भारतीय क्रांतिकारियों के सिरमौर सरदार भगत सिंह (Bhagat Singh) ने जीवन के महज 24 बसंत ही देखे थे, बहुत थोड़े से वक्फे में उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो क्रांतिकारी बिगुल फूंका था, उससे अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिल गयी थी. अंग्रेज भगत सिंह के नाम मात्र से इस कदर दहशतजदा हो चुके थे कि सारे नियम कानून ताक पर रखते हुए उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया. भगत सिंह की क्रांतिकारी, वीरता, कूटनीति, अंग्रेजों के प्रति नफरत की तमाम कहानियां आपने सुनी होगी. लेकिन हम यहां उनके जीवन के कुछ बेहद रोचक प्रसंगों को प्रस्तुत कर रहे हैं. भगतसिंह का जन्म पंजाब के लायलपुर के बंगा गांव (अब पाकिस्तान में) में सरदार किशन सिंह के घर पर 27 सितंबर 1907 को विद्यावती के गर्भ से हुआ था. यह भी पढ़ें: Bhagat Singh 113th Birth Anniversary: वीर सपूत भगत सिंह की 113वीं जयंती पर पढ़ें उनके 6 क्रांतिकारी विचार, जिससे आज भी जल उठती है देशभक्ति का अलख
जिस समय भगत सिंह ने जन्म लिया, उसी दिन ब्रिटिश हुकूमत ने लाहौर जेल में कैद उनके पिता सरदार किशन सिंह को रिहा किया और तीसरे दिन दोनों चाचा को जमानत पर रिहाई मिली. दादा अर्जुन सिंह और दादी जयकौर ने माना कि भगत सिंह अपने परिवार का भाग्य बनकर आये हैं, इसीलिए उनका नाम भगत सिंह रखा गया. यह भी पढ़ें: PM Narendra Modi, Mann Ki Baat: आज के युवा भगत सिंह कैसे बन सकते हैं? सवाल का पीएम मोदी ने दिया जवाब
3 साल की उम्र में जब बोई बंदूकें:
भगत सिंह को देश-प्रेम विरासत में मिला था. वे चाहते थे कि वे अपने पिता आजादी की अधूरी कहानी को पूरा करें. वे जानते थे कि अंग्रेजी हुकूमत को देश से बाहर खदेड़ने के लिए हिंसात्मक कार्रवाई के अलावा कोई रास्ता नहीं है. वे गांधी जी का सम्मान तो खूब करते थे, मगर गांधी जी की अहिंसात्मक आंदोलन की बातें उनकी समझ से परे थी. एक दिन जब वे मात्र तीन वर्ष के थे, उनके पिता किशन सिंह उऩ्हें लेकर अपने मित्र के गांव गये हुए थे. वहां पर पास के खेत में भगत सिंह ने कुछ टहनियां बोईं, पिता के मित्र ने हैरान होकर पूछा ये क्या कर रहे हो. इस पर त्योरियां चढ़ाते हुए बाल भगत सिंह ने कहा कि मैंने बंदूकें बोई हैं. इन्हीं बंदूकों से मैं अंग्रेजों से देश को आजाद कराऊंगा.
12 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश हुकूमत को मिटाने की ली शपथ:
पिता किशन सिंह चाहते थे कि भगत सिंह अपनी शिक्षा पूरी करें. बंगा गांव में प्राइमरी की पढ़ाई के बाद उनका एडमिशन डीएवी स्कूल में करवाया गया. लेकिन भगत सिंह की पढ़ाई में जरा भी रुचि नहीं थी. उन्हीं दिनों 13 अप्रैल 1919 को वैसाखी वाले दिन अंग्रेजी हुकूमत के रौलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जालियांवाला बाग में भारी सभा आयोजित की गयी. इससे खिसियाकर जनरल डायर ने क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए मासूम और निहत्थे हजारों लोगों जिनमें बच्चे और महिलाएं ज्यादा थीं, पर गोलियों की बौछार करवा दिया. इस नरसंहार ने भगत सिंह को विचलित कर दिया. अगले दिन वे जालियांवाला बाग गये और मासूमों की रक्त से सनी मिट्टी हाथ में लेकर कसम खाई कि वे अंग्रेजी हुकूमत से इन मासूमों की हत्या का बदला लेकर रहेंगे.
विद्यालंकार को बनाया अपना राजनीतिक गुरु:
साल 1920 में गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन के जरिये आह्वान किया कि विद्यार्थी सरकारी स्कूल छोड़ें और सरकारी कर्मचारी अपने-अपने पदों से इस्तीफा दें. भगत सिंह ने तत्काल डीएवी कॉलेज छोड़कर लाहौर स्थित लाला लाजपत राय के नेशनल कॉलेज में एडमिशन ले लिया. यहीं पर वे क्रांतिकारी सुखदेव, रामकिशन, तीर्थराम, यशपाल, भगवती चरण, झण्डा सिंह जैसे क्रांतिकारियों से जुड़े. यहां कॉलेज के प्रोफेसर विद्यालंकार जी भगत सिंह के विचारों को सुनकर बहुत प्रभावित हुए. भगत सिंह ने उन्हें अपना राजनीतिक गुरू बना लिया, और उन्हीं के दिशा निर्देशन में आंदोलनों एवं देशभक्ति के कार्यक्रमों से जुड़ते और अपने कार्य को अंजाम देते थे.
सर पर कफन बांधने के बाद शादी का कोई अर्थ नहीं:
साल 1924 में जब भगत सिंह बीए की शिक्षा पूरी कर रहे थे, तब घर वालों ने उन पर विवाह का दबाव बनाया. भगत सिंह ने शादी से मना करते हुए कहा कि अब उन्होंने देश की आजादी के लिए सर पर कफन बांध लिया है, वे किसी लड़की की जिंदगी खराब नहीं कर सकते. लेकिन जब घर वालों ने उन पर ज्यादा दबाव बनाने की कोशिश की भगत सिंह घर से भाग गये. उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा,जिसके मजमून कुछ इस तरह थे, -पूज्य पिताजी नमस्ते! मेरी जिंदगी भारत की आजादी के संकल्प स्वरूप दान की जा चुकी है. आपको याद होगा कि जब मैं बहुत छोटा-सा था, तो दादाजी ने मेरे जनेऊ संस्कार के समय ही मुझे वतन की सेवा के लिए दान कर दिया था. मैं उन्हीं की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूं. इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और सांसारिक सुखों का अब कोई आकर्षण नहीं रहा.'
भगत सिंह 23 मार्च को फांसी पर चढ़ने के लिए व्यग्र थे. हांलाकि जीने की अकांक्षा उनके मन में भी थोड़ी बहुत शेष थी. फांसी पर चढ़ने से एक दिन पूर्व उन्होंने यह बात अपने पत्र में भी लिखी. -साथियों जीने की इच्छा किसे नहीं होती, स्वाभाविक है, मुझमें भी होनी चाहिए. मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मैं एक ही शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि मुझे कैदी का जीवन ना गुजारना पड़े. मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है. क्रांतिकारी दलों के आदर्शों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीते जी मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता. मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों में भगत सिंह को देखना चाहेंगी. इससे आजादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना नामुमकिन हो जाएगा!'