काकोरी-काण्ड के 96 वर्ष! जब ब्रिटिश हुकूमत ने महज 8 हजार रूपयों के लिए 4 को फांसी, 2 को काला पानी व शेष क्रांतिकारियों को कैद की सजा सुनाई!

1922 में महात्मा गांधी ने जब चौरी-चौरा काण्ड के बाद अंग्रेजों के खिलाफ छेड़े ‘असहयोग आंदोलन’ को अचानक वापस ले लिया तो देश भर के क्रांतिकारियों को धक्का लगा था. उन्होंने शपथ ली कि क्रांति हथियारों के दम पर होगी और शहादत देकर भी देश को आजादी दिलायेंगे.

प्रतिकात्मक तस्वीर (Photo Credits YouTube Screenshot)

1922 में महात्मा गांधी ने जब चौरी-चौरा काण्ड के बाद अंग्रेजों के खिलाफ छेड़े ‘असहयोग आंदोलन’ को अचानक वापस ले लिया तो देश भर के क्रांतिकारियों को धक्का लगा था. उन्होंने शपथ ली कि क्रांति हथियारों के दम पर होगी और शहादत देकर भी देश को आजादी दिलायेंगे. क्रांतिकारियों के संगठित टीम ने सरकारी खजानें लूटकर उनसे हथियार खरीदने और ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाने की योजना बनाई. इसकी शुरुआत काकोरी-काण्ड से हुई. आज से लगभग 96 साल पूर्व 8 अगस्त 1925 को काकोरी-काण्ड को अंजाम दिया गया. जिस पर अंग्रेजी हुकूमत ने कानून को ताक पर रखते युवा क्रांतिकारियों पर दमनात्मक कार्रवाई की. आइये जानें क्या थी कहानी काकोरी की...

साल 1923 पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और सचिंद्र नाथ सान्याल सरीखे कुछ क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान रिपब्लिकेशंस एसोसिएशन (HRA) की नींव रखी, उद्देश्य था, हिंदुस्तान को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद कराना. क्रांतिकारी गतिविधियों के अलावा एचआरए की एक योजना थी लूटपाट के जरिये धन इकट्ठा कर हथियार खरीदना और अंग्रेजों को उनके हिंसा का जवाब हिंसा से देना. इन डकैतियों से धन कम मिलता था, लेकिन निर्दोष ज्यादा मारे जाते थे. अंग्रेज हुकूमत इसका फायदा उठाते और क्रांतिकारियों को चोर-डकैत कहकर सर्वत्र बदनाम करते थे. अंततः क्रांतिकारियों ने अपनी रणनीति में बदलाव लाते हुए केवल सरकारी खजाने लूटने का फैसला किया. काकोरी-काण्ड इसका पहला प्रयास था. यह भी पढ़े: Shaheed Diwas : 23 मार्च को ही क्यों मनाया जाता है शहीद दिवस? क्या वाकई ब्रिटिश अधिकारी क्रांतिकारियों से खौफ खाते थे? आखिर क्या था माजरा?

8 अगस्त 1925 को पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के घर पर गुपचुप तरीके से एचआरए की बैठक हुई, और काकोरी काण्ड की योजना बनी. मकसद वही था सरकारी खजाने लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना, ताकि अंग्रेजों के आक्रमण का जवाब आक्रमण से दिया जा सके. साथ ही यह भी तय हुआ कि डकैती केवल पैसों की होगी, अनावश्यक किसी की जान नहीं ली जायेगी. कहते हैं कि काकोरी काण्ड के संदर्भ में अशफाक उल्ला खां ने विरोध दर्शाया. उनके अनुसार एचआरए संगठन इतना मजबूत नहीं है कि अंग्रेजी सरकार से सीधा टकराया जाये. लेकिन अधिकांश क्रांतिकारियों की सहमति मिलने पर अंततः अशफाक भी तैयार हो गये. ट्रेन लूटने से पहले पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने घटना स्थल की रेकी किया.

9 अगस्त 1925 को योजनाबद्ध तरीके से 8 डाउन सहारनपुर पैसेंजर को काकोरी से आलम नगर के बीच चेन खींच कर रोका गया. राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में असफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी केशव चक्रवर्ती, मुरारी गुप्त, रोशन सिंह, बनवारी लाल, राजकुमार सिन्हा समेत 10 क्रांतिकारियों ने ट्रेन पर आक्रमण कर गार्ड के डिब्बे में रखे खजाने के थैलों को अपने कब्जे में लेकर भाग गये. कहा जाता है कि इस काण्ड में करीब 8 हजार रुपये क्रांतिकारियों के हाथ लगे थे. अंग्रेजी हुकूमत ने इसे अपनी नाक की लड़ाई मानते हुए देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां की.

अंग्रेजी हुकूमत इस काण्ड के बहाने क्रांतिकारियों का समूल नाश करने की हर संभव कोशिश की. काकोरी काण्ड में मात्र दस लोग शामिल थे, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने चंद्रशेखर आजाद को छोड़ सभी को गिरफ्तार कर लिया. आजाद भेष बदलकर वहां से भागने में सफल हो गये थे. क्रांतिकारियों पर डेढ़ साल मुकदमा चलने के बाद अंग्रेजी हुकूमत की न्याय पालिका ने 22 अगस्त 1927 को एक अमानवीय फैसला सुनाया. गिरफ्तार क्रांतिकारियों में से 4 को फांसी दी गयी, जबकि 2 को काला पानी और शेष को कैद की सजा हुई. इसमें राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को 17 दिसंबर 1927 को और राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह को 19 दिसंबर 1927 को फांसी पर चढ़ाया गया. लेकिन शहादत देते-देते ये क्रांतिकारी अंग्रेजी हुकूमत के दिलो-दिमाग पर खौफ बनकर छा चुके थे.

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