पटना हाईकोर्ट ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण सीमा को 50 से बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने से जुड़े बिहार सरकार के नोटिफिकेशन पर रोक लगा दी है.पटना उच्च न्यायालय ने राज्य में सरकारी नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन के लिए अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अति-पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) तथा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आरक्षण सीमा को 50 से बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने के बिहार सरकार के नोटिफिकेशन पर रोक लगा दी है.
भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिए जाने के निर्णय को आधार बनाकर बिहार सरकार द्वारा आरक्षण बढ़ाने संबंधी कानून को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी. इस कानून के बनने के बाद सवर्णों (आर्थिक रूप से पिछड़े) के 10 प्रतिशत कोटा को मिलाकर कुल आरक्षण 75 प्रतिशत हो गया था.
अदालत ने संबंधित याचिकाओं पर बीते 11 मार्च को सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था. 20 जून को मुख्य न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन एवं जस्टिस हरीश कुमार की खंडपीठ ने बिहार आरक्षण (एससी-एसटी व ओबीसी के लिए) संशोधन अधिनियम, 2023 तथा बिहार (शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए) आरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 को रद्द कर दिया.
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आरक्षण की सीमा बढ़ाने के पहले ना तो कोई गहन अध्ययन किया गया और ना ही सही आकलन किया गया. अदालत ने इसे संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन भी बताया. याचिकाकर्ताओं का भी कहना था कि आरक्षण आबादी की बजाय सामाजिक तथा शिक्षा में पिछड़ेपन के आधार पर होना चाहिए. यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है.
जातिवार गणना की रिपोर्ट पर बढ़ाया था कोटा
बिहार सरकार ने 2 अक्टूबर 2023 को जारी जातिवार गणना की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए आरक्षण की सीमा को बढ़ाया था. इस रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में अति-पिछड़ा वर्ग की आबादी सबसे अधिक 36.01 प्रतिशत है, वहीं पिछड़ा वर्ग 27.12, एससी 19.55, एसटी 01.06 तथा अन्य 15.52 प्रतिशत हैं.
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नवंबर 2023 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधानसभा में आरक्षण के दायरे को बढ़ाए जाने संबंधी विधेयक पेश किया. इसके आधार पर एससी का आरक्षण 16 से बढ़ाकर 20 प्रतिशत, एसटी का एक से दो, ओबीसी का 12 से 18 तथा ईबीसी का 18 से 25 प्रतिशत करने का प्रस्ताव था.
सदन के शीतकालीन सत्र में 9 नवंबर को आरक्षण सीमा 65 प्रतिशत किए जाने के फैसले को बिहार विधानमंडल के दोनों सदन, विधानसभा तथा विधान परिषद से पारित भी कर दिया गया. 21 नवंबर 2023 को राज्यपाल की मंजूरी के बाद आरक्षण बढ़ाए जाने संबंधी विधेयक कानून बन गया तथा पूरे राज्य में लागू हो गया.
समानता के अधिकार का उल्लंघन
राजनीतिक समीक्षक एके चौधरी कहते हैं, "कोर्ट का यह फैसला अब नीतीश कुमार के गले की हड्डी बनेगा. उस समय तो बीजेपी से अलग रहते हुए उन्होंने उसके हिंदुत्व के एजेंडे की काट में मंडल की राजनीति को हवा देने के लिए ऐसा किया था. इसलिए वे लगातार इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में डालने की मांग कर रहे थे." नीतीश कुमार तब कांग्रेस एवं आरजेडी के साथ मिलकर महागठबंधन की सरकार चला रहे थे.
20 जून को हाईकोर्ट ने इस कानून को संविधान के तीन अनुच्छेदों 14,15 व 16 का उल्लंघन करार देते हुए निरस्त किया है. ये तीनों अनुच्छेद समानता के अधिकार की गारंटी देते हैं तथा इन्हीं की अलग-अलग धाराओं के जरिए सरकार को सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, एससी-एसटी के लिए विशेष प्रबंध करने की शक्ति मिलती है. अन्य के लिए किए गए आरक्षण का आधार भी यही है.
क्या है संविधान की नौवीं अनुसूची
संविधान की नौवीं अनुसूची में केंद्रीय व राज्य के कानूनों की एक सूची है, जिन्हें अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती है. इसे पहले संविधान संशोधन अधिनियम 1951 के तहत जोड़ा गया था. पहले संशोधन में इस सूची में 13 कानूनों को जोड़ा गया.
कई अन्य संशोधनों के बाद इस अनुसूची में संरक्षित कानूनों की संख्या अब 284 हो गई है. विदित हो कि सभी जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान पीठ ने 1992 में ही इंदिरा साहनी मामले में यह फैसला दिया था कि किसी भी हाल में आरक्षण को 50 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता है.
बढ़ेगी नीतीश सरकार की चुनौती
हाईकोर्ट के फैसले का बिहार और भारत की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. विपक्ष अब तेजी से नीतीश सरकार पर दबाव बढ़ाएगा कि इसे किसी हाल में बहाल किया जाए. नीतीश सरकार के सामने भी ईबीसी तथा ओबीसी को साधने की चुनौती बढ़ेगी. यह स्थिति बीजेपी के लिए भी समस्याएं खड़ी करेगी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार पर दबाव बढ़ेगा कि जिस तरह तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण है, उसी तरह बिहार में इसे लागू किया जाए. इस मुद्दे पर राजनीति भी शुरू हो गई है. भाकपा-माले के राज्य सचिव कुणाल ने इस फैसले को वंचित समुदाय के प्रति घोर अन्याय बताया है.
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वहीं, आरजेडी के सांसद मनोज झा ने कहा है कि ऐसे फैसलों से सामाजिक न्याय की मंजिल पाने में फासला बढ़ता है. उन्होंने कहा, "हमें याद है कि तमिलनाडु को कई साल तक संघर्ष करना पड़ा था. हमारी पार्टी भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगी."
पत्रकार अमित सिंह कहते हैं, "साफ है नीतीश कुमार स्थिति से निपटने के लिए बीजेपी पर दबाव बढ़ाएंगे कि जिस तरह 1993 में जयललिता ने तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार से तमिलनाडु वाले आरक्षण बढ़ाने के कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डलवाया था, उसी तरह बिहार के लिए भी किया जाए.
बीजेपी के लिए यह आसान नहीं होगा. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ तथा झारखंड भी अब आरक्षण सीमा बढ़ाने की गुजारिश करेंगे. यह फैसला ऐसे समय में आया है जब आरक्षण का मुद्दा हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में काफी जोरदार तरीके से उठाया गया था.
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विपक्ष का साफ कहना था कि बीजेपी को दो-तिहाई बहुमत मिला, तो आरक्षण को खत्म कर दिया जाएगा. यह तो समय ही बताएगा कि केंद्र की मोदी सरकार इस संवेदनशील मुद्दे से कैसे निपटेगी, क्योंकि उसपर विपक्ष क्या, सहयोगियों का भी सियासी दबाव बढ़ना तय है.