शिक्षाविदों का कहना है कि छपी हुई किताबों से युवा पीढ़ी की लगातार बढ़ती दूरी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनती जा रही है. आज के युवा पढ़ने की बजाय रील्स और दूसरे वीडियो देखने को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं.भारत में खासकर कोरोना के समय से ऑनलाइन पढ़ने-पढ़ाने और डिजिटल बुक्स का चलन लगाता बढ़ रहा है. देश में लगभग हर जगह इंटरनेट की सुलभता की वजह से लोगों की डिजिटल किताबों तक पहुंच बढ़ी है. छपी हुई किताबों के मुकाबले इनकी कीमत भी अकसर कम होती है. साहित्यकारों और शिक्षाविदों की मानें तो इसके बावजूद कई चीजें ऐसी हैं जो छपी किताबों को डिजिटल के मुकाबले बेहतर साबित करती हैं.
उनकी दलील है कि स्वस्थ दिमाग के लिए किताब पढ़ना बहुत जरूरी है. रचनात्मकता और एकाग्रता जैसे गुणों को विकसित करने में किताबों से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता. लेकिन तमाम लेखक और साहित्यकार इस बात पर सहमत हैं कि छपी हुई किताबों की कीमत कम होनी चाहिए ताकि वो सबसे लिए सुलभ हों. लेखक और कोलकाता के पास एक कॉलेज में साहित्य के प्रोफेसर डॉ. सुमित चौधरी सवाल करते हैं कि ई-बुक का प्रचलन होने के बावजूद क्या उससे वह अनुभूति हो सकती है जो हाथ में किताब लेकर पढ़ने पर मिलती है?
क्या खत्म हो जाएगा किताबें पढ़ने का दौर?
एक अन्य लेखक जय कुमार बनर्जी डीडब्ल्यू को बताते हैं, "बचपन में मोहल्ले में बने क्लबों में एक कोना लाइब्रेरी का होता था. हम वहां से नियमित रूप से किताबें घर ले जाकर पढ़ते थे. लेकिन इंटरनेट की बढ़ती खुमारी के कारण अब ऐसी लाइब्रेरियां विलुप्त होने की कगार पर हैं. सही कहें तो तेजी से बदलती शिक्षा व्यवस्था और बस्तों के बढ़ते बोझ, ट्यूशन व कोचिंग के कारण छात्रों के पास पाठ्यक्रम से अलग कुछ पढ़ने के लिए समय ही नहीं बचा है."
कहते हैं कि पढ़ाई में बढ़ती प्रतिद्वंद्विता और माता-पिता की इच्छाओं के बोझ ने बच्चों को पहले से कई गुना ज्यादा व्यस्त कर दिया है. बनर्जी का मानना है कि रही-सही कसर स्मार्टफोन और इंटरनेट ने पूरी कर दी है जिससे छात्रों में वैसी एकाग्रता नहीं पनपती जो किताबें पढ़ने से पनपती है.
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वर्ष 2024 के दौरान हिंदी की कौन सी किताब सबसे ज्यादा बिकी, इसके आंकड़े भ्रामक हैं. लेकिन गोरखपुर के गीता प्रेस से छपने वाली 'रामचरित मानस' लंबे समय से इस मामले में निर्विवाद रूप से पहले नंबर पर रही है. उसके अलावा राजकमल प्रकाशन, प्रभात प्रकाशन, हिंदू युग्म, पेंगुइन और रैंडम हाउस से छपी कई किताबें भी चर्चा और बिक्री के मामले में शीर्ष पर रही हैं.
कथा और कथेतर विधा की किताबें सबसे ज्यादा बिकीं. इंडिया टुडे मीडिया समूह के 'साहित्य तक: बुक कैफे टॉप 10' में वर्ष 2024 की श्रेष्ठ अनूदित पुस्तकों में 'आजतक साहित्य जागृति भारतीय भाषा सम्मान 2024' से सम्मानित कृति 'चरु, चीवर और चर्या' के अलावा शशि थरूर, हरीश भट्ट, अरुंधति सुब्रमण्यम, तसलीमा नसरीन और गाब्रिएल गार्सिया मार्केज की अनूदित पुस्तकें भी शामिल रही हैं.
रील्स और वीडियो के मुकाबले में कहां दिखती हैं किताबें
शिक्षाविदों का कहना है कि छपी हुई किताबों से युवा पीढ़ी की लगातार बढ़ती दूरी एक गंभीर सामाजिक समस्या बनती जा रही है. आज के युवा पढ़ने की बजाय रील्स और दूसरे वीडियो देखने को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं. उनका कहना है कि पहले अभिभावक अपने बच्चों को जन्मदिन और दूसरे मौकों पर जहां उपहार के तौर पर किताबें भेंट देते थे वहीं अब इसकी जगह स्मार्टफोन और स्मार्ट वॉच जैसी चीजों ने ले ली है.
चौधरी कहते हैं, "दो-तीन दशक पहले तक स्कूलों और कॉलेज परिसरों में खाली समय में पुस्तकों पर बहस होती थी, लेकिन अब उसकी जगह इंटरनेट पर आने वाले वीडियो और ओटीटी सीरीज बहस का मुद्दा बन गए हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में अब भी भारी तादाद में लाइब्रेरियां हैं और वहां किताबें भी भरी पड़ी हैं. लेकिन अब वहां पाठकों का भारी टोटा है. इस स्थिति को सुधारने के लिए समाज के सभी तबकों को आगे आना होगा."
विशेषज्ञों का कहना है कि छपी हुई किताबें नियमित रूप से पढ़ने की वजह से याददाश्त तो बढ़ती ही है. एकाग्रता भी मजबूत होती है. उनका कहना है कि कोलकाता और दिल्ली जैसे पुस्तक मेले में अब भी साहित्य, उपन्यास और कथा-कहानी की किताबें भारी तादाद में बिकती हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनको खरीदने के बाद पढ़ते कितने लोग हैं. जय कुमार कहते हैं, "ज्यादातर लोगों के लिए मशहूर लेखकों की किताबें खरीद कर अपने ड्राइंग रूम में सजा कर रखना एक स्टेटस सिंबल बन गया है."
अब भी किताबें बन सकती हैं इंसान की सबसे अच्छी दोस्त
बांग्ला के जाने-माने साहित्यकार शीर्षेंदु मुखर्जी डीडब्ल्यू से कहते हैं, "छपी हुई किताबें मौजूदा दौर में भी प्रासंगिक हैं. लेकिन युवा पीढ़ी में शुरू से ही पढ़ने की आदत डालना जरूरी है. इसकी शुरुआत घर से हो सकती है. उसके बाद स्कूलों में भी इसके लिए एक अतिरिक्त पीरियड रखा जा सकता है. किताबों से युवा पीढ़ी की यह बढ़ती दूरी भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है."
कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफेसर अवीक मजूमदार डीडब्ल्यू से कहते हैं, "किताबों के इंसान के सबसे बढ़िया दोस्त होने की कहावत अब भी अप्रासंगिक नहीं हुई है. जरूरत है बच्चों को शुरू से ही किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित करने की. इसके लिए घर और स्कूलों में जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है. अगर शुरू में ही छपी हुई किताबों से बच्चे का मोहभंग हो गया तो वह आगे कभी इनको हाथ नहीं लगाएगा."
वह छपी हुई किताबों के फायदे गिनाते हुए कहते हैं, "इंटरनेट पर देखी या पढ़ी हुई चीज लोग जल्दी ही भूल जाते हैं. लेकिन छपी हुई किताबों में पढ़ी चीजें लंबे समय तक जेहन में रहती हैं. वह याद करते हैं कि कैसे स्कूल में इतिहास और भूगोल के लंबे-लंबे अध्याय याद कर लेते थे. इनमें से खासकर मुगल साम्राज्य के पतन की वजह से संबंधित सवाल का जवाब ही कई पन्नों में लिखना होता था."
सुमित चौधरी कहते हैं, "किताबें छात्रों को आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक रूप से सोचने की क्षमता विकसित करने के साथ ही स्थापित धारणाओं पर सवाल उठाने के लिए प्रोत्साहित तो करती ही हैं, किसी भी विषय पर गहरी समझ भी पैदा करती है. जार्ज ओरवेल लिखित '1984' आलोचनात्मक सोच की प्रेरणा देने वाली किताब का बेहतरीन नमूना है."
तनाव पैदा करने वाले मीडिया के दौर में राहत हैं किताबें
शिक्षाविदों का कहना है कि तनाव के भरे आधुनिक दौर में छपी हुई किताबें मानसिक तनाव दूर करने में काफी उपयोगी साबित हो सकती हैं. किताबें भावनात्मक बुद्धिमत्ता और सहानुभूति विकसित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.
जय कुमार कहते हैं कि किताब पढ़ने की आदत कल्पना शक्ति और रचनात्मकता को भी बढ़ावा देती हैं. किताबें पढ़ने से रचनात्मकता जिस तरह बेहतर होती है वैसा असर डिजिटल का नहीं हो सकता. किताब पढ़ते समय छात्र दुनिया के अलग-अलग हिस्सों और कालखंड की कल्पना करने लगते हैं. वो इस मामले में जेके रोलिंग की हैरी पॉटर सीरीज का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि दुनिया भर में करोड़ों लोग इसके दीवाने हैं. पुस्तक के दिलचस्प पात्र और विस्तार से उनकी जादुई दुनिया के वर्णन से छात्रों की कल्पना भी उड़ान भरने लगती है. वो सपने देखते हुए खुद की काल्पनिक कहानियां की दिशा में प्रेरित होते हैं.
प्रोफेसर मजूमदार कहते हैं, "छपी हुई किताबें पढ़ने से शब्द भंडार भी बढ़ता है. छात्र और युवा नए शब्द सीखते हैं. इससे उनका ज्ञान समृद्ध होता है. नए शब्द सीखने के लिए किताबें पढ़ने से बेहतर कोई और तरीका नहीं है."
अब तो स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी बेहतर नींद के लिए लोगों को रात को सोने से पहले किताबें पढ़ने की सलाह देने लगे हैं. एक मनोचिकित्सक डॉ. विवेक गोस्वामी डीडब्ल्यू से कहते हैं, "रात को बिस्तर पर सोने से पहले किताबें पढ़ने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता. इससे बेहद सुकून भरी नींद आती है. इसके उलट देर रात तक मोबाइल चलाने वाले लोग रात को नींद में खलल की शिकायत करते पाए जाते हैं. किताबें पढ़ने की आदत लोगों को मानसिक अवसाद से भी दूर रखने में मददगार होती है."