बाबाओं की भक्ति महिलाओं का अंधविश्वास है या कुछ और
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credit: Image File)

हाथरस में दो जुलाई को सत्संग में हुई भगदड़ में 113 महिलाओं की मौत हुई. ऐसे बाबाओं के भक्तों में महिलाओं की अधिक संख्या का होना अंधविश्वास, लैंगिक असमानता और तार्किकता की एक बहस है.बीती 2 जुलाई को हाथरस के अमित कुमार के परिवार की महिलाएं भी भोले बाबा उर्फ सूरजपाल जाटव के सत्संग में शामिल होने गई थीं. इस भगदड़ में उन्होंने अपनी ताई मुन्नी देवी और मौसी आशा देवी को खो दिया. अमित ने डीडब्ल्यू को बताया, "मेरे घर की चार महिलाएं उस दिन भोले बाबा के सत्संग में गई थीं. मेरी मां, मौसी और दो ताई. मौसी और एक ताई तो नहीं रहीं. मां बुरी तरह भगदड़ में घायल हो गई थीं. लेकिन वो अब भी कहती हैं कि बाबा की गलती नहीं है. बाबा दोबारा सत्संग करेंगे तो वह जाएंगीं. सैकड़ों लोग मारे गए लेकिन घर की महिलाएं मानने को तैयार नहीं हैं कि इसके लिए बाबा भी जिम्मेदार है."

उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में भोले बाबा के सत्संग के बाद मची भगदड़ में 121 लोगों की मौत हुई. मरने वालों में 113 महिलाएं शामिल थीं. प्रशासन ने केवल 80,000 लोगों के शामिल होने की इजाजत दी थी. हालांकि, मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक वहां ढाई लाख लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई थी. सत्संग में शामिल होने वालों में भी अधिकतर महिलाएं ही शामिल थीं.

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तार्किक सोच तक महिलाओं की पहुंच कितनी

‘सेल्फ मेड' बाबाओं के भक्तों में महिलाओं की संख्या अधिक होती है. ऐसे बाबाओं की भक्ति में शामिल महिलाओं पर हमेशा से ही अंधविश्वासी होने का आरोप लगता है. भीड़ में शामिल महिलाओं को अंधविश्वासी कहना पहली नजर में सही लग सकता है, लेकिन बात जब धर्म और जेंडर की हो तो इसमें कई पहलू शामिल हैं.

जर्नल साइंस की एक रिसर्च बताती है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं जादुई घटनाओं, किसी अनहोनी जैसी चीजों में अधिक भरोसा करती हैं. इसके पीछे एक सबसे बड़ी वजह महिलाओं की तार्किक समझ तक पहुंच है. रिसर्च के मुताबिक पुरुष हमारे समाज में इस तरीके से बड़े होते हैं, जहां उन्हें तर्कसंगत होने और निर्णय लेने के लिए भावनाओं या भावनाओं के उपयोग से इनकार करने के काबिल बनाया जाता है. इसलिए वे किसी भी चीज पर तुरंत भरोसा करने की जगह विश्लेषण और सोच विचार करने को प्राथमिकता देते हैं. दूसरी तरफ महिलाओं के जीवन में इसकी कमी शुरुआत से ही बनी रहती है.

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इन बाबाओं की स्वीकार्यता के पीछे इनके 'रक्षक' होने की छवि भी एक महत्वपूर्ण पहलू हैं. अधिकतर महिलाएं इन बाबाओं के पास अपनी समस्याएं लेकर जाती हैं. उन्हें यह भरोसा दिलाया जाता है कि ये बाबा भगवान और उनके बीच की एक कड़ी हैं. लोग यह भरोसा करने लगते हैं कि इन बाबाओं के पास कोई दिव्य या चमत्कारी शक्ति है.

डॉ. संज्योत पेठे, लैंगिक अधिकारों पर काम करने वाली संस्था पैरिटी लैब से जुड़ी हैं. इस बात से सहमति जताते हुए वह कहती हैं कि कितनी महिलाओं की पहुंच है धार्मिक और दर्शनशास्त्र तक? जानकारी के अभाव का फायदा मिलता है इन बाबाओं को जो खुद को भगवान का दूत बना कर उनके सामने पेश करते हैं. महिलाओं को भी लगने लगता है कि ये बाबा उनकी रक्षा करेंगे.

सेल्फ मेड बाबाओं की जवाबदेही कौन तय करेगा

गुरमीत राम रहीम, नित्यानंद, आसाराम बापू, रामपाल, ये कुछ ऐसे सेल्फ मेड बाबाओं के नाम हैं जिन पर हत्या, फ्रॉड और यौन शोषण के मामले दर्ज हैं. लेकिन ऐसे कई मामले सामने आने के बावजूद ऐसे बाबाओं की भक्ति में कोई कमी देखने को नहीं मिलती. ना ही इन बाबाओं को उनके भक्त जिम्मेदार ठहराते हैं. ऐसा ही कुछ भोले बाबा के मामले में भी नजर आया.

अमित बताते हैं, "अकेले मेरे ही इलाके से कुछ 500-600 महिलाएं इस सत्संग में गई होंगी. मां बता रही थीं कि बाबा ने पहले ही कह दिया था कि उस दिन कुछ बड़ा होगा. इसलिए वह भगदड़ हुई. वह पिछले 20 सालों से इस बाबा की भक्त हैं."

मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि सत्संग खत्म होने के बाद भोले बाबा ने एलान किया था कि लोग उनके जाने के बाद उनके पैरों की धूल उठा सकते हैं. भीड़ बेकाबू होकर उस धूल को लेने बढ़ी. इसके बाद ही भगदड़ मची. यह उस भीड़ की ओर इशारा करती है जिसका जिक्र जर्मन लेखक इलाएस कनेटी ने अपनी किताब "क्राउड्स एंड पावर” में किया था. वह लिखते हैं कि धर्म एक आज्ञाकारी भीड़ चाहती है. लोगों की ऐसी भीड़ जो जिसे भेड़ माना जाए और उनकी विनम्रता के लिए उनकी प्रशंसा की जाए.

"अच्छी महिलाएं सत्संग जाती हैं”

नारीवादी लेखिका सिमोन द बोउवा ने लिखा था कि धर्म या धार्मिक कर्मकांड महिलाओं को नम्र बनने, असमानता और शोषण सहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. उन्हें बताया जाता है कि अगर वे ऐसा करेंगी तो मरने के बाद उन्हें इसका फल मिलेगा. धार्मिक कर्मकांडों में शामिल होने और सत्संग जाने वाली महिलाओं को समाज ‘अच्छी महिलाओं' की श्रेणी में रखता है.

संजोत इस इस पूरे प्रकरण को सत्ता से भी जोड़ कर देखती हैं. वह कहती हैं, "हमारे समाज में महिलाओं के पास कोई सत्ता नहीं होती. उन्हें शुरू से यही सीख दी जाती है कि वे जितनी अधिक भक्ति में लीन होंगी, उन्हें उतना अधिक अच्छा माना जाएगा.उन्हें इस मापदंड पर तौला जाता है कि वे धर्म और भगवान के प्रति कितनी समर्पित हैं. यह स्वीकार्यता उन्हें थोड़ी बहुत सत्ता जरूर देती है."

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खालीपन को भरने का जरिया बनती बाबाओं में आस्था

धर्म को जेंडर के संदर्भ में हमेशा से ही एक पितृसत्तात्मक संस्था के रूप में ही देखा गया है. हालांकि, कई महिलाओं के लिए यह खुद को व्यक्त करने के लिए एक माध्यम की तरह भी काम करता है. डेजी जकारिया, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर हैं. वह जेंडर और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर रिसर्च कर रही हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "ऐसे बाबाओं पर महिलाएं भरोसा कर रही हैं, ये देखने या सुनने में अजीब और अंधविश्वास जरूर लग सकता है. लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि हम जिस विचारधारा या आस्था में भरोसा करते हैं, वह सबको समझ आ जाए.”

सोशल मीडिया और टीवी भी आज एक बड़ा माध्यम बन चुके हैं, जिसके जरिये ये बाबा लोगों तक पहुंच रहे हैं. महिलाएं ना सिर्फ इन आयोजनों में शामिल होती हैं बल्कि इन बाबाओं से जुड़ा कंटेंट भी इंटरनेट पर देखती हैं. प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट बताती है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं इंटरनेट का इस्तेमाल स्वास्थ्य, निजी समस्याएं या धर्म से जुड़ी जानकारियां जुटाने के लिए अधिक करती हैं.

वह आगे कहती हैं, "पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को खुल कर अपनी भावनाएं जाहिर करने की आजादी कहां दी है. ये धार्मिक आयोजन इस खालीपन को भरने का एक जरिया बन जाते हैं. ऐसे में इन बाबाओं पर उनके भरोसे और लगाव की जगह लेना मुश्किल हो जाता है. महिलाएं इन आयोजनों में शामिल होकर एक जीवन का मतलब ढूंढने की कोशिश करती हैं.”