
चाइल्ड ट्रैफिकिंग यानी बाल तस्करी के शिकार बच्चे शोषण, अपहरण और दुर्व्यवहार का शिकार होते हैं. तमाम कानून होने पर भी भारत में यह थम नहीं रहा. ना सिर्फ बच्चों के जीवन पर बल्कि समाज पर भी इसके बहुत गंभीर प्रभाव हो रहे हैं.सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2023 में भारत में करीब बीस हजार बच्चे ऐसे थे जो सड़कों पर रहते थे. इनमें से सिर्फ दस हजार बच्चे ही ऐसे थे जो अपने परिवारों के साथ सड़कों पर रहते थे और बाकी बच्चे बेघर थे. ये बेघर बच्चे ना सिर्फ बाल श्रम और तस्करी का शिकार होते हैं, बल्कि उन्हें यौन शोषण, शारीरिक दुर्व्यवहार और उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के मुताबिक, भारत में हर आठ मिनट में एक बच्चा लापता होता है, जो बाल तस्करी की गंभीरता को दर्शाता है. हालांकि साल 2022 में आई रिपोर्ट में बाल तस्करी के मामलों को स्पष्ट रूप से अलग श्रेणी में नहीं दर्शाया गया है, लेकिन बच्चों से संबंधित अपराधों के आंकड़े इस समस्या की गंभीरता को उजागर करते हैं.
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चाइल्ड ट्रैफिकिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्देश दिया है. इसमें कहा गया है कि सभी राज्यों के उच्च न्यायालय बाल तस्करी से संबंधित लंबित मुकदमों की स्थिति की जानकारी दें और छह महीने के भीतर ऐसे मुकदमों का निस्तारण करें.
उत्तर प्रदेश टॉप पर
केंद्र सरकार ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि साल 2020 से लगभग 36 हजार बच्चे गायब हैं जिन्हें अभी तक खोजा नहीं जा सका है. चाइल्ड ट्रैफिकिंग और बच्चों के खिलाफ अपराध के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति बेहद गंभीर है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, अपहरण के मामले देश भर में सबसे ज्यादा यूपी में ही दर्ज होते हैं. साल 2022 में यूपी में 16,262 अपहरण के मामले दर्ज किए गए थे.
कोविड के बाद यूपी में चाइल्ड ट्रैफिकिंग के मामलों में अचानक काफी बढ़ोत्तरी हुई. कोविड से पहले यानी साल 2019 में यूपी में चाइल्ड ट्रैफिकिंग के जहां 267 मामले दर्ज थे, वहीं 2022 में ये संख्या बढ़कर 1,214 हो गई.महिलाओं और बच्चों की समस्या पर लिखने वाली लखनऊ की वरिष्ठ पत्रकार वंदिता मिश्रा कहती हैं कि यूपी एक ऐसा राज्य है जिसकी सीमा कई राज्यों से मिलती हैं, इसलिए यहां बाल तस्करी के मामले ज्यादा हैं.
डीडब्ल्यू से बातचीत में वंदिता मिश्रा ने कहा, "भौगोलिक समस्याएं और बड़ा राज्य होना तो कारण हैं ही, प्रशासनिक अनदेखी भी बहुत हद तक जिम्मेदार है. प्रशासनिक अनदेखी इस कदर है कि हाल ही में यूपी के एक अस्पताल से एक नवजात लड़के को गायब करके उसे ऐसे लोगों तक पहुंचा दिया गया जिन्हें लड़का चाहिए था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभियुक्तों को जमानत दे दी. सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार और इलाहाबाद उच्च न्यायालय को जमकर फटकार लगाई और आदेश दिया कि जिस अस्पताल में ऐसी घटना होगी उसका लाइसेंस तत्काल रद्द किया जाए.”
बाल श्रम पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की संस्था कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रन फाउंडेशन की ओर से तैयार की गई एक रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 के बाद चाइल्ड ट्रैफिकिंग के मामलों में 68 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2016 से 2022 तक 13,549 बच्चों को ट्रैफिकिंग से बचाया गया, जिनमें से 80 फीसदी बच्चे 13 से 18 साल की उम्र के थे.
चाइल्ड ट्रैफिकिंग की वजह क्या है?
चाइल्ड ट्रैफिकिंग की मुख्य वजहें अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी तो हैं ही, इसके अलावा सामाजिक भेदभाव की वजह से दलित और आदिवासी समुदाय के बच्चों के लिए इसका शिकार होने का जोखिम ज्यादा रहता है. आर्थिक तंगी के कारण कई परिवार अपने बच्चों को काम पर भेजने के लिए मजबूर होते हैं और कई बार ये बच्चे तस्करों के हाथ लग जाते हैं.
राज्यों की पुलिस बाल तस्करी को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है लेकिन कई बार कानूनी दांव-पेंच और इस अपराध में लगे लोगों के राजनीतिक गठजोड़ उसे भी असहाय कर देते हैं. उत्तर प्रदेश में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहती हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने अस्पताल से बच्चों की चोरी को लेकर भले ही इतनी गंभीर टिप्पणी की हो लेकिन अस्पताल आजकल बच्चों की तस्करी के बड़े माध्यम बन चुके हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. अस्पतालों में इन अपराधों के लिए छोटे-मोटे गिरोह नहीं बल्कि कई बार अस्पताल प्रशासन तक की भूमिका रहती है. उससे भी गंभीर बात ये है कि कई बार अभिभावक भी पैसों के लालच में बाल तस्करी में शामिल हो जाते हैं.”
कानून क्या कहता है?
बाल तस्करी से निपटने के लिए भारत में कई कानून हैं, जिनमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम 1956, बाल संरक्षण अधिनियम 2012 और किशोर न्याय अधिनियम 2000 शामिल हैं. इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 23 में भी मानव तस्करी पर प्रतिबंध लगाया गया है.
जानकारों का कहना है कि चाइल्ड ट्रैफिकिंग को लेकर कानून तो हैं लेकिन सबसे बड़ी कमी उन्हें लागू करने और बच्चों की देखभाल में है. दिल्ली हाईकोर्ट में वकील और बच्चों के अधिकारों पर काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता पूनम मेहरा कहती हैं, "गरीबी और आर्थिक असमानता के चलते बच्चे अक्सर तस्करी के शिकार हो जाते हैं और आसान लक्ष्य बन जाते हैं. कानूनों का कमजोर प्रवर्तन भी इसे बढ़ावा देता है. कानूनों का सख्ती से पालन नहीं किया जाता है, तो तस्कर बच निकलते हैं. और हां, प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग भी चाइल्ड ट्रैफिकिंग को बढ़ावा देता है. आजकल तस्कर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का उपयोग करके बच्चों से मेल-जोल बढ़ाते हैं और फिर उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं.”
हालांकि वंदिता मिश्रा कहती हैं कि भारत में बाल तस्करी के लिए अलग से कोई कानून ना होना भी इस समस्या को रोक पाने में बाधक है. उनका कहना है, "अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम जैसे कानून हैं लेकिन ये केवल वेश्यावृत्ति पर केंद्रित हैं. इसके अलावा किशोर न्याय अधिनियम और बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम उपलब्ध जरूर हैं लेकिन अपर्याप्त हैं. गृह मंत्रालय बाल तस्करी से संबंधित दिशानिर्देश तो जारी करता है लेकिन उस पर अमल करने का काम राज्य सरकार का है. यूपी में इन दिशा-निर्देशों का कैसा पालन हो रहा है ये आंकड़ों और सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी से स्पष्ट है. जब तक एक अलग कानून और जिम्मेदारी नहीं तय की जाएगी, इस श्राप से मुक्ति नहीं मिलेगी.”