पर पेश होगा. अगर इन शर्तों का उल्लंघन हुआ, तो जमानत रद्द की जा सकती है.












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